अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 3
ऋषिः - अथर्वा
देवता - रुद्रः
छन्दः - चतुष्पदा स्वराडुष्णिक्
सूक्तम् - रुद्र सूक्त
116
क्रन्दा॑य ते प्रा॒णाय॒ याश्च॑ ते भव॒ रोप॑यः। नम॑स्ते रुद्र कृण्मः सहस्रा॒क्षाया॑मर्त्य ॥
स्वर सहित पद पाठक्रन्दा॑य । ते॒ । प्रा॒णय॑ । या: । च॒ । ते॒ । भ॒व॒ । रोप॑य: । नम॑: । ते॒ । रु॒द्र॒ । कृ॒ण्म॒: । स॒ह॒स्र॒ऽअ॒क्षाय॑ । अ॒म॒र्त्य॒ ॥२.३॥
स्वर रहित मन्त्र
क्रन्दाय ते प्राणाय याश्च ते भव रोपयः। नमस्ते रुद्र कृण्मः सहस्राक्षायामर्त्य ॥
स्वर रहित पद पाठक्रन्दाय । ते । प्राणय । या: । च । ते । भव । रोपय: । नम: । ते । रुद्र । कृण्म: । सहस्रऽअक्षाय । अमर्त्य ॥२.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
ब्रह्मज्ञान से उन्नति का उपदेश।
पदार्थ
(भव) हे भव ! [सुख उत्पन्न करनेवाले] (रुद्र) हे रुद्र ! [दुःखनाशक] (अमर्त्य) हे अमर ! [जगदीश्वर] (सहस्राक्षाय) सहस्रों कर्मों में दृष्टिवाले (ते) तुझको (क्रन्दाय) [अपना] रोदन मिटाने के लिये (ते) तुझे (प्राणाय) [अपना] जीवन बढ़ाने के लिये (च) और (ते) तुझे (याः) जो (रोपयः) [हमारी] पीड़ाएँ हैं [उन्हें हटाने के लिये] (नमः कृण्मः) हम नमस्कार करते हैं ॥३॥
भावार्थ
मनुष्य परमेश्वर की भक्ति से सब ओर दृष्टि करके और भीतरी क्लेश मिटाकर अपना जीवन सुफल करे ॥३॥
टिप्पणी
३−(क्रन्दाय) क्रदि आह्वाने रोदने च-घञ्। क्रियार्थोपपदस्य च कर्मणि स्थानिनः। पा० ३।२।१४। क्रन्दं रोदनं नाशयितुम् (ते) तुभ्यम् (प्राणाय) प्राणं जीवनं वर्धयितुम् (याः) (च) (ते) तुभ्यम् (भव) भू-अप्। हे सुखोत्पादक (रोपयः) सर्वधातुभ्य इन्। उ० ४।११८। रुप विमोहने-इन्। विमोहिकाः पीडाः (नमः) सत्कारः (ते) तुभ्यम् (रुद्र) अ० २।२७।६। रु वधे-क्विप्, तुक्+रु वधे-ड। हे दुःखनाशक। यद्वा, रु गतौ-क्विप्+रा दाने-क। हे ज्ञानदातः (कृण्मः) कुर्मः (सहस्राक्षाय) अ० ३।११।३। सहस्रेषु बहुषु कर्मसु अक्षीणि दर्शनशक्तयो यस्य तस्मै (अमर्त्य) हे अमर ॥
विषय
रुद्र के लिए प्रणाम
पदार्थ
१.हे प्रभो! (ते) = आपके (क्रन्दाय) = क्रन्दन व शब्द के लिए-सृष्टि के प्रारम्भ में दिये जानेवाले वेदज्ञान के लिए [हरिरेति कनिक्रदत्], (प्राणाय) = आपसे दी जानेवाली इस प्राणवायु के लिए (नमः) हम नमस्कार करते हैं। (च) = और हे (भव) = सृष्टि को जन्म देनेवाले प्रभो! (या) = जो (ते) = आपकी (रोपयः) = विमोहनशक्तियाँ हैं, प्रलयकाल में मूढ़ अवस्था में प्राप्त करानेवाली शक्तियाँ हैं, उन सबके लिए हम नमस्कार करते हैं। २.हे (रुद्र) = अन्तकाल में सबको रुलानेवाले [रोदयति], सब [रुत् द्र] दु:खों के दूर करनेवाले [द्रावक] प्रभो! (अमर्त्य) = अमरणधर्मा (सहस्त्राक्षाय) = सहस्रों दर्शन शक्तियोंवाले, सर्वजगत् साक्षी (ते) = आपके लिए (नम: कृण्म:) = हम नमस्कार करते हैं।
भावार्थ
प्रभु सष्टि के प्रारम्भ में वेदज्ञान देते हैं, प्राणशक्ति प्राप्त कराते हैं, निद्रा व प्रलय में मूढ अवस्था में प्राप्त कराते हैं। सब दुःखों के द्रावक, अमरणधर्मा व सर्वसाक्षी हैं। उन आपके लिए हम नमस्कार करते हैं।
भाषार्थ
(अमर्त्य भव) हे अमर सृष्ट्युत्पादक ! (ते प्राणाय) तुझ प्राणस्वरूप के लिये, (याः च) और जो (ते) तेरी (रोपयः) विमोहक शक्तियां हैं उनके लिये; (अमर्त्य रुद्र) तथा हे अमर रुद्र! (क्रन्दाय) पापियों को रुलाने वाले, (सहस्राक्षाय) हजारों पापियों का क्षय करने वाले (ते) तेरे प्रति (नमः) नमस्कार (कृण्मः) हम करते हैं।
टिप्पणी
[क्रन्द्राय= क्रदि आह्वाने रोदने च। रोपयः = रुप विमोहने; "रोपयः रोपयित्र्यो विमोहयित्र्यः" (सायण)। रुद्र= रोदयतीति (सायण) रोदयतेर्णि लुक्च" (उणा० २।२२)। "यद्वा रुद् दुःखहेतुर्वा, तस्य द्रावकः देवः परमेश्वरः" (सायण)। रोपयः= परमेश्वर की विमोहक शक्तियां नाना हैं। प्राणदातृत्व, जीवनदातृत्व, अन्नदातृत्व, पितृरूपत्व, मातृरूपत्व, इन्द्रियदातृत्व आदि,-परमेश्वर की शक्तियां तथा विभूतियां नाना हैं, जोकि हमें विमुग्ध करती है। इन सबके लिये हम परमेश्वर को नमस्कार करते हैं। सहस्राक्षाय = सहस्र +आ +क्ष, क्षिक्षये; अर्थात् हजारों पापियों का क्षय करने वाले (ते) तेरे लिये (नमः) नमस्कार (कृण्मः) हम करते हैं।]
विषय
रुद्र ईश्वर के भव और शर्व रूपों का वर्णन।
भावार्थ
हे (भव) सर्वोत्पादक भव ! ईश्वर ! (क्रन्दाय) सबको आह्लाहित करने और सब को रुलाने वाले और (प्राणाय) प्राण के समान सबके प्राणस्वरूप, सब को जीवन देनेहारे (ते) तुझको और (याः च) जो (ते) तेरी (रोपयः) मोहनकारिणी मिथ्याज्ञानमय बन्धकारिणी शक्तियां हैं उनको (नमः) नमस्कार है। हे रुद्र ! सबको रुलाने हारे और दुःखों के विनाशक ! हे अमर्त्य ! अविनाशिन् ! अमरेश्वर ! (ते) तुझ (सहस्राक्षाय) सहस्रों आंखों वाले, सर्वद्रष्टा को (नमः कृण्मः) हम नमस्कार करते हैं।
टिप्पणी
‘सहस्राक्षायामर्त्यः’ इति सायणाभिमतः पाठः।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। रुद्रो देवता। १ परातिजागता विराड् जगती, २ अनुष्टुब्गर्भा पञ्चपदा जगती चतुष्पात्स्वराडुष्णिक्, ४, ५, ७ अनुष्टुभः, ६ आर्षी गायत्री, ८ महाबृहती, ९ आर्षी, १० पुरः कृतिस्त्रिपदा विराट्, ११ पञ्चपदा विराड् जगतीगर्भा शक्करी, १२ भुरिक्, १३, १५, १६ अनुष्टुभौ, १४, १७–१९, २६, २७ तिस्त्रो विराड् गायत्र्यः, २० भुरिग्गायत्री, २१ अनुष्टुप्, २२ विषमपादलक्ष्मा त्रिपदा महाबृहती, २९, २४ जगत्यौ, २५ पञ्चपदा अतिशक्वरी, ३० चतुष्पादुष्णिक् ३१ त्र्यवसाना विपरीतपादलक्ष्मा षट्पदाजगती, ३, १६, २३, २८ इति त्रिष्टुभः। एकत्रिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Rudra
Meaning
O Bhava, lord creator of forms of existence, O Rudra, lord of life and death, salutations to you for the inevitable call, for the pranic gift of life, for all your evolutionary powers. O lord immortal of infinite unbounded eyes, we offer you homage of worship and obedience with submission of the will.
Translation
Unto thy noise (? kranda), thy breath, and what pangs (? ropi) are thine; O Bhava homage we pay thee that art thousand-eyed (sahasraksa), O Rudra, immortal one.
Translation
We express our great appreciation for the vital air producting voice caused by this immortal dreadful fire which may be scientifically used in thousand ways. All so we accept the effective powers of this fire.
Translation
O Bhava, the Creator, O Rudra, the Chastiser, O Immortal God, we pay homage to Thee, the thousand-eyed Seer, for allaying our lamentations, for prolonging our life and for alleviating our miseries!
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−(क्रन्दाय) क्रदि आह्वाने रोदने च-घञ्। क्रियार्थोपपदस्य च कर्मणि स्थानिनः। पा० ३।२।१४। क्रन्दं रोदनं नाशयितुम् (ते) तुभ्यम् (प्राणाय) प्राणं जीवनं वर्धयितुम् (याः) (च) (ते) तुभ्यम् (भव) भू-अप्। हे सुखोत्पादक (रोपयः) सर्वधातुभ्य इन्। उ० ४।११८। रुप विमोहने-इन्। विमोहिकाः पीडाः (नमः) सत्कारः (ते) तुभ्यम् (रुद्र) अ० २।२७।६। रु वधे-क्विप्, तुक्+रु वधे-ड। हे दुःखनाशक। यद्वा, रु गतौ-क्विप्+रा दाने-क। हे ज्ञानदातः (कृण्मः) कुर्मः (सहस्राक्षाय) अ० ३।११।३। सहस्रेषु बहुषु कर्मसु अक्षीणि दर्शनशक्तयो यस्य तस्मै (अमर्त्य) हे अमर ॥
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