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अथर्ववेद के काण्ड - 1 के सूक्त 34 के मन्त्र

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  • अथर्ववेद - काण्ड 1/ सूक्त 34/ मन्त्र 1
    ऋषि: - अथर्वा देवता - मधुवनस्पतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - मधु विद्या
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    इ॒यं वी॒रुन्मधु॑जाता॒ मधु॑ना त्वा खनामसि। मधो॒रधि॒ प्रजा॑तासि॒ सा नो॒ मधु॑मतस्कृधि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒यम् । वी॒रुत् । मधु॑ऽजाता । मधु॑ना । त्वा॒ । ख॒ना॒म॒सि॒ । मधो॑: । अधि॑ । प्रऽजा॑ता । अ॒सि॒ । सा । न॒: । मधु॑ऽमत: । कृ॒धि॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इयं वीरुन्मधुजाता मधुना त्वा खनामसि। मधोरधि प्रजातासि सा नो मधुमतस्कृधि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इयम् । वीरुत् । मधुऽजाता । मधुना । त्वा । खनामसि । मधो: । अधि । प्रऽजाता । असि । सा । न: । मधुऽमत: । कृधि ॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 1; सूक्त » 34; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (2)

    विषय

    विद्या की प्राप्ति का उपदेश।

    पदार्थ

    (इयम्) यह तू (वीरुत्) बढ़ती हुई [विद्या] (मधुजाता) ज्ञान से उत्पन्न हुई है, (मधुना) ज्ञान के साथ (त्वा) तुझको (खनामसि) हम खोदते हैं। (मधोः अधि) विद्या से (प्रजाता असि) तू जन्मी है (सा) सो तू (नः) हमको (मधुमतः) उत्तम विद्यावाले (कृधि) कर ॥१॥ दूसरा अर्थ−(इयम् वीरुत्) यह तू फैलती हुई बेल (मधुजाता) मधु (शहद) से उत्पन्न हुई है (मधुना) मधु के साथ (त्वा) तुझको (खनामसि) हम खोदते हैं। (मधोः अधि) वसन्त ऋतु से (प्रजाता असि) तू जन्मी है, (सा) सो तू (नः) हमको (मधुमतः) मधु रसवाले (कृधि) कर ॥१॥

    भावार्थ

    मधु शब्द [मन जानना−उ, न=ध] का अर्थ ज्ञान है। धात्वर्थ के अनुसार यह आशय है कि शिक्षा के ग्रहण, अभ्यास, अन्वेषण और परीक्षण से मनुष्य को उत्तम सुखदायक विद्या मिलती है ॥१॥ दूसरा भावार्थ−मधु शब्द उसी धातु [मन जानना] से सिद्ध होकर [शहद] के रस का वाचक है। इस अर्थ में विद्या को मधुलता अर्थात् शहद की बेल वा प्रेमलता माना है। (मधु) शहद वसन्त ऋतु में अनेक पुष्पों के रस से मधुमक्षिकाओं द्वारा मिलता है, इसी प्रकार (मधुना) प्रेमरस के साथ (खोदने) अर्थात् अन्वेषण और परीक्षण से विद्वान् लोग अनेक विद्वानों से विद्यारूप मधु को पाकर (मधु) आनन्दरस का भोग करते हैं ॥१॥

    टिप्पणी

    १−इयम्। पुरोवर्तिनी त्वम्। वीरुत्। १।३२।१। विरोहणशीला विस्तृता लतारूपा विद्या। मधु-जाता। १।४।१। मन ज्ञाने-उ, धश्चान्तादेशः। जनी-क्त। मधुनो ज्ञानात् क्षौद्राद् वा यथा उत्पन्ना। मधुना। १।४।१। ज्ञानेन, क्षौद्ररसेन यथा वा। त्वा। त्वाम् वीरुधम्। खनामसि। खनु अवदारणे−लट्, मस इत्वम्। खनामः, अवदारयामः, अन्वेषणेन प्राप्नुमः। मधोः। पुंलिङ्गे। वसन्तर्तुसकाशात्। स्त्रियाम्। विद्यायाः सकाशात्। अधि। पञ्चम्यर्थानुवादी। प्र-जाता। प्रादुर्भूता। असि। वर्त्तसे। सा। सा त्वम्। नः। अस्मान्। मधु-मतः। तदस्यास्त्यस्मिन्निति मतुप्। पा० ५।२।९४। इति प्रशंसायां मतुप्। प्रशस्तज्ञानयुक्तान्, क्षौद्ररसोपेतान् वा यथा। कृधि। कुरु ॥

    Vishay

    Padartha

    Bhavartha

    English (1)

    Subject

    Life’s Honey

    Meaning

    This herb is born of the honey sweets of earth. O sweet herb, we take you up with the honey sweet of love and gratitude. You are grown and matured by the honeyed efficacy of life and nature’s evolution. Such as you are, pray sweeten our life with the honey sweet of joy and graces of culture. (Honey, Madhu, has been interpreted as metaphor of the sweetness of existence in life, knowledge, divine awareness, indeed the soul itself. All verses of this hymn can be interpreted in this perspective. Reference may also be made to Brihadaranyakopanishad 2, 5, in which it is said that this earth and all her creatures, the waters, heat and light, wind and all other kinds of energy, the sun, the quarters of space, the moon, thunder and lightning, clouds and the sky, all space, Dharma, truth, humanity the soul and the cosmic soul, all is the honeyed expression and manifestation of divinity. And this knowledge, madhu vidya, was given by the sage Dadhyang of the Atharva tradition.)

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