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अथर्ववेद के काण्ड - 1 के सूक्त 3 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 6
    ऋषिः - अथर्वा देवता - मन्त्रोक्ता छन्दः - पथ्यापङ्क्तिः सूक्तम् - मूत्र मोचन सूक्त
    199

    यदा॒न्त्रेषु॑ गवी॒न्योर्यद्व॒स्तावधि॒ संश्रु॑तम्। ए॒वा ते॒ मूत्रं॑ मुच्यतां ब॒हिर्बालिति॑ सर्व॒कम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । आ॒न्त्रेषु॑ । ग॒वी॒न्योः । यत् । व॒स्तौ । अधि॑ । सम्ऽश्रु॑तम् ।ए॒व । ते॒ । मूत्र॑म् । मु॒च्य॒ता॒म् । ब॒हिः । बाल् । इति॑ । स॒र्व॒कम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदान्त्रेषु गवीन्योर्यद्वस्तावधि संश्रुतम्। एवा ते मूत्रं मुच्यतां बहिर्बालिति सर्वकम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । आन्त्रेषु । गवीन्योः । यत् । वस्तौ । अधि । सम्ऽश्रुतम् ।एव । ते । मूत्रम् । मुच्यताम् । बहिः । बाल् । इति । सर्वकम् ॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 1; सूक्त » 3; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    शान्ति के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    (यत्) जैसे (यत्) कि (आन्त्रेषु) आँतों में और (गवीन्योः) दोनों पार्श्वस्थ नाड़ियों में और (वस्तौ अधि) मूत्राशय के भीतर (संश्रुतम्) एकत्र हुआ [मूत्र छूटता है]। (एव) वैसे ही (ते मूत्रम्) तेरा मूत्र रूप (बाल्) वैरी (बहिः) बाहिर (मुच्यताम्) निकाल दिया जावे (इति सर्वकम्) यही बस है ॥६॥

    भावार्थ

    जैसे शरीर में रुका हुआ सारहीन मल विशेष, मूत्र अर्थात् प्रस्राव क्लेश देता है और उस के निकाल देने से चैन मिलता है, वैसे ही मनुष्य आत्मिक, शारीरिक और सामाजिक शत्रुओं के निकाल देने से सुख पाता है ॥६॥

    टिप्पणी

    टिप्पणी−सायणभाष्य में (संश्रुतम्) के स्थान में (संश्रितम्) मानकर “समवस्थितम्” [ठहरा हुआ] अर्थ किया है ॥ ६−यत्। यथा। आन्त्रेषु। अमत्यनेन, अम गतौ-क्त्र,। अति बन्धने−करणे ष्ट्रन्। उपधादीर्घः। अन्त्रेषु, उदरनाडीविशेषेषु। गवीन्योः। द्रुदक्षिभ्यामिनन्। उ० २।५०। इति गुङ् ध्वनौ-इनन्। ङीष्। छान्दसो दीर्घः। पार्श्वद्वयस्थे नाड्यौ गवीन्यौ इत्युच्यते, तयोः−इति सायणः। वस्तौ। वसेस्तिः। उ० ४।१८०। इति वस आच्छादने−ति प्रत्ययः। वसति मूत्रादिकम्। मूत्राशये। अधि। उपरि, मध्ये। सम्-श्रुतम्। श्रु श्रवणे गतौ च-क्त। सम्यक् श्रुतम्। संगतम्। एव। एवम्, तथा। मूत्रम्। मूत्र प्रस्रावे-घञ्। यद्वा, सिविमुच्योष्टेरू च। उ० ४।१६३। इति मुच त्यागे−ष्ट्रन्, ऊत्वं च। मुच्यते त्यज्यते इति। प्रस्रावः, मेहनम्। सारहीनो मलद्रवः। मुच्यताम्। मुच−कर्मणि लोट्। त्यज्यताम्, निर्गच्छतु। सर्वकम्। अव्ययसर्वनाम्नामकच् प्राक् टेः। पा० ५।३।७१। इति अकच्। सर्वम्। अन्यद् व्याख्यातं मं० १ ॥

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    विषय

    'मूत्र-निरोध'-निवारण

    पदार्थ

    १. (यत्) = जो (मूत्रम्) = मूत्र-जल (आन्त्रेषु) = आँतों में, (गवीन्यो:) = मूत्र-नाड़ियों में, (यत्) = जो। (वस्तौ) = मूत्राशय में (अधिसंश्रुतम्) =[श्रवति-to go, move] गतिबाला हुआ है-वहाँ एकत्र हो गया है, (ते मूत्रम्) = तेरा वह मूत्र-जल (एव) = शर के प्रयोग से इसप्रकार (बहिः मुच्यताम्) बाहर छूट जाए, (इति) = जिससे कि (सर्वकम्) = सम्पूर्ण शरीर (बाल) = प्राणशक्ति-सम्पन्न बने। २. शरीर में मूत्र के रुक जाने से शरीर में विष फैल जाता है और तब यूरेमिया आदि रोग मृत्यु का कारण बनते हैं। मूत्र द्वारा ये विष शरीर से बाहर हो जाते हैं। इन विषों के निकल जाने पर शरीर के सब अङ्ग ठीक से प्राणशक्ति-सम्पन्न हो जाते हैं।

    भावार्थ

    शर का प्रयोग हमें मूत्र-निरोध आदि रोगों से मुक्त करे।

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    भाषार्थ

    (यत्) जो मूत्र (आन्त्रेषु) आन्तों में, और (गवीन्योः) दो मूत्र नाड़ियों में, (यत्) जो (वस्ती अधि) मूत्र के आवास स्थान में (संश्रितम्) एकत्रित हुआ, आश्रय पाया हुआ है, (एव=एवम्) इस प्रकार ( ते) तेरा (सर्वकम् मूत्रम्) सब मूत्रयुक्त हो जाय (बहिः) आन्त्र आदि से बाहर हो जाय, (बालिति) अथ पूर्ववत्।

    टिप्पणी

    ["आन्त्रेषु= उदरान्तर्गतेषु पुरीतत्मु (उदर के अन्दर फैली आन्तों में)। गवीन्योः= आन्तों से निकले मूत्र को मूत्राशय में प्राप्ति के साधन, दो पार्श्वों में स्थित नाड़ियाँ। वस्ति=धनुराकारमूत्राशय" (सायणाचार्य के अनुसार)। एव=एवम्= इसी प्रकार; अर्थात् जैसेकि पूर्वोक्त "मुच्यताम्" कहा है तद्वत् मुक्त हो जाय, मूत्र बाहर निकल जाय।]

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    भाषार्थ

    (यत्) जो मूत्र (आन्त्रेषु) आन्तों में, और (गवीन्योः) दो मूत्र नाड़ियों में, (यत्) जो (वस्ती अधि) मूत्र के आवास स्थान में (संश्रितम्) एकत्रित हुआ, आश्रय पाया हुआ है, (एव=एवम्) इस प्रकार ( ते) तेरा (सर्वकम् मूत्रम्) सब मूत्रयुक्त हो जाय (बहिः मुच्यताम्) आन्त्र आदि से बाहर हो जाय, (बालिति) अथ पूर्ववत्।

    टिप्पणी

    ["आन्त्रेषु= उदरान्तर्गतेषु पुरीतत्सु (उदर के अन्दर फैली आन्तों में)। गवीन्योः= आन्तों से निकले मूत्र को मूत्राशय में प्राप्ति के साधन, दो पार्श्वों में स्थित नाड़ियाँ। वस्ति=धनुराकारमूत्राशय" (सायणाचार्य के अनुसार)। एव=एवम्= इसी प्रकार; अर्थात् जैसेकि पूर्वोक्त "मुच्यताम्" कहा है तद्वत् मुक्त हो जाय, मूत्र बाहर निकल जाय।]

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    विषय

    शर और शलाका का वर्णन ( वस्तिचिकित्सा ) ।

    भावार्थ

    (यत्) जो मूत्र (आन्त्रेषु) गुर्दों में स्थित नाड़ियों में और ( यत् ) जो मूत्र ( गवीन्योः ) मूत्र को मूत्राशय तक पहुंचाने हारी ‘गविनी’ नामक दो मूत्रवाहिनी नाड़ियों में और (यत्) जो ( वस्तौ अधि ) वस्ति=मूत्राशय के भीतर ( संश्रुतं ) स्थित सुना गया है वह ( ते मूत्रं ) हे रोगी ! तेरा मूत्र ( सर्वकं ) सब का सब ( एवा ) इस प्रकार की चिकित्सा से ( बहिः ) बाहर ( बाल् इति ) ‘बाल्’ इस प्रकार के शब्द के साथ ( मुच्यतां ) छुट कर चला आवे और तू रोग से मुक्त हो जा।

    टिप्पणी

    ‘वस्तावधि सांभवम्’ इति सायणसम्मतः पाठः । ‘सस्त्रुतम्’ इति च क्काचिंत्कः पाठः ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। मन्त्रोक्ताः पर्जन्यमित्रादयो बहवो देवताः। १-५ पथ्यापंक्ति, ६-९ अनुष्टुभः। नवर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Health of Body and Mind

    Meaning

    Whatever stays collected in your intestines, in urinary ducts and in the bladder, let it be thus released all at once.

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    Translation

    Whatever urine is filled in your bowels (entrails), in both the groins and in the bladder, may all of it be released. May all of it come out with a splash.

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    Translation

    O' YE patient 'just as whatever matter accumulated in your intestines, in the arteries of both the side and in the urine vessel is taken out in the same manner the trouble creating urine dropped in your urine pipe be taken out. This is all that is required for you.

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    Translation

    Whatever hath gathered, in bowels, groins or in bladder, May that urine of thine come out completely, free from check.

    Footnote

    If a patient is suffering from lack of free flow of the urine, he should be cured by the use of Munja or Catheter.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    टिप्पणी−सायणभाष्य में (संश्रुतम्) के स्थान में (संश्रितम्) मानकर “समवस्थितम्” [ठहरा हुआ] अर्थ किया है ॥ ६−यत्। यथा। आन्त्रेषु। अमत्यनेन, अम गतौ-क्त्र,। अति बन्धने−करणे ष्ट्रन्। उपधादीर्घः। अन्त्रेषु, उदरनाडीविशेषेषु। गवीन्योः। द्रुदक्षिभ्यामिनन्। उ० २।५०। इति गुङ् ध्वनौ-इनन्। ङीष्। छान्दसो दीर्घः। पार्श्वद्वयस्थे नाड्यौ गवीन्यौ इत्युच्यते, तयोः−इति सायणः। वस्तौ। वसेस्तिः। उ० ४।१८०। इति वस आच्छादने−ति प्रत्ययः। वसति मूत्रादिकम्। मूत्राशये। अधि। उपरि, मध्ये। सम्-श्रुतम्। श्रु श्रवणे गतौ च-क्त। सम्यक् श्रुतम्। संगतम्। एव। एवम्, तथा। मूत्रम्। मूत्र प्रस्रावे-घञ्। यद्वा, सिविमुच्योष्टेरू च। उ० ४।१६३। इति मुच त्यागे−ष्ट्रन्, ऊत्वं च। मुच्यते त्यज्यते इति। प्रस्रावः, मेहनम्। सारहीनो मलद्रवः। मुच्यताम्। मुच−कर्मणि लोट्। त्यज्यताम्, निर्गच्छतु। सर्वकम्। अव्ययसर्वनाम्नामकच् प्राक् टेः। पा० ५।३।७१। इति अकच्। सर्वम्। अन्यद् व्याख्यातं मं० १ ॥

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    बंगाली (3)

    पदार्थ

    (য়ং য়ং) যেমন (আম্ব্রেষু) অন্ত্র সমূহের মধ্যে (গবীন্যোঃ) দুই পার্শ্বের নাড়ীর মধ্যে, (বস্তৌ অধি) শুত্রাশয়ের মধ্যে (সংশ্রুতম্) মুত্র একত্র হইয়া প্রবাহিত হয়, (এব) তেমন (তে) তোমার (মুত্রং) মূত্রতুল্য (বাল) শত্রু (বহিঃ) বাহিরে (মুচ্যতাং) মুক্ত হউক (ইতি সর্বকম্) ইহাই সব।
    ‘আন্ত্ৰেষু’ অমতি অনেন। অম গতৌ ত্রু। অতি বন্ধনে-করণে ক্ট্রন্। উদর নাড়ী বিশেয়েষু। বস্তৌ বসেস্তি। বস আচ্ছাদনে-তি। বসভি মূত্রাদিকম্। শূত্রাশয়ে। ‘সম্প্ৰতম্’ শ্ৰু শ্রবণে গতৌ চ ক্ত সম্যক্ শ্ৰুতম্ সংগতম্। ‘মূত্রম্’ মূত্র প্রশ্রাবে ঘঞ্।।

    भावार्थ

    যেমন অন্ত্রে সমূহের মধ্যে, উভয় পার্শ্বস্থ নাড়ীর মধ্যে এবং মূত্রাশয়ের মধ্যে মূত্র জমা হইয়া প্রবাহিত হয় তেমন তোমার এই মূত্রতুল্য শত্রুকে বাহিরে পরিত্যাগ কর।
    শরীরে আবদ্ধ অসাব মর মূত্র যেমন ক্লেশ প্রদান করে এবং তাহা বাহিরে পরিত্যাগ করিলে শান্তি পাওয়া যায় তেমন মনুষ্য শারীরিক, মানসিক ও আত্মিক শত্রুকে ত্যাগ করিলে শান্তি পায়।।

    मन्त्र (बांग्ला)

    য়দান্ত্রেষু গবীন্যোর্য়র্স্ বস্তাবধি সংশ্রুতম্ । এবা তে মূত্রং মুচ্যতাং বহির্বালতি সর্বকম্।।

    ऋषि | देवता | छन्द

    অর্থবা। পর্জন্যাদয়ো মন্ত্রোক্তাঃ। অনুষ্টুপ্

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    मन्त्र विषय

    (শান্তিকরণম্) শান্তির জন্য উপদেশ।

    भाषार्थ

    (যৎ) যেমন (যৎ) যে (আন্ত্রেষু) অন্ত্রে এবং (গবীন্যোঃ) দুই পার্শ্বস্থ নাড়িতে/গবিনীতে এবং (বস্তৌ অধি) মূত্রাশয়ের ভেতরে (সংশ্রুতম) একত্র থাকা [মূত্র মুক্ত/ত্যাগ হয়], (এব) তেমনই (তে মূত্রম্) তোমার মূত্র রূপ (বাল্) শত্রু (বহিঃ) বাইরে (মুচ্যতাম্) নিষ্কাশিত হোক (ইতি সর্বকম্) এটাই আকাঙ্ক্ষা ॥৬॥

    भावार्थ

    যেভাবে শরীরে থাকা সারহীন মল বিশেষ, মূত্র অর্থাৎ প্রস্রাব ক্লেশ/দুঃখ দেয় এবং তা বের করে দিলে শান্তি হয়, সেভাবেই মনুষ্য আত্মিক, শারীরিক ও সামাজিক শত্রুদের বের করে দিলে সুখ পায়॥৬॥ টিপ্পণী−সায়ণভাষ্যে (সংশ্রুতম্) এর স্থানে (সংশ্রিতম্) মেনে “সমবস্থিতম্” [স্থিত] অর্থ করা হয়েছে ॥

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    भाषार्थ

    (যৎ) যে মূত্র (আন্ত্রেষু) অন্ত্রে, এবং (গবীন্যোঃ) দুই গবিনীতে/মূত্রনালীতে, (যৎ) যা (বস্তী অধি) মূত্রের আবাস স্থানে/মূত্রাশয়ে (সংশ্রিতম্) একত্রিত হয়েছে, আশ্রয় পেয়েছে, (এব=এবম্) এইভাবে (তে) তোমার (সর্বকম্ মূত্রম্) সব মূত্রযুক্ত হোক/হয়ে যাক (বহিঃ মুচ্যতাম্) অন্ত্র আদি থেকে বাহির হয়ে যাক, (বালিতি) অথ পূর্ববৎ।

    टिप्पणी

    [“আন্ত্রেষু= উদরান্তর্গতেষু পুরীতত্সু (উদরের ভেতরে থাকা অন্ত্রে)। গবীন্যোঃ= অন্ত্র থেকে বহির্ভূত মূত্রকে মূত্রাশয়ে প্রাপ্তির সাধন, দুই পার্শ্বে স্থিত নাড়ি/নালী। বস্তি=ধনুরাকারমূত্রাশয়” (সায়ণাচার্যের অনুসারে)। এব=এবম্= এইভাবে; অর্থাৎ যেমন পূর্বোক্ত “মুচ্যতাম্” বলা হয়েছে তেমনভাবেই মুক্ত হোক/হয়ে যাক, মূত্র বাহির হয়ে যাক।]

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