Loading...
अथर्ववेद के काण्ड - 11 के सूक्त 7 के मन्त्र
मन्त्र चुनें
  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 7/ मन्त्र 23
    ऋषिः - अथर्वा देवता - उच्छिष्टः, अध्यात्मम् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - उच्छिष्ट ब्रह्म सूक्त
    115

    यच्च॑ प्रा॒णति॑ प्रा॒णेन॒ यच्च॒ पश्य॑ति॒ चक्षु॑षा। उच्छि॑ष्टाज्जज्ञिरे॒ सर्वे॑ दि॒वि दे॒वा दि॑वि॒श्रितः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । च॒ । प्रा॒णति॑ । प्रा॒णेन॑ । यत् । च॒ । पश्य॑ति । चक्षु॑षा । उत्ऽशि॑ष्टात् । ज॒ज्ञि॒रे॒ । सर्वे॑ । दि॒वि । दे॒वा: । दि॒वि॒ऽश्रित॑: ॥९.२३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यच्च प्राणति प्राणेन यच्च पश्यति चक्षुषा। उच्छिष्टाज्जज्ञिरे सर्वे दिवि देवा दिविश्रितः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । च । प्राणति । प्राणेन । यत् । च । पश्यति । चक्षुषा । उत्ऽशिष्टात् । जज्ञिरे । सर्वे । दिवि । देवा: । दिविऽश्रित: ॥९.२३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 7; मन्त्र » 23
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    सब जगत् के कारण परमात्मा का उपदेश।

    पदार्थ

    (च) और (यत्) जो कुछ (प्राणेन) प्राण [श्वास-प्रश्वास] के साथ (प्राणति) जीता है, (च) और (यत्) जो कुछ (चक्षुषा) नेत्र से (पश्यति) देखता है, [वह सब और] (दिवि) आकाश में [वर्तमान] (दिविश्रितः) सूर्य [के आकर्षण] में ठहरे हुए (सर्वे) सब (देवाः) गतिमान् लोक (उच्छिष्टात्) शेष [म० १। परमात्मा] से (जज्ञिरे) उत्पन्न हुए हैं ॥२३॥

    भावार्थ

    परमेश्वर ने सब प्राणवाले जगत् और सब लोकों को सूर्य के आकर्षण में रखकर मनुष्य के सुख के लिये उत्पन्न किया है ॥२३॥

    टिप्पणी

    २३−(यत्) यत् किञ्चित् जगत् (च) (प्राणति) प्रकर्षेण जीवति (प्राणेन) श्वासप्रश्वासव्यापारेण (यत् च) (पश्यति) अवलोकयति (चक्षुषा) नेत्रेण (उच्छिष्टात्) म० १। शेषात्परमेश्वरात् (जज्ञिरे) उत्पन्ना बभूवुः (सर्वे) (दिवि) आकाशे वर्तमानाः (देवाः) दिवु गतौ-पचाद्यच्। गतिमन्तो लोकाः (दिविश्रितः) दिवि सूर्ये सूर्याकर्षणे स्थिताः ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    पदार्थ

    शब्दार्थ =  ( यत् च ) = जो प्राणी  ( प्राणेन ) = प्राणवायु से  ( प्राणति ) = श्वासों का ऊपर नीचे आना जाना रूप व्यापार को करता है अथवा घ्राण इन्द्रिय से गन्ध को सूंघता है  ( यत् च पश्यति चक्षुषा ) = और जो प्राणी नेत्र से नील पीत आदि रूप को देखता है   ( सर्वे ) = वे सब प्राणी  ( उत् शिष्टात् ) = प्रलय काल में जगत् के नाश हो जाने पर भी शेष रहा जो ब्रह्म उसी से सृष्टिकाल में  ( जज्ञिरे ) = उत्पन्न हुए तथा  ( दिवि देवा दिविश्रितः ) = द्युलोक में स्थित द्युलोक में रहनेवाले सब देव उसी से उत्पन्न हुए हैं । 

    भावार्थ

    भावार्थ = हे सर्वदा अचल जगदीश्वर ! जो प्राणी, प्राणों से श्वास- निश्वास लेते और घ्राण से गन्ध को सूंघते तथा नेत्र से नील पीत आदि रूप को देखते हैं और जो द्युलोकादि में स्थिर हो कर वर्त्तमान देव हैं, वे सब आपसे ही उत्पन्न हुए हैं; प्रलयकाल में सब कार्य जगत् के नाश हो जाने पर भी आप वर्त्तमान रहते और उत्पत्तिकाल में आप ही सारे संसार को उत्पन्न करते हैं ।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    सर्वाधार प्रभु

    पदार्थ

    १. (यत् च) = जो भी प्राणिसमूह (प्राणेन प्राणति) = प्राणवायु से प्राणन-व्यापार करता है अथवा घ्राणेन्द्रिय से गन्धों को सँघता है, (यत् च) = और जो प्राणिसमूह (चक्षुषा पश्यति) = आँख से रूप को देखता है (सर्वे) = वे सब प्राणी (उच्छिष्टात् जजिरे) = उच्छिष्यमाण प्रभु से प्रादुर्भूत हुए हैं तथा (दिवि) = द्युलोक में स्थित (दिविश्रित:) = प्रकाशमय सूर्य के आकर्षण में श्रित (देवा:) = [दिव् गतौ] गतिमय लोक उस उच्छिष्ट प्रभु में ही आश्रित हैं। २. (ऋचः) = पादबद्ध मन्त्र, (सामानि) = गीतिविशिष्टमन्त्र, (छन्दांसि) = गायत्री आदि सातों छन्द, (यजुषा सह) = यज्ञ प्रतिपादक मन्त्रों के साथ (पुराणम्) = सृष्टि-निर्माण व प्रलयादि के प्रतिपादक मन्त्र ये सब उच्छिष्यमाण प्रभु में आश्रित हैं। २. (प्राणापानौ) = प्राण और अपान, (चक्षुः श्रोत्रम्) = आँख व कान, (अक्षिति: च) = क्षय का अभाव (या च क्षिति:) = और जो क्षय है, वह सब उच्छिष्ट प्रभु में आश्रित है। इसी प्रकार (आनन्दाः) = विषयोप भोगजनित सुख, (मोदा:) = विषयदर्शनजन्य हर्ष, (प्रमुदा:) = प्रकृष्ट विषयलाभजन्य हर्ष, (ये च) = और जो (अभीमोदमुद:) = [अभिमोदेन मोदयन्ति] संनिहित सुख हेतु पदार्थ हैं-ये सब उस प्रभु में आश्रित हैं। ३. (देवा:) = आठ वसु, ग्यारह रुद्र, बारह आदित्य तथा इन्द्र और प्रजापति नामक तेतीस देव, (पितर:) = पालनात्मक कर्मों में प्रवृत्त रक्षक वर्ग, (मनुष्या:) = प्रभुमननपूर्वक धनार्जन करनेवाले मनुष्य, (गन्धर्व-अप्सरसः च ये) = जो वेदवाणी का धारण [गा धारयन्ति] और यज्ञादि कर्मों को करनेवाले [अप्सु सरन्ति] लोग हैं-ये सब उस प्रभु के आधार से ही रह रहे हैं।

    भावार्थ

    प्राणिमात्र व पदार्थमात्र के आधार वे प्रभु ही है, सब ज्ञानों व आनन्दों का आधार भी वही हैं।

    सर्वाधार प्रभु का स्मरण करता हुआ यह साधक अपने कर्तव्यमार्ग पर निरन्तर आगे बढ़ता है। कर्त्तव्य कर्म करने को ही अपना मार्ग समझनेवाला यह 'कौरुपथि' ही अगले सूक्त का ऋषि है। इस सूक्त का देवता 'अध्यात्मम् है, इसमें शरीर की रचना आदि का काव्यमय वर्णन है -

    इस भाष्य को एडिट करें

    भाषार्थ

    (यत् च) जो प्राणिवर्ग (प्राणेन) प्राणवायु द्वारा (प्राणति) प्राण धारण करता है, (यत् च) और जो (चक्षुषा) आंख द्वारा (पश्यति) देखता है, तथा (सर्वे देवाः) सब देव (दिवि) जो कि द्युलोक में हैं, (दिविश्रितः) और द्यूलोक जिन का आश्रय है, – (उच्छिष्टात्) वे प्रलय में भी अवशिष्ट परमेश्वर से (जज्ञिरे) पैदा हुए हैं।

    टिप्पणी

    [दिविश्रितः= दिवि+श्रि+क्विप्+तुक्]।

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (4)

    Subject

    Ucchhishta, the Ultimate Absolute Brahma

    Meaning

    All that breathes with prana, all that sees with the eye, the Devas which abide in heaven sustained therein, all these are born of the Ultimate Brahma.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    Both what breathes with breath and what sees with sight: from the remnant were born all the gods in heaven, heaven resorters.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    All that breath through vital breath, all that see with eye, all the luminous forces having their stations in the wonderous space of sky are created by the Uchchhista.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    All things that breathe the breath of life, all creatures that have eyes to see, all the luminous objects in heaven, and all emancipated souls spring from God.

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २३−(यत्) यत् किञ्चित् जगत् (च) (प्राणति) प्रकर्षेण जीवति (प्राणेन) श्वासप्रश्वासव्यापारेण (यत् च) (पश्यति) अवलोकयति (चक्षुषा) नेत्रेण (उच्छिष्टात्) म० १। शेषात्परमेश्वरात् (जज्ञिरे) उत्पन्ना बभूवुः (सर्वे) (दिवि) आकाशे वर्तमानाः (देवाः) दिवु गतौ-पचाद्यच्। गतिमन्तो लोकाः (दिविश्रितः) दिवि सूर्ये सूर्याकर्षणे स्थिताः ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    बंगाली (1)

    পদার্থ

    য়চ্চ প্রাণতি প্রাণেন য়চ্চ পশ্যতি চক্ষুষা।

    উচ্ছিষ্টাজ্জজ্ঞিরে সর্বে দিবি দেবা দিবিশ্রিতঃ ।।৩৩।।

    (অথর্ব ১১।৭।২৩)

    পদার্থঃ (য়ৎ চ) যেসব প্রাণী (প্রাণেন) প্রাণবায়ু দ্বারা (প্রাণতি) শ্বসনকার্য সম্পাদন করে অথবা ঘ্রাণ ইন্দ্রিয় দ্বারা গন্ধ নেয়, (য়ৎ চ পশ্যতি চক্ষুষা) আর যেসব প্রাণী চক্ষুর মাধ্যমে বিভিন্ন রূপ দেখে, (সর্বে) সে সব প্রাণী (উৎ শিষ্টাৎ) প্রলয়কালে অর্থাৎ জগতের ধ্বংস হয়ে যায়। কিন্তু তারপরও শেষে থেকে যান যে ব্রহ্ম, তাঁর থেকেই প্রাণিজগৎ সৃষ্টিকালে (জজ্ঞিরে) উৎপন্ন হয়েছিলো তথা (দিবি দেবা দিবি শ্রিতঃ) দ্যুলোকে থাকা সকল দেব তাঁর থেকেই উৎপন্ন হয়েছে ৷

     

    ভাবার্থ

    ভাবার্থঃ হে জগদীশ্বর! যেসব প্রাণী প্রাণ বায়ু দ্বারা শ্বাস প্রশ্বাস নেয় আর যারা ঘ্রাণেন্দ্রিয় দ্বারা গন্ধ গ্রহণ করে ও চোখ দিয়ে রূপ দেখে এবং দ্যুলোক প্রভৃতিতে অবস্থিত থাকা যে সকল দেব আছে, তারা সব তোমার থেকেই উৎপন্ন হয়েছে। প্রলয়কালে সব কার্য জগতের নাশ হয়ে যাওয়ার পরেও তুমি বর্তমান থাক আর উৎপত্তিকালে তুমিই সারা সংসারকে উৎপন্ন করো।।৩৩।।

     

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top