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अथर्ववेद के काण्ड - 1 के सूक्त 19 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 19/ मन्त्र 2
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - ईश्वरः छन्दः - पुरस्ताद्बृहती सूक्तम् - शत्रुनिवारण सूक्त
    77

    विष्व॑ञ्चो अ॒स्मच्छर॑वः पतन्तु॒ ये अ॒स्ता ये चा॒स्याः॑। दै॑वीर्मनुष्येसषवो॒ ममा॑मित्रा॒न्वि वि॑ध्यत ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    विष्व॑ञ्च: । अ॒स्मत् । शर॑व: । प॒त॒न्तु॒ । ये । अ॒स्ता: । ये । च॒ । आ॒स्या: । दैवी॑: । म॒नु॒ष्य॒ऽइ॒ष॒व॒: । मम॑ । अ॒मित्रा॑न् । वि । वि॒ध्य॒त॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विष्वञ्चो अस्मच्छरवः पतन्तु ये अस्ता ये चास्याः। दैवीर्मनुष्येसषवो ममामित्रान्वि विध्यत ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विष्वञ्च: । अस्मत् । शरव: । पतन्तु । ये । अस्ता: । ये । च । आस्या: । दैवी: । मनुष्यऽइषव: । मम । अमित्रान् । वि । विध्यत ॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 1; सूक्त » 19; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    जय और न्याय का उपदेश।

    पदार्थ

    (ये) जो बाण (अस्ताः) छोड़े गये हैं (च) और (ये) जो (आस्याः) छोड़े जायेंगे (विष्वञ्चः) [वे] सब ओर फैले हुए (शरवः) बाण (अस्मत्) हमसे [दूर] (पतन्तु) गिरें। (दैवीः मनुष्येषवः) हे [हमारे] मनुष्यों के दिव्य बाणो ! [बाण चलानेवाले तुम] (मम) मेरे (अमित्रान्) पीडा देनेहारे शत्रुओं को (विविध्यत) छेद डालो ॥२॥

    भावार्थ

    सेनापति इस प्रकार अपनी सेना का व्यूह करे कि शत्रुओं के अस्त्र-शस्त्र जो चल चुके हैं अथवा चलें, वे सेना के न लगें और उस निपुण सेनापति के योद्धाओं के (दैवीः) दिव्य अर्थात् आग्नेय [अग्निबाण] और वारुणेय [जलबाण जो बन्दूक़ आदि जल में वा जल से छोड़े जावें] अस्त्र शत्रुओं को निरन्तर छेद डालें ॥२॥ इस मन्त्र में वर्तमानकाल का अभाव है, क्योंकि वह अति सूक्ष्म और वेगवान् है और मनुष्यों को अगम्य है।

    टिप्पणी

    २−विष्वञ्चः। म० १। विषु+अञ्चु−क्विन्। विविधगमनाः। शरवः। म० १। शृस्वृस्निहि। उ० १।१०। इति शृ हिंसायाम्−उ। बाणाः। अस्त्रशस्त्राणि। पतन्तु। निपतन्तु अधोगच्छन्तु। अस्ताः। असु क्षेपणे−क्त। क्षिप्ताः, विनिर्मुक्ताः। आस्याः। ऋहलोर्ण्यत्। पा० ३।१।१२४। इति असु क्षेपणे-ण्यत्। क्षेपणीयाः। दैवीः। देवाद् यञञौ। वार्त्तिकम्, पा० ४।१।८५। इति देव-अञ्, देवस्य इयमित्यर्थे। टिड्ढाणञ्०। पा० ४।१।१५। इति ङीप्। वा छन्दसि पा० ६।१।१०६। इति जसि पूर्वसवर्णदीर्घः। ञ्नित्यादिर्नित्यम्। पा० ६।१।१९७। इति आद्युदात्तः। दिव्याः। आग्नेयवारुणादयो बाणाः। मनुष्य-इषवः। मनोर्जातावञ्यतौ षुक् च। पा० ४।१।१६१। इति मनु-यत् अपत्यार्थे, षुगागमश्च। मनोरपत्यम् मनुष्यः, मनुजः, मानवः। इष गतौ-उ। इषुः, बाणः। मनुष्याणाम् अस्मदीयानाम् इषवः, बाणाः, अस्त्रशस्त्राणि। मम। मदीयान्। अमित्रान्। अमेर्द्विषति चित्। उ० ४।१७४। इति अम रोगे, पीडने-इत्रच्। पीडकान शत्रून्। वि। विविधम्। विध्यत। व्यध ताडने वेधने−लोट्। छिन्त, भिन्त ॥

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    विषय

    "दैव व मानुष' इषु

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र के विव्याधी और अभिव्याधी के (ये अस्ता:) = जो फेंके जा चुके हैं, ये (च) = और जो (आस्या:) = फेंके जाने हैं, वे (विष्वञ्चः शरव:) = विविध दिशाओं से आनेवाले अस्त्र (अस्मत्) = हमसे दूर ही (पतन्त) = गिरें । हम इनके बाणों के शिकार न हों। जो बाण इन्होंने फेंके हैं उनके आक्रमण से हम बचें और जो बाण इनसे फेंके जाएँगे उनसे भी हम बच पाएँ। वर्तमान में भी लोभ

    और काम के शिकार न हों, भविष्य में भी इनका शिकार होने की आशंका से बचे रहें। २. हे (देवी:) = देव-सम्बन्धी अस्त्रो! तथा (मनुष्येषवः) = मनुष्य-सम्बन्धी अस्त्रो! तुम सब (मम) = मेरे (अमित्रान्) = शत्रुओं को ही (विविध्यत) = बींधो, मैं तुम्हारा शिकार न होऊँ। देव-सम्बन्धी अस्त्र 'निखरते हुए यौवन का सौन्दर्य, चाल की मस्ती व कटाक्षवीक्षण [Side look glance] आदि हैं। हम इन सबके कुप्रभाव से बचें। हमारे शत्रु ही इनके शिकार बनें।

    भावार्थ

    हम वर्तमान में भी लोभ व काम के शिकार न हों, भविष्य में भी इनका शिकार होने से बचें। प्रकृति की बसन्त-ऋतु आदि में होनेवाली शोभा तथा किसी भी युवक व युवति की हाव-भावभरी गतियाँ हमें काम का शिकार न बना सकें।

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    भाषार्थ

    (अस्मत्) हमसे (विष्वञ्चः) सर्वत्रगामी, (शरवः) हिंसक इषु (ये) जोकि (अस्ताः) फेंके जा चुके हैं, (ये च) और जो (आस्याः) भविष्य में फेंके जानेवाले हैं, (दैवी:) वे दिव्य भावनाएँ रूप इषु (मनुष्येषवः) तथा मननशील मनुष्य के मननरूप मानसिक विचाररूप इषु, (मम अमित्रान् ) मेरे साथ स्नेह न करनेवालों को (विविध्यत) विशेषतया वींधो।

    टिप्पणी

    [इषु दो प्रकार के हैं– दैवी तथा मननशील मनुष्य के मानसिक मनन रूप। ये दोनों अमित्ररूप-काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि को वींधते हैं।]

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    विषय

    शत्रुओं का विनाश।

    भावार्थ

    ( ये ) जो ( शरवः ) हिंसक बाण ( अस्ताः ) फैंक दिये और ( ये च ) जो ( आस्याः ) फैंकने हैं वे सब ( अस्मत् ) हमसे दूर ही ( विश्वञ्चः ) सब दिशाओं में ( पतन्तु ) जाकर पडें। और (दैवीः) जल, अग्नि और वायु, विद्युत् आदि के बल से और ( मनुष्येषवः ) मनुष्य के बल से फेंके जाने वाले बाण और अस्त्र ( मम ) मेरे (अमित्रान्) शत्रुओं को (वि विध्यत) नाना प्रकार से मारें ।

    टिप्पणी

    ‘त्रि विध्यतु’ इति पाठः सायणाभिमतः। (तृ०)

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। १ इन्द्रः, २ मनुष्येषवः, ३ रुद्रः ४ सर्वे देवा देवताः। १-४ अनुष्टुप् २ पुरस्ताद् बृहती, ३ पथ्या पंक्तिः । चतुर्ऋचं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    No Enemies

    Meaning

    Let all the missiles fall far away from us, those that are shot and those which are directed to be shot at us. Let all the missiles whether manual or mechanical and super human fall upon and fix our enemies.

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    Subject

    Indra and Man

    Translation

    Diverted away from us may fall the arrows, that have been shot or are yet to be shot at us. O divine arrows of men, may you pierce my enemies through and through.

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    Translation

    Far from us in all directions let there fall those arrows which are shot and which are to be shot. Let the arrows of men made by the scientific means (Daivih) strike and transfix our enemies.

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    Translation

    Let the arrows shot, and those that will be shot, fall far from us in all directions. May the supernatural shafts shot by warriors, strike and transfix mine enemies!

    Footnote

    Supernatural refers to Agneya and Varuneya arrows, which when let loose emit fire and water.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−विष्वञ्चः। म० १। विषु+अञ्चु−क्विन्। विविधगमनाः। शरवः। म० १। शृस्वृस्निहि। उ० १।१०। इति शृ हिंसायाम्−उ। बाणाः। अस्त्रशस्त्राणि। पतन्तु। निपतन्तु अधोगच्छन्तु। अस्ताः। असु क्षेपणे−क्त। क्षिप्ताः, विनिर्मुक्ताः। आस्याः। ऋहलोर्ण्यत्। पा० ३।१।१२४। इति असु क्षेपणे-ण्यत्। क्षेपणीयाः। दैवीः। देवाद् यञञौ। वार्त्तिकम्, पा० ४।१।८५। इति देव-अञ्, देवस्य इयमित्यर्थे। टिड्ढाणञ्०। पा० ४।१।१५। इति ङीप्। वा छन्दसि पा० ६।१।१०६। इति जसि पूर्वसवर्णदीर्घः। ञ्नित्यादिर्नित्यम्। पा० ६।१।१९७। इति आद्युदात्तः। दिव्याः। आग्नेयवारुणादयो बाणाः। मनुष्य-इषवः। मनोर्जातावञ्यतौ षुक् च। पा० ४।१।१६१। इति मनु-यत् अपत्यार्थे, षुगागमश्च। मनोरपत्यम् मनुष्यः, मनुजः, मानवः। इष गतौ-उ। इषुः, बाणः। मनुष्याणाम् अस्मदीयानाम् इषवः, बाणाः, अस्त्रशस्त्राणि। मम। मदीयान्। अमित्रान्। अमेर्द्विषति चित्। उ० ४।१७४। इति अम रोगे, पीडने-इत्रच्। पीडकान शत्रून्। वि। विविधम्। विध्यत। व्यध ताडने वेधने−लोट्। छिन्त, भिन्त ॥

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    बंगाली (3)

    पदार्थ

    (য়ে) যে সব বাণ (অস্ত্রাঃ) নিক্ষিপ্ত হইয়াছে (চ) এবং (য়ে) যে সব বাণ (অস্যাঃ) নিক্ষিপ্ত হইবে এবং (বিস্বঞ্চঃ) ইতস্ততঃ নিক্ষিপ্ত (শরবঃ) বাণ (অস্মৎ) আমাদের নিকট হইতে দূরে (পতন্তু) পতিত হউক। (দৈবীঃ মনুষ্যেষবঃ) হে মনুষ্যের আগ্নেয় বাণ সমূহ! (মম) আমার (অমিত্রান্) পীড়াদায়ক শত্রুগণকে (বি বিধ্যত) বিদ্ধ কর।।

    भावार्थ

    যে সব বাণ নিক্ষিপ্ত হইয়াছে, যাহা নিক্ষিপ্ত হইবে এবং যাহা ইতস্ততঃ নিক্ষিপ্ত রহিয়াছে তাহা আমাদের নিকট হইতে দূরে পতিত হউক। হে অগ্নেয় বাণ সমূহের চালক সৈন্যগণ! আমাদের ক্লেশ দায়ক শত্রু দলকে বিদ্ধ কর।।

    मन्त्र (बांग्ला)

    বিস্বঞ্চো অস্মচ্ছরবঃ পতন্তু য়ে অস্তা য়ে চাস্যাঃ। দৈবীর্মনুষ্যেষবো মমামিত্ৰাম্ বি বিধ্যত।

    ऋषि | देवता | छन्द

    ব্ৰহ্মা। মনুষ্যেষবঃ। পুরস্তাদ্ বৃহতী

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    मन्त्र विषय

    (জয়ন্যায়োপদেশঃ) জয় এবং ন্যায়ের উপদেশ।

    भाषार्थ

    (যে) যে বাণ (অস্তাঃ) নিক্ষিপ্ত হয়েছে (চ) এবং (যে) যে [বাণ] (আস্যাঃ) নিক্ষিপ্ত হবে (বিষ্বঞ্চঃ) [সেই] সব দিকে বিস্তৃত (শরবঃ) বাণ (অস্মৎ) আমাদের থেকে [দূরে] (পতন্তু) পতিত হোক। (দৈবীঃ মনুষ্যেষবঃ) হে [আমাদের] মনুষ্যদের দিব্য বাণসমূহ ! [বাণ চালনাকারী তুমি] (মম) আমার (অমিত্রান্) পীড়া দানকারী শত্রুদেরকে (বিবিধ্যত) ছিন্ন করো। ॥২॥

    भावार्थ

    সেনাপতি এভাবে নিজের সেনার ব্যূহ রচনা করবেন যে, শত্রুদের অস্ত্র-শস্ত্র, যা নিক্ষিপ্ত (চালিত) হয়েছে অথবা নিক্ষেপ হবে, সেসব সেনাদের যেন আঘাত না করে এবং সেই নিপুণ সেনাপতির যোদ্ধাদের (দৈবীঃ) দিব্য অর্থাৎ আগ্নেয় [অগ্নিবাণ] এবং বারুণেয় [জলবাণ, যা বন্দূক় আদি জলে বা জল থেকে নিক্ষেপ করা যায়] অস্ত্র শত্রুদেরকে নিরন্তর ছিন্ন করবে ॥২॥ এই মন্ত্রে বর্তমানকালের অভাব রয়েছে, কেননা এটি অতি সূক্ষ্ম এবং বেগবান এবং মনুষ্যদের অগম্য।

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    भाषार्थ

    (অস্মৎ) আমাদের থেকে (বিষ্বঞ্চঃ) সর্বত্রগামী, (শরবঃ) হিংসুক ইষু (যে) যা (অস্তাঃ) নিক্ষিপ্ত হয়েছে, (যে চ) এবং যা (আস্যাঃ) ভবিষ্যতে নিক্ষিপ্ত হবে, (দেবীঃ) সেই দিব্য ভাবনারূপ ইষু (মনুষ্যেষবঃ) তথা মননশীল মনুষ্যের মননরূপ মানসিক বিচাররূপ ইষু, (মম অমিত্রান) আমার সাথে স্নেহ যে/যারা করে না/অমিত্রদের/শত্রুদের (বিবিধ্যত) বিশেষভাবে আহত করো/বিদ্ধ করো।

    टिप्पणी

    [ইষু দুই প্রকারের-দৈবী এবং মননশীল মনুষ্যের মানসিক মননরূপ। এই দুই অমিত্ররূপ-কাম, ক্রোধ, লোভ, মোহ আদিকে ছেদন করে।]

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