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अथर्ववेद के काण्ड - 13 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 13
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - रोहितः, आदित्यः, अध्यात्मम् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
    43

    उ॒भावन्तौ॒ सम॑र्षसि व॒त्सः सं॑मा॒तरा॑विव। न॒न्वे॒तदि॒तः पु॒रा ब्रह्म॑ दे॒वा अ॒मी वि॑दुः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒भौ । अन्तौ॑ । सम् । अ॒र्ष॒सि॒ । व॒त्स: । सं॒मा॒तरौ॑ऽइव। न॒नु । ए॒तत्। इ॒त:। पु॒रा । ब्रह्म॑ । दे॒वा: । अ॒मी इति॑ । वि॒दु॒: ॥2.१३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उभावन्तौ समर्षसि वत्सः संमातराविव। नन्वेतदितः पुरा ब्रह्म देवा अमी विदुः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उभौ । अन्तौ । सम् । अर्षसि । वत्स: । संमातरौऽइव। ननु । एतत्। इत:। पुरा । ब्रह्म । देवा: । अमी इति । विदु: ॥2.१३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 2; मन्त्र » 13
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    परमात्मा और जीवात्मा के विषय का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे सूर्य !] तू (उभौ) दोनों (अन्तौ) अन्तों [पूर्व-पश्चिम अथवा आगे-पीछे दोनों ओर] को (सम्) ठीक-ठीक, (अर्षसि) पहुँचता है, (इव) जैसे (वत्सः) बालक (संमातरौ) दो सामान्य [मिली हुई] माताओं को। (ननु) निश्चय करके (एतत्) इस (ब्रह्म) ईश्वरज्ञान को (इतः पुरा) इस [समय] के पहिले से (अमी) यह (देवाः) विद्वान् लोग (विदुः) जानते हैं ॥१३॥

    भावार्थ

    परमेश्वर ने सूर्य को ऐसी उचित रीति से बनाया है कि वह निरन्तर घूमकर सृष्टि का उपकार करे, पूर्वज विद्वान् लोग ईश्वर के ऐसे नियमों को जानकर सुधार करते रहे हैं ॥१३॥

    टिप्पणी

    १३−(उभौ) द्वौ (अन्तौ) पूर्वापरौ पूर्वपश्चिमदेशौ वा (सम्) सम्यक् (अर्षसि) प्राप्नोषि (वत्सः) बालकः (संमातरौ) समानजनन्यौ (इव) यथा (ननु) निश्चयेन (एतत्) प्रत्यक्षम् (इतः) अस्मात् कालात् (पुरा) पूर्वम् (ब्रह्म) ईश्वरज्ञानम् (देवाः) विद्वांसः (अमी) वर्त्तमानाः (विदुः) जानन्ति ॥

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    विषय

    उभौ अन्तौ

    पदार्थ

    १. हे सूर्य! तू (इव) = जिस प्रकार (वत्सः मातरौ सं) [अर्षति] = एक सन्तान माता-पिता को सम्यक् प्रास होता है उसीप्रकार तू भी (उभौ अन्तौ सं अर्षसि) = द्युलोक व पृथिवीलोक दोनों अन्तों को प्राप्त होता है। तेरी किरणें घुलोक व पृथिवीलोक दोनों में फैली है। २. (ननु) = निश्चय से (अमी देवा:) = वे देववृत्ति के पुरुष (इत:) = तेरे इस ज्ञान के द्वारा (पुरा) =[पृ पालनपूरणयोः] पालन व पूरण के साथ (एतत् ब्रह्म विदुः) = इस ब्रह्म को जानते हैं। देवलोग सूर्य के ज्ञान से, सूर्य का ठीक प्रकार प्रयोग करते हुए अपने स्वाथ्य व आयुष्य का रक्षण करते हैं तथा सूर्य के अन्दर प्रभु की महिमा का दर्शन भी करते हैं कि किस प्रकार सूर्य धुलोक व पृथिवीलोक दोनों को ही अपनी किरणों से व्यास करता है। किस प्रकार पूर्व व पश्चिम में प्राप्त होता है। किस प्रकार कभी उत्तरायण में तो कभी दक्षिणायन में।

     

    भावार्थ

    सूर्य एक ओर धुलोक को तो दूसरी ओर पृथिवी को अपनी किरणों से व्यास करता है। पूर्व में उदित होता है, पश्चिम में अस्त होता है। कभी उत्तर की ओर झुका प्रतीत होता है, कभी दक्षिण की ओर । ये सब व्यवस्थाएँ हमारे पालन के लिए आवश्यक है। वस्तुतः विचित्र ही है महिमा उस महान् प्रभु की!

     

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    भाषार्थ

    हे सूर्य! (उभौ अन्तौ) दोनों अन्तों अर्थात् पूर्व और पश्चिम दिशा के अन्त भागों को (समर्षसि) तू सम्यक्तया प्राप्त होता है (इव वत्सः) जैसे कि बच्चा (संमातरौ) अपने एक ही माता-पिता को सम्यक्तया प्राप्त होता है। (ननु) निश्चय से (इतः पुरा१) इस मन्त्र के पूर्व के मन्त्र में (एतत्) इस अत्रितत्त्व को (अमि देवाः) वे वैदिक विद्वान् (ब्रह्म१ विदुः) ब्रह्म जानते हैं। अत्रितत्त्व (मन्त्र ४)। अत्रिः = अत्त्त्रिः। मातरौ= एकशेप में पितरौ की तरह मातरौ प्रयोग हुआ है।

    टिप्पणी

    [१. पुरा शब्द द्वारा कालकृत तथा स्थानकृत उभयविध पूर्वता का ग्रहण होता है। पुरा=In former times; In the first Place (आप्टे) अथवा सूर्य में ब्रह्म अधिष्ठित है, अतः अधिष्ठान और अधिष्ठित में अभेद मान कर पुराकल्प से सूर्य को विद्वान् ब्रह्म जानते रहे हैं- यह अर्थ समझना चाहिये। यया "योऽसावादित्ये पुरुषः सोऽसावहम्। ओ३म् खं ब्रह्म" (यजु० ४०।१७)। अथवा "द्वे वाव ब्रह्मणे रूपे" की दृष्टि से सूर्य को ब्रह्म कहा है। देखो मन्त्र (१३।१।४१) की व्याख्या। अथवा उपनिषदों में अब्रह्म पदार्थों के लिये भी गौणरूम में ब्रह्मशब्द प्रयुक्त हुआ है। अतः वर्तमान मन्त्र में भी सूर्य को गौणरूप में ब्रह्म कहा है। तथा बृहदा० उपनिषद् में (अ० २। ब्राह्मण १) में गौणरूप में भी ब्रह्म शब्द प्रयुक्त हुआ है। तथा प्राणो वै ब्रह्म, चक्षु र्वै ब्रह्म, श्रोत्रं वै ब्रह्म, मनो वै ब्रह्म- इत्यादि (बृहदा० उप० अ० ४। ब्रा० २) में भी प्राण आदि के लिये ब्रह्म शब्द प्रयुक्त हुआ है। अधिष्ठितः= अधितिष्ठतीति।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Rohita, the Sun

    Meaning

    O sun, you reach both the extremities of your orbit, just as a child going to its father and mother both, (you maintain the will of Attri and the law of Nature). And this eternal mystery and law of nature and Divinity, those sages have known who have been long long even before now. (The law is eternal, the cycle of existence is eternal, and the knowledge of the law and cycle of existence too is eternal.)

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    Translation

    You go to both the ends, just as a calf goes to two joint mothers. Indeed previously the enlightened ones have known it to be the supreme god.

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    Translation

    As a calf to both of its parent this sun joins both the distant bounds (the point of rising and point of setting). Surely these men of learning know this mystery (of sun's operation) before its happening.

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    Translation

    Just as a child fondly goes to his father and mother, so dost thou, O emancipate soul, realise the true nature of God and soul. Surely, these learned persons know Him as God Immemorial!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १३−(उभौ) द्वौ (अन्तौ) पूर्वापरौ पूर्वपश्चिमदेशौ वा (सम्) सम्यक् (अर्षसि) प्राप्नोषि (वत्सः) बालकः (संमातरौ) समानजनन्यौ (इव) यथा (ननु) निश्चयेन (एतत्) प्रत्यक्षम् (इतः) अस्मात् कालात् (पुरा) पूर्वम् (ब्रह्म) ईश्वरज्ञानम् (देवाः) विद्वांसः (अमी) वर्त्तमानाः (विदुः) जानन्ति ॥

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