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अथर्ववेद के काण्ड - 10 के सूक्त 10 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 10/ मन्त्र 16
    ऋषिः - कश्यपः देवता - वशा छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - वशागौ सूक्त
    59

    अ॒भीवृ॑ता॒ हिर॑ण्येन॒ यद॑तिष्ठ ऋतावरि। अश्वः॑ समु॒द्रो भू॒त्वाध्य॑स्कन्दद्वशे त्वा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒भिऽवृ॑ता । हिर॑ण्येन । यत् । अति॑ष्ठ: । ऋ॒त॒ऽव॒रि॒ । अश्व॑: । स॒मु॒द्र: । भू॒त्वा । अधि॑ । अ॒स्क॒न्द॒त् । व॒शे॒ । त्वा॒ ॥१०.१६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभीवृता हिरण्येन यदतिष्ठ ऋतावरि। अश्वः समुद्रो भूत्वाध्यस्कन्दद्वशे त्वा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अभिऽवृता । हिरण्येन । यत् । अतिष्ठ: । ऋतऽवरि । अश्व: । समुद्र: । भूत्वा । अधि । अस्कन्दत् । वशे । त्वा ॥१०.१६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 10; मन्त्र » 16
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    हिन्दी (3)

    विषय

    ईश्वर शक्ति की महिमा का उपदेश।

    पदार्थ

    (ऋतावरि) हे सत्यशील ! (यत्) जब (हिरण्येन) तेज वा पराक्रम से (अभिवृता) घिरी हुई तू (अतिष्ठः) खड़ी हुई, (वशे) हे वशा ! [कामनायोग्य परमेश्वरशक्ति] (समुद्रः) [प्राणियों के अच्छे प्रकार चलने का आधार] परमेश्वर (अश्वः) व्यापक (भूत्वा) होकर (त्वा) तुझको (अधि) अधिकारपूर्वक (अस्कन्दत्) प्राप्त हुआ ॥१६॥

    भावार्थ

    परमेश्वर अपनी शक्ति को अपने वश में रखकर यथासमय उसका प्रकाश करता है ॥१६॥

    टिप्पणी

    १६−(अभिवृता) वेष्टिता (हिरण्येन) तेजसा वीर्येण वा (यत्) यदा (अतिष्ठः) स्थितवती (ऋतावरि) म० ९। सत्यशीले (अश्वः) अशूप्रुषिलटि०। उ० १।१५१। अशू व्याप्तौ-क्वन्। व्यापकः (समुद्रः) समभिद्रवन्त्येनं भूतानि। समुद्र आदित्यः समुद्र आत्मा-निरु० १४।१६। सर्वभूतगमनाधारः परमात्मा (भूत्वा) (अधि) अधिकारपूर्वकम् (अस्कन्दत्) स्कन्दिर् गतिशोषणयोः। प्राप्तवान् (वशे) (त्वा) ॥

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    विषय

    अश्वः समुद्रः भूत्वा

    पदार्थ

    १.हे (ऋतावरि) = ऋत [सत्य] ज्ञानोंवाली (वशे) = कमनीय वेदवाणि! (यत्) = चूँकि तू (हिरण्येन) = हितरमणीय ज्ञानज्योति से (अभीवृता)= समन्तात् आच्छादित हुई-हुई (अतिष्ठः) = स्थित हुई है, अत: (समुद्रः) = सदा प्रसन्न मनवाला यह व्यक्ति (अश्वः भूत्वा) = [अश् व्यासौ] कर्मशील होकर (त्वा अधि अस्कन्दत) = [स्कन्द् गतौ] तुझे आधिक्येन प्राप्त करता है।

    भावार्थ

    वेदवाणी सब सत्यज्ञानों का प्रकाश करती है। प्रसन्न मन से कर्मों में व्यस्त रहनेवाला व्यक्ति इसे प्राप्त करता है।

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    भाषार्थ

    (ऋतावरि वशे) हे उग्रनियमों वाली वशा मातः! (मन्त्र ९), (यद्) जो (हिरण्येन) हिरण्यय-हृदय द्वारा (अभीवृता) घिरी हुई तू (अतिष्ठ) हृदय-समुद्र में स्थित हुई है, तो (समुद्रः) हृदय-समुद्र (अश्वः भूत्वा) अश्व हो कर (त्वा) तेरे प्रति (अधि अस्कन्दत) उछला है, उमड़ा है।

    टिप्पणी

    [हिरण्येन=देखो मन्त्रः ३१-३३। अश्वारोही योद्धा का अश्व, युद्धभूमि में, जैसे शत्रु की ओर उछलता हुआ जाता है, वैसे श्रद्धावान् उपासक का हृदय-समुद्र, उपास्यदेवता की ओर, उछलता और उमड़ता है। हिरण्येन अभीवृता= अथवा निज हिरण्य सदृश ज्योति द्वारा घिरी हुई वशा माता]।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Vasha Gau

    Meaning

    Wrapped in golden halo, when you arose, O Vasha, bearing universal waters and nourishment within the strict bounds of cosmic law, then the universal divinity, having risen to the state of will and passion, inspired you with life.

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    Translation

    O fosterer of righteousness, decked with gold, when you stand there, the ocean turning into a horse, covers you, O Vašā.

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    Translation

    As this earth having water stands held firm surrounded by the light of luminous bodies so the fire becoming the and mounts over it.

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    Translation

    O righteous, beautiful power of God, when thou covered around with luster standest in thy majesty, God, the support of mankind, being All-pervading authoritatively manifests thy strength.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १६−(अभिवृता) वेष्टिता (हिरण्येन) तेजसा वीर्येण वा (यत्) यदा (अतिष्ठः) स्थितवती (ऋतावरि) म० ९। सत्यशीले (अश्वः) अशूप्रुषिलटि०। उ० १।१५१। अशू व्याप्तौ-क्वन्। व्यापकः (समुद्रः) समभिद्रवन्त्येनं भूतानि। समुद्र आदित्यः समुद्र आत्मा-निरु० १४।१६। सर्वभूतगमनाधारः परमात्मा (भूत्वा) (अधि) अधिकारपूर्वकम् (अस्कन्दत्) स्कन्दिर् गतिशोषणयोः। प्राप्तवान् (वशे) (त्वा) ॥

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