अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 10/ मन्त्र 13
सं हि सोमे॒नाग॑त॒ समु॒ सर्वे॑ण प॒द्वता॑। व॒शा स॑मु॒द्रमध्य॑ष्ठाद्गन्ध॒र्वैः क॒लिभिः॑ स॒ह ॥
स्वर सहित पद पाठसम् । हि । सोमे॑न । अग॑त । सम् । ऊं॒ इति॑ । सर्वे॑ण । प॒त्ऽवता॑ । व॒शा । स॒मु॒द्रम् । अधि॑ । अ॒स्था॒त् । ग॒न्ध॒र्वै: । क॒लिऽभि॑: । स॒ह ॥१०.१३॥
स्वर रहित मन्त्र
सं हि सोमेनागत समु सर्वेण पद्वता। वशा समुद्रमध्यष्ठाद्गन्धर्वैः कलिभिः सह ॥
स्वर रहित पद पाठसम् । हि । सोमेन । अगत । सम् । ऊं इति । सर्वेण । पत्ऽवता । वशा । समुद्रम् । अधि । अस्थात् । गन्धर्वै: । कलिऽभि: । सह ॥१०.१३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
ईश्वर शक्ति की महिमा का उपदेश।
पदार्थ
(वशा) वशा [कामनायोग्य परमेश्वरशक्ति] (हि) ही (सोमेन) ऐश्वर्य के साथ (उ) और (सर्वेण) प्रत्येक (पद्वता) पाँववाले [चलते-फिरते पुरुषार्थी] के साथ (सम् सम् अगत्) निरन्तर संयुक्त हुई है, और (गन्धर्वैः) पृथिवी धारण करनेवाले और (कलिभिः सह) गणना करनेवाले [गुणों] के साथ (समुद्रम्) अन्तरिक्ष की (अधि अस्थात्) अधिष्ठात्री हुई है ॥१३॥
भावार्थ
प्रत्येक पुरुषार्थी जीव अपने पुरुषार्थ के अनुसार ईश्वरशक्ति से फल पाता है ॥१३॥
टिप्पणी
१३−(हि) निश्चयेन (सोमेन) ऐश्वर्येण (सम् सम् अगत्) अभ्यासे भूयांसमर्थं मन्यन्ते-निरु० १०।४२। समो गम्यृच्छिप्रच्छि०। पा० १।३।२९। आत्मनेपदम्। मन्त्रे घसह्वरणश०। पा० २।४।८०। च्लेर्लुक्। अनुदात्तोपदेशवनतितनोत्यादीनाम०। पा० ६।४।३७। अनुनासिकलोपः। निरन्तरं संगतवती (उ) च (सर्वेण) प्रत्येकेन (पद्वता) पदयुक्तेन। गतिशीलेन (वशा) म० २। (समुद्रम्) अन्तरिक्षम् (अध्यष्ठात्) अधिकृतवती (गन्धर्वैः) अ० २।१।२। पृथिवीधारकैर्गुणैः (कलिभिः) सर्वधातुभ्य इन्। उ० ४।११८। कल गतौ संख्याने च। गणकैर्गुणैः (सह) ॥
विषय
सं सोमेन
पदार्थ
१. (हि) = निश्चय से (वशा) = यह कमनीया वेदधेनु सोमेन सोम के साथ (सम् आगत) = संगत होती है। जो भी व्यक्ति पृथिवी से उत्पन्न सौम्य भोजनों को करता हुआ शरीर में सोम [वीर्य] का रक्षण करता है, यह वेदवाणी उसे ही प्राप्त होती है। (उ) = और (सर्वेण पद्धता) = सय गतिशील [पद गती] व्यक्तियों से इसका (सम्) = मेल होता है। यह (वशा) = कमनीया वेदधेनु (समुद्रं अध्यष्ठात्) = [स मुद्] प्रसादयुक्त मनवाले व्यक्ति में अधिष्ठित होती है। (गन्धवैः कलिभिः सह) = ज्ञान की वाणियों को धारण करनेवाले [कला अस्य अस्तीति कली] कला-सम्पन्न पुरुषों के साथ यह वेदधेनु निवास करती है।
भावार्थ
हम वेदज्ञान को प्राप्त करने के लिए सौम्य भोजन करनेवाले बनें, 'गतिशील प्रसन्न मनवाले, ज्ञानरुचि व कलावित्' हों।
भाषार्थ
(वशा) जगत् को वश में करने वाली कान्तिमती पारमेश्वरी माता जब (कलिभिः) संगीत कला के विज्ञ (गन्धर्वैः) गान कुशलों के (सह) साथ, (समुद्रम् अधि प्रस्थात्) हृदयसमुद्र में अधिष्ठित होती है, तब वह (हि) निश्चय से (सोमेन) भक्तिरस से (सम् अगत) संगत हो जाती है (उ) तथा (सर्वेण) सब (पद्वता) गेय-वैदिक पदों वाले गायकों के साथ (सम्) सङ्गत हो जाती है।
टिप्पणी
[हृदय में पारमेश्वरी माता जब अधिष्ठित हो जाती है, और हृदय में जब भक्तिगान करने वाले भक्त "निष्ठ" हो जाते हैं, तब वशामाता भक्तिरस के साथ भी संगत हो जाती है, और वैदिक पदों के गाने वालों के साथ भी संगत हो जाती है, अर्थात् भक्तों और उपास्य देवता का परस्पर संगम हो जाता है। "पद्वता" देखो "ऋचः सामानि बिभ्रती" (मन्त्र १४)]।
इंग्लिश (4)
Subject
Vasha Gau
Meaning
Coming together with Soma and with all that move on foot, Vasha, the divine mother, presides unto and over the sea, along with keepers of the earth and the divine voice of Veda, with all earthly problems and ambitions.
Translation
United is she with Soma (the cure-juice), united also with all the footed creatures; the Vašā stands over the ocean together with thē sustainers of earth (gandharvas) full of strife (kalibhih).
Translation
This earth is accompanied with water, this is accompanied with footed animals and this rests with sea with cloud and winds,
Translation
The beautiful power of God, in its majesty is linked with each enterprising person, and with its qualities of sustaining the Earth and measuring its extent controls the atmosphere.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१३−(हि) निश्चयेन (सोमेन) ऐश्वर्येण (सम् सम् अगत्) अभ्यासे भूयांसमर्थं मन्यन्ते-निरु० १०।४२। समो गम्यृच्छिप्रच्छि०। पा० १।३।२९। आत्मनेपदम्। मन्त्रे घसह्वरणश०। पा० २।४।८०। च्लेर्लुक्। अनुदात्तोपदेशवनतितनोत्यादीनाम०। पा० ६।४।३७। अनुनासिकलोपः। निरन्तरं संगतवती (उ) च (सर्वेण) प्रत्येकेन (पद्वता) पदयुक्तेन। गतिशीलेन (वशा) म० २। (समुद्रम्) अन्तरिक्षम् (अध्यष्ठात्) अधिकृतवती (गन्धर्वैः) अ० २।१।२। पृथिवीधारकैर्गुणैः (कलिभिः) सर्वधातुभ्य इन्। उ० ४।११८। कल गतौ संख्याने च। गणकैर्गुणैः (सह) ॥
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