अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 10/ मन्त्र 16
अ॒भीवृ॑ता॒ हिर॑ण्येन॒ यद॑तिष्ठ ऋतावरि। अश्वः॑ समु॒द्रो भू॒त्वाध्य॑स्कन्दद्वशे त्वा ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒भिऽवृ॑ता । हिर॑ण्येन । यत् । अति॑ष्ठ: । ऋ॒त॒ऽव॒रि॒ । अश्व॑: । स॒मु॒द्र: । भू॒त्वा । अधि॑ । अ॒स्क॒न्द॒त् । व॒शे॒ । त्वा॒ ॥१०.१६॥
स्वर रहित मन्त्र
अभीवृता हिरण्येन यदतिष्ठ ऋतावरि। अश्वः समुद्रो भूत्वाध्यस्कन्दद्वशे त्वा ॥
स्वर रहित पद पाठअभिऽवृता । हिरण्येन । यत् । अतिष्ठ: । ऋतऽवरि । अश्व: । समुद्र: । भूत्वा । अधि । अस्कन्दत् । वशे । त्वा ॥१०.१६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
ईश्वर शक्ति की महिमा का उपदेश।
पदार्थ
(ऋतावरि) हे सत्यशील ! (यत्) जब (हिरण्येन) तेज वा पराक्रम से (अभिवृता) घिरी हुई तू (अतिष्ठः) खड़ी हुई, (वशे) हे वशा ! [कामनायोग्य परमेश्वरशक्ति] (समुद्रः) [प्राणियों के अच्छे प्रकार चलने का आधार] परमेश्वर (अश्वः) व्यापक (भूत्वा) होकर (त्वा) तुझको (अधि) अधिकारपूर्वक (अस्कन्दत्) प्राप्त हुआ ॥१६॥
भावार्थ
परमेश्वर अपनी शक्ति को अपने वश में रखकर यथासमय उसका प्रकाश करता है ॥१६॥
टिप्पणी
१६−(अभिवृता) वेष्टिता (हिरण्येन) तेजसा वीर्येण वा (यत्) यदा (अतिष्ठः) स्थितवती (ऋतावरि) म० ९। सत्यशीले (अश्वः) अशूप्रुषिलटि०। उ० १।१५१। अशू व्याप्तौ-क्वन्। व्यापकः (समुद्रः) समभिद्रवन्त्येनं भूतानि। समुद्र आदित्यः समुद्र आत्मा-निरु० १४।१६। सर्वभूतगमनाधारः परमात्मा (भूत्वा) (अधि) अधिकारपूर्वकम् (अस्कन्दत्) स्कन्दिर् गतिशोषणयोः। प्राप्तवान् (वशे) (त्वा) ॥
विषय
अश्वः समुद्रः भूत्वा
पदार्थ
१.हे (ऋतावरि) = ऋत [सत्य] ज्ञानोंवाली (वशे) = कमनीय वेदवाणि! (यत्) = चूँकि तू (हिरण्येन) = हितरमणीय ज्ञानज्योति से (अभीवृता)= समन्तात् आच्छादित हुई-हुई (अतिष्ठः) = स्थित हुई है, अत: (समुद्रः) = सदा प्रसन्न मनवाला यह व्यक्ति (अश्वः भूत्वा) = [अश् व्यासौ] कर्मशील होकर (त्वा अधि अस्कन्दत) = [स्कन्द् गतौ] तुझे आधिक्येन प्राप्त करता है।
भावार्थ
वेदवाणी सब सत्यज्ञानों का प्रकाश करती है। प्रसन्न मन से कर्मों में व्यस्त रहनेवाला व्यक्ति इसे प्राप्त करता है।
भाषार्थ
(ऋतावरि वशे) हे उग्रनियमों वाली वशा मातः! (मन्त्र ९), (यद्) जो (हिरण्येन) हिरण्यय-हृदय द्वारा (अभीवृता) घिरी हुई तू (अतिष्ठ) हृदय-समुद्र में स्थित हुई है, तो (समुद्रः) हृदय-समुद्र (अश्वः भूत्वा) अश्व हो कर (त्वा) तेरे प्रति (अधि अस्कन्दत) उछला है, उमड़ा है।
टिप्पणी
[हिरण्येन=देखो मन्त्रः ३१-३३। अश्वारोही योद्धा का अश्व, युद्धभूमि में, जैसे शत्रु की ओर उछलता हुआ जाता है, वैसे श्रद्धावान् उपासक का हृदय-समुद्र, उपास्यदेवता की ओर, उछलता और उमड़ता है। हिरण्येन अभीवृता= अथवा निज हिरण्य सदृश ज्योति द्वारा घिरी हुई वशा माता]।
इंग्लिश (4)
Subject
Vasha Gau
Meaning
Wrapped in golden halo, when you arose, O Vasha, bearing universal waters and nourishment within the strict bounds of cosmic law, then the universal divinity, having risen to the state of will and passion, inspired you with life.
Translation
O fosterer of righteousness, decked with gold, when you stand there, the ocean turning into a horse, covers you, O Vašā.
Translation
As this earth having water stands held firm surrounded by the light of luminous bodies so the fire becoming the and mounts over it.
Translation
O righteous, beautiful power of God, when thou covered around with luster standest in thy majesty, God, the support of mankind, being All-pervading authoritatively manifests thy strength.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१६−(अभिवृता) वेष्टिता (हिरण्येन) तेजसा वीर्येण वा (यत्) यदा (अतिष्ठः) स्थितवती (ऋतावरि) म० ९। सत्यशीले (अश्वः) अशूप्रुषिलटि०। उ० १।१५१। अशू व्याप्तौ-क्वन्। व्यापकः (समुद्रः) समभिद्रवन्त्येनं भूतानि। समुद्र आदित्यः समुद्र आत्मा-निरु० १४।१६। सर्वभूतगमनाधारः परमात्मा (भूत्वा) (अधि) अधिकारपूर्वकम् (अस्कन्दत्) स्कन्दिर् गतिशोषणयोः। प्राप्तवान् (वशे) (त्वा) ॥
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