अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 19
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - रोहितः, आदित्यः, अध्यात्मम्
छन्दः - चतुरवसानाष्टपदा भुरिगाकृतिः
सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
118
अ॑ष्ट॒धा यु॒क्तो वह॑ति॒ वह्नि॑रु॒ग्रः पि॒ता दे॒वानां॑ जनि॒ता म॑ती॒नाम्। ऋ॒तस्य॒ तन्तुं॒ मन॑सा मि॒मानः॒ सर्वा॒ दिशः॑ पवते मात॒रिश्वा॑। तस्य॑ दे॒वस्य॑ क्रु॒द्धस्यै॒तदागो॒ य ए॒वं वि॒द्वांसं॑ ब्राह्म॒णं जि॒नाति॑। उद्वे॑पय रोहित॒ प्र क्षि॑णीहि ब्रह्म॒ज्यस्य॒ प्रति॑ मुञ्च॒ पाशा॑न् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ष्ट॒ऽअधा । यु॒क्त: । व॒ह॒ति॒ । वह्नि॑: । उ॒ग्र: । पि॒ता । दे॒वाना॑म् । ज॒नि॒ता । म॒ती॒नाम् । ऋ॒तस्य॑ । तन्तु॑म् । मन॑सा । मि॒मान॑: । सर्वा॑: । दिश॑: । प॒व॒ते॒ । मा॒त॒रिश्वा॑ । तस्य॑ । दे॒वस्य॑ ॥ क्रु॒ध्दस्य॑ । ए॒तत् । आग॑: । य: । ए॒वम् । वि॒द्वांस॑म् । ब्रा॒ह्म॒णम् । जि॒नाति॑ । उत् । वे॒प॒य॒ । रो॒हि॒त॒ । प्र । क्षि॒णी॒हि॒ । ब्र॒ह्म॒ऽज्यस्य॑ । प्रति॑ । मु॒ञ्च॒ । पाशा॑न् ॥३.१९॥
स्वर रहित मन्त्र
अष्टधा युक्तो वहति वह्निरुग्रः पिता देवानां जनिता मतीनाम्। ऋतस्य तन्तुं मनसा मिमानः सर्वा दिशः पवते मातरिश्वा। तस्य देवस्य क्रुद्धस्यैतदागो य एवं विद्वांसं ब्राह्मणं जिनाति। उद्वेपय रोहित प्र क्षिणीहि ब्रह्मज्यस्य प्रति मुञ्च पाशान् ॥
स्वर रहित पद पाठअष्टऽअधा । युक्त: । वहति । वह्नि: । उग्र: । पिता । देवानाम् । जनिता । मतीनाम् । ऋतस्य । तन्तुम् । मनसा । मिमान: । सर्वा: । दिश: । पवते । मातरिश्वा । तस्य । देवस्य ॥ क्रुध्दस्य । एतत् । आग: । य: । एवम् । विद्वांसम् । ब्राह्मणम् । जिनाति । उत् । वेपय । रोहित । प्र । क्षिणीहि । ब्रह्मऽज्यस्य । प्रति । मुञ्च । पाशान् ॥३.१९॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
परमात्मा और जीवात्मा का उपदेश।
पदार्थ
(अष्टधा) आठ प्रकार से [यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि−योग के आठ अङ्गों द्वारा] (युक्तः) ध्यान किया गया, (उग्रः) प्रचण्ड (वह्निः) ले चलनेवाला, (देवानाम्) गतिमान् [पृथिवी आदि] लोकों का (पिता) पिता [रक्षक] और (मतीनाम्) बुद्धिमानों का (जनिता) उत्पन्न करनेवाला [परमेश्वर, संसार को] (वहति) ले चलता है। (ऋतस्य) सत्यज्ञान के (तन्तुम्) ताँते [श्रेणी] को (मनसा) अपने विज्ञान से (मिमानः) नापता हुआ, (मातरिश्वा) आकाश में गतिवाला [परमेश्वर] (सर्वाः) सब (दिशः) दिशाओं में (पवते) चलता है [व्यापता है]। (तस्य) उस (क्रुद्धस्य) क्रुद्ध (देवस्य) प्रकाशमान [ईश्वर] के लिये..... [म० १] ॥१९॥
भावार्थ
जो परमेश्वर सर्वस्वामी, सर्वान्तर्यामी, सर्वनियन्ता है, सब मनुष्य योग द्वारा उसकी उपासना करके आनन्द पावें ॥१९॥
टिप्पणी
१९−(अष्टधा) अष्टप्रकारेण। यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहरधारणाध्यानसमाधयोऽष्टावङ्गानि−योगदर्शने २।२९। (युक्तः) ध्यातः (वहति) गमयति लोकान् (वह्निः) वाहकः (उग्रः) प्रचण्डः (पिता) रक्षकः (देवानाम्) गतिमतां पृथिव्यादिलोकानाम् (जनिता) उत्पादकः (मतीनाम्) मेधाविनाम्-निघ० ३।१५। (ऋतस्य) सत्यज्ञानस्य (तन्तुम्) श्रेणिम्। विस्तारम् (मनसा) विज्ञानेन (मिमानः) मानं कुर्वाणः (सर्वाः) (दिशः) (पवते) गच्छति-निघ० २।१४। व्याप्नोति (मातरिश्वा) मातरि आकाशे श्वयति गच्छति व्याप्नोति यः परमेश्वरः ॥
विषय
पिता देवानां, जनिता मतीनाम्
पदार्थ
१. (अष्टधा) = 'यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि' इन आठ योगांगों द्वारा युक्त जीव द्वारा अपने साथ जोड़ा गया (वह्निः) = संसार शकट का-वहन करनेवाला (उग्रः) = तेजस्वी प्रभु ही (देवानां पिता) = सूर्यादि सब देवों का रक्षक है। वह प्रभु ही (मतीनाम जनिता) = बुद्धियों का प्रादुर्भाव करनेवाला है। २. (ऋतस्य) = सृष्टियज्ञ के (तन्तुम्) = सूत्र को मनसा (मिमान:) = मन:शक्ति, संकल्प से ही निर्माण करता हुआ मातरिश्वा मातृरूप प्रकृति में गति देनेवाला [शिव गतौ] वह प्रभु (सर्वाः दिशः पवते) = सब दिशाओं में व्याप्त हैं। इसप्रकार प्रभु के ज्ञाता ब्रह्मज्ञानी का हनन प्रभु के प्रति महान् अपराध है। शेष पूर्ववत्।
भावार्थ
यमादि के पालन से समाधि द्वारा जीव से प्राप्त किये जानेवाले प्रभु संसार-शकट के धारक है, तेजस्वी हैं, सूर्यादि के रक्षक हैं, बुद्धियों के जनक हैं। सृष्टियज्ञ के तन्तु को संकल्प से ही निर्मित करनेवाले हैं। प्रकृति को गति देनेवाले हैं, वे प्रभु सब दिशाओं में व्याप्त हैं। इस ब्रह्म के ज्ञाता का सदा आदर ही करना चाहिए।
भाषार्थ
(अष्टधा) आठ योगाङ्गो द्वारा आठ प्रकार से (युक्तः) योग युक्त किया गया (उग्रः वह्निः) उग्र वाहक परमेश्वर, (वहति) सिद्ध योगी के शरीर रथ का वहन करने लगता है। वह (देवानाम्) द्योतमान सूर्यादि का (पिता) पिता है, और (मतीनाम्) वैदिक ज्ञानों का (जनिता) उत्पादक है। (ऋतस्य तन्तुम्) सत्यज्ञान तथा संसार के सत्य नियमों के कारणीभूत परमेश्वर को, (मनसा) मानो ज्ञानपूर्वक (मिमानः) मापता हुआ (मातरिश्वा) अन्तरिक्षस्थ वायु, (सर्वाः दिशाः) सब दिशाओं में (पवते) गति करता या बहता है।
टिप्पणी
[अष्टधा = आठ प्रकार से। योगाङ्ग आठ हैं, यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि (योग २।२९)। इन आठ योगाङ्गों में से प्रत्येक अङ्ग परमेश्वर को योग१ युक्त करने में सहायक है। इस लिये परमेश्वर को "अष्टधायुक्तः" कहा है। परमेश्वर उग्र है। आसानी से योगयुक्त नहीं किया जा सकता, जैसे कि उग्र अश्व या उग्र बैल आसानी से जोता नहीं जा सकता। परमेश्वर की उग्रता पर, आठ योगाङ्गों द्वारा काबू पाया जा सकता है। वशीभूत परमेश्वर सिद्ध-पुरुष के शरीर-रथ का वहन करने लगता है। उस अवस्था में सिद्ध-पुरुष के जीवन में परमेश्वर प्रेरक हो जाता है। परमेश्वर सूर्यादि जड़-जगत् का तथा वैदिक ज्ञानों का पिता तथा जनयिता है। तन्तुम् = तन्तु कारण है पट के, वस्त्र के। परमेश्वर तन्तुवत् संसार पट का कारण है, सांसारिक नियमों तथा वैदिक ज्ञानों का कारण है। मिमानः= वायु मानो व्यापक परमेश्वर के परिमाण को नापने के लिये सब२ दिशाओं में गति कर रही है। जैसे कि कहा है कि "क्व प्रेप्सन् पवते मातरिश्वा" (अथर्व० १०।७।४), अर्थात् कहां जाना चाहती हुई वायु गति कर रही है। उत्तर में कहा है कि "स्कम्भरूप परमेश्वर की प्राप्ति के लिए" वायु गति कर रही है।] [१. परमेश्वर को योगसाधनों द्वारा शरीर-रथ में जोतना। २. मानो परमेश्वर की लम्बाई, चौड़ाई, ऊंचाई नापने के लिये चारों तथा ऊर्ध्व-दिशा में वायु गति करता है।]
विषय
रोहित, आत्मा ज्ञानवान् राजा और परमात्मा का वर्णन।
भावार्थ
(देवानां पिता) देवों, समस्त दिव्यगुण धारण करने वाले महदादि का (पिता) पालक और (मतीनां) मननशील समस्त चेतन प्राणियों या स्तुतियों, वेदवाणियों, स्तम्भनकारी शक्तियों का (जनिता) उत्पादक, उनको प्रादुर्भाव करने वाला (उग्रः) अति भयंकर, महान् बलशाली (वह्निः) सबको वहन करनेहारा परमात्मा (अष्टधा युक्तः) आठ रूपों से विविध प्रकार ये संयुक्त होकर समस्त संसार को (वहति) धारण कर रहा है। (ऋतस्य) सर्गमय यज्ञ के (तन्तुं) सूत्र को अपने (मनसा) मनः-शक्ति, संकल्प से ही (मिमानः) निर्माण करता हुआ (मातरिश्वा) मातृ = सबकी धारक प्रकृति में भी व्यापक परमेश्वर (सर्वाः दिशः पवते समस्त दिशाओं में व्याप्त है। अष्टधा युक्तः—भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च। अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा॥ गी०॥ अ० ७। ५॥ ‘जनिता मतीनाम्’—अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मेपराम्। जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्॥ गी० ७। ५॥ एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। अध्यात्मम्। रोहित आदित्य देवता। १ चतुरवसानाष्टपदा आकृतिः, २-४ त्र्यवसाना षट्पदा [ २, ३ अष्टिः, २ भुरिक् ४ अति शाक्वरगर्भा धृतिः ], ५-७ चतुरवसाना सप्तपदा [ ५, ६ शाक्वरातिशाक्वरगर्भा प्रकृतिः ७ अनुष्टुप् गर्भाति धृतिः ], ८ त्र्यवसाना षट्पदा अत्यष्ठिः, ६-१९ चतुरवसाना [ ९-१२, १५, १७ सप्तपदा भुरिग् अतिधृतिः १५ निचृत्, १७ कृति:, १३, १४, १६, १९ अष्टपदा, १३, १४ विकृतिः, १६, १८, १९ आकृतिः, १९ भुरिक् ], २०, २२ त्र्यवसाना अष्टपदा अत्यष्टिः, २१, २३-२५ चतुरवसाना अष्टपदा [ २४ सप्तपदाकृतिः, २१ आकृतिः, २३, २५ विकृतिः ]। षड्विंशत्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
To the Sun, against Evil Doer
Meaning
Seven rays of light are yoked to the one wheel chariot of time drawn by one horse of light of seven names. The wheel, unaging and automotive, has three subwheels with three naves and three rims, three phases of time and seasons, and in this time-space orbit of the sun abide all regions of the world of existence. To that Lord of time and the sun, that person is an offensive sinner who violates a Brahmana, the man who knows Brahma in truth. O Rohita, Ruler on high, shake up that sinner, punish him down to naught, extend the snares of law, justice and retribution to the Brahmana-violator. Joined with, pervading in, the eightfold form of the world of Prakrti diversified over Akasha, Vayu, Agni, Apah, Prthivi, mind, intelligence and Ahankara (Gita, 7,4-5) and, through universal mind, extending the Rtam thread of the unity of truth and law through all these eight (Gita, 7, 7), the mighty awful burden bearer of the universe, father creator of the divine forms of nature, generator of the intelligence and piety of the wise in humanity, the divine Spirit of the universe rolls through and rules over all the quarters of space across the universe. To that One Lord of time and space and humanity, that person is an offensive sinner who violates a Brahmana, the man who knows Brahma in truth. O Rohita, Ruler on high, shake up that sinner, punish him down to naught, extend the arms of law, justice and retribution to the Brahmana-violator.
Translation
The fierce chariot-horse, the father of the enlightened ones and the begetter of wisdoms, bears along, harnessed eightfold. Arranging the thread of the eternal law by the mind, the dweller of the midspace goes about purifying all the quarters -- to that wrathful (enraged) Lord it is offending that some one scathes such a learned intellectual person. O : ascending one, make him tremble; destroy him; put your snares upon the harasser of intellectual persons.
Translation
He who….who,joined with eight causes(seven Prakritis and the Jiva) supports this world ;who is the supporting power and very powerful ;who is the father of all the JIvas(Souls) and the producer of knowledge;who pervading whole space and measuring the thread of eternal law pervades all the quarters.
Translation
God, worshiped through-eight limbs of Yoga, the Leader, Potent, the Father of the forces of Nature, the Creator of talented persons, upholds the universe. God, measuring in spirit the spread of knowledge, purifies all regions. This God is wroth offended by the sinner who vexes the Brahman who hath gained this knowledge. Terrify him, O King, destroy him, entangle in thy snares the Brahman’s tyrant!
Footnote
God decides how much of his infinite knowledge is to be revealed for the good and guidance of mankind. God is spoken of as Matrishwa as it pervades the atmosphere. (मातरिश्वा) मातरि आकाशे श्वयति गच्छति व्याप्नोति यः परमेश्वरः or who pervades in Matter, the sustainer of all objects.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१९−(अष्टधा) अष्टप्रकारेण। यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहरधारणाध्यानसमाधयोऽष्टावङ्गानि−योगदर्शने २।२९। (युक्तः) ध्यातः (वहति) गमयति लोकान् (वह्निः) वाहकः (उग्रः) प्रचण्डः (पिता) रक्षकः (देवानाम्) गतिमतां पृथिव्यादिलोकानाम् (जनिता) उत्पादकः (मतीनाम्) मेधाविनाम्-निघ० ३।१५। (ऋतस्य) सत्यज्ञानस्य (तन्तुम्) श्रेणिम्। विस्तारम् (मनसा) विज्ञानेन (मिमानः) मानं कुर्वाणः (सर्वाः) (दिशः) (पवते) गच्छति-निघ० २।१४। व्याप्नोति (मातरिश्वा) मातरि आकाशे श्वयति गच्छति व्याप्नोति यः परमेश्वरः ॥
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