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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 14
    ऋषिः - आत्मा देवता - त्रिष्टुप् छन्दः - सवित्री, सूर्या सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
    410

    आ॑त्म॒न्वत्यु॒र्वरा॒ नारी॒यमाग॒न्तस्यां॑ नरो वपत॒ बीज॑मस्याम्। सा वः॑प्र॒जां ज॑नयद्व॒क्षणा॑भ्यो॒ बिभ्र॑ती दु॒ग्धमृ॑ष॒भस्य॒ रेतः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ॒त्म॒न्ऽवती॑ । उ॒र्वरा॑ । नारी॑ । इ॒यम् । आ । अ॒ग॒न् । तस्या॑म् । न॒र॒: । व॒प॒त॒ । बीज॑म् । अ॒स्या॒म् । सा । व॒: । प्र॒ऽजाम् । ज॒न॒य॒त् । व॒क्षणा॑भ्य: । बिभ्र॑ती । दु॒ग्धम् । ऋ॒ष॒भस्य॑ । रेत॑: ॥२.१४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आत्मन्वत्युर्वरा नारीयमागन्तस्यां नरो वपत बीजमस्याम्। सा वःप्रजां जनयद्वक्षणाभ्यो बिभ्रती दुग्धमृषभस्य रेतः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आत्मन्ऽवती । उर्वरा । नारी । इयम् । आ । अगन् । तस्याम् । नर: । वपत । बीजम् । अस्याम् । सा । व: । प्रऽजाम् । जनयत् । वक्षणाभ्य: । बिभ्रती । दुग्धम् । ऋषभस्य । रेत: ॥२.१४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 2; मन्त्र » 14
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    गृहआश्रम का उपदेश।

    पदार्थ

    (आत्मन्वती) आत्मा [भीतरी बल] वाली (उर्वरा) उपजाऊ धरती [के समान], (इयम्) यह (नारी) नारी [नर कीपत्नी] (आ अगन्) आयी है, (नरः) हे नर ! [वर] (तस्याम्) उस (अस्याम्) ऐसी [गुणवतीवधू] में (बीजम्) बीज (वपत) बो। (सा) वह [नारी] (ऋषभस्य) वीर्यवान् पुरुष के (दुग्धम्) दूध समान (रेतः) वीर्य को (बिभ्रती) धारण करती हुई (वक्षणाभ्यः) अपनेपेट की नाड़ियों से (वः) तेरे लिये (प्रजाम्) सन्तान (जनयत्) उत्पन्न करे ॥१४॥

    भावार्थ

    जैसे बलवती उपजाऊ भूमिमें विधिपूर्वक जोतकर उत्तम बीज बोने से उत्तम अन्न उत्पन्न होता है, वैसे हीपूर्ण ब्रह्मचारिणी बलवती स्त्री के साथ पूर्ण ब्रह्मचारी वीर्यवान् ऋतुगामीपुरुष का यथाविधि संयोग होने से उत्तम सन्तान उत्पन्न होते हैं॥१४॥

    टिप्पणी

    १४−(आत्मन्वती) आभ्यन्तरशक्तियुक्ता (उर्वरा) शस्योत्पादनयोग्या भूमिर्यथा, (नारी) नरस्य पत्नी (इयम्) वधूः (आ अगन्) आगमत् (तस्याम्) नार्याम् (नरः) सुपांसुपो भवन्ति। वा० पा० ७।१।३९। एकवचनस्य बहुवचनम्। हे नः। नायक (वपत) तिङां तिङोभवन्ति। वा० पा० ७।१।३९। एकवचनस्य बहुवचनम्। वप। प्रक्षिप (बीजम्) (अस्याम्)ईदृश्यां गुणवत्याम् (सा) (वः) पूर्ववद्बहुवचनम्। तुभ्यम् (प्रजाम्) सन्तानम् (जनयत्) जनयेत् (वक्षणाभ्यः) वक्षःस्थलेभ्यः। उदरनाडीभ्यः (बिभ्रती) धारयन्ती (दुग्धम्) क्षीरतुल्यम् (ऋषभस्य) वीर्यवतः पुरुषस्य (रेतः) वीर्यम् ॥

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    विषय

    'आत्मन्वती उर्वरा' नारी

    पदार्थ

    १. (आत्मन्यती) = प्रशस्त अन्त:करणवाली, आत्मिक बल से युक्त (उर्वरा) = उत्तम सन्तान को जन्म देने में समर्थ (इयं नारी आगन्) = यह नारी गृहपत्नी के रूप में इस घर में आई है। हे (नरः) = उन्नति-पथ पर चलनेवाले मनुष्यो! विषयों में आसक्त न होनेवाले पुरुषो [न रमते]। (तस्याम्) = ऐसी आत्मन्बती उर्वरा' नारी में (बीजं वपत) = सन्तानोत्पादनक्षम वीर्य का वपन करो। २. (सा) = वह नारी (ऋषभस्य) = शक्तिशाली पुरुष के दुग्ध रेत:-दोहन किये गये रेतस को, वीर्य को (बिभती) = धारण करती हुई (व:) = तुम्हारे लिए (वक्षणाभ्यः प्रजा जनयत्) = अपनी कोखों [वक्षणा sides, flank] से उत्तम सन्तान को जन्म दें। मनु का यह वाक्य मन्त्रांश को सुव्यक्त कर रहा है, 'क्षेत्रभूता स्मृता नारी बीजभूतः स्मृतः पुमान् । क्षेत्रबीजसमायोगात् सम्भव: सर्वदेहिनाम्॥' [१.३३]। नारी क्षेत्र है, पुमान् बीज है। क्षेत्रबीज के योग से ही सब देहियों का जन्म होता

    भावार्थ

    स्त्री प्रशस्त मनवाली व सन्तानोत्पादन में समर्थ हो। वह शक्तिशाली पुरुष के वीर्य को धारण करती हुई उत्तम सन्तानों को जन्म देनेवाली हो।

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    भाषार्थ

    (आत्मन्वती) आत्मिकशक्तिसम्पन्ना (उर्वरा) तथा उत्पादनशक्तिसम्पन्न (इयम्) यह (नारी) नारी (आ अगन्) आई है, (तस्याम्) उस अर्थात् आत्मिकशक्तिसम्पन्ना, (अस्याम्) तथा इस अर्थात् उत्पादनशक्तिसम्पन्ना नारी में, (नरः) हे पौरुषशक्ति वालो ! (बीजम्) बीज (वपत) बोओ, वीर्याधान करो। (सा) वह नारी (ऋषभस्य) श्रेष्ठपति के (रेतः) वीर्य को (बिभ्रती) धारण तथा पोषित करती हुई (वः) तुम्हारे लिये (वक्षणाभ्यः) गर्भस्थ नस-नाड़ियों से (प्रजाम्) सन्तान को, तथा (वक्षणाभ्यः) वक्षःस्थल की नस-नाड़ियों से (दुग्धम्) शिशु के लिए दुग्ध को (जनयत्) पैदा करे।

    टिप्पणी

    [उर्वरा= इस का अर्थ है उत्पादन शक्तिसम्पन्ना या उपजाऊ। मन्त्र १४।१।१ में मातृशक्ति को भूमि कहा है। भूमि का अर्थ है, उत्पादनशक्ति वाली "भवन्ति पदार्था अस्यामिति भूमिः" (उणा० ४।४६, महर्षि दयानन्द)। उर्वरा शब्द का प्रयोग साभिप्राय है। इसके द्वारा यह दर्शाया है वन्ध्या में बीजावाप न करना चाहिये। बन्ध्या में बीजावाप में केवल भोगेच्छा प्रेरक होती है, सन्तानेच्छा नहीं। परमेश्वर ने नारीसृष्टि केवल सन्तानार्थ की है, भोग के लिए नहीं। सन्तानार्थं महाभागा एताः सृष्टाः स्वयम्भुवा" (मनुस्मृति)। अथवा उर्वरा = उरु+वरा = महाश्रेष्ठा नारी। यह नारी यतः सूर्याब्रह्मचारिणी है, अतः महाश्रेष्ठा है। नरः यह शब्द "नृ" से उत्पन्न बहुवचन में है, और "नर" शब्द से उत्पन्न एकवचन में है। बहुवचनावस्था में "वपत" शब्द अधिक सार्थक प्रतीत होता है, जिस के कर्ता हैं "नृ" से उत्पन्न नरः। एकवचनान्त नरः शब्द मानने पर "वपत" में वचनव्यत्यय कर "नरः वपतु" का अर्थ जानना चाहिये। बहुवचनान्त "नरः" और "वपत" का अभिप्राय है नियोगावस्था में भिन्न भिन्न कालों में बीजावाप करने वाले भिन्न भिन्न पति१। वक्षणाभ्यः = वक्षणाः नदीनाम (निघं० १।१३)। "यथा ब्रह्माण्डे तथा पिण्डे" के अनुसार, शरीर में रस-रक्त-दूध को प्रवाहित करने वाली नाड़ियां भी वक्षणा हैं। वक्षणा शब्द "वह" धातु से निष्पन्न है। इसी प्रकार गर्भस्थ नस-नाड़ियां भी वक्षणाः हैं। इन द्वारा गर्भस्थ शिशु का निर्माण होता है] [व्याख्या आत्मिक शक्ति तथा उत्पादनशक्ति से नारी गृहस्थजीवन के लिए शिवास्वरूप है (मन्त्र १३)। केवल आत्मिकशक्ति वाली नारी, वैराग्यप्रवणा होने के कारण, गृहस्थजीवन के लिए सुखकर नहीं हो सकती। तथा केवल उत्पादनशक्ति वाली नारी, भोगमय जीवन के कारण, गृहस्थ को अधिक भोगमय बना सकती है। इस लिये नारी में दोनों शक्तियों का समन्वय होना चाहिये, तभी वह शिवास्वरूप हो सकती है। आत्मिकशक्ति से विहीन नारी में बीजावाप से सन्तानें अनात्म पदार्थों के भोगों में आसक्त हो जाती हैं, तथा बन्ध्या में बीजावाप से बीज भी निष्फल रहता है। कोई किसान अनुपजाऊ भूमि में बीजावाप नहीं करता। इस भाव को हृदयङ्गत कराने के लिए मन्त्र में उर्वरा शब्द का प्रयोग हुआ है। वधू को चाहिये कि वह ऋषभ अर्थात् "श्रेष्ठ" विवाहित तथा नियुक्त पति द्वारा ही बीज ग्रहण करे। अश्रेष्ठ, कुकर्मी के साथ प्रसंग न करे। इस भय से कि सन्तानें भी कहीं अश्रेष्ठ, कुकर्मी उत्पन्न न हो जायें। "दुग्धं जनयत्" द्वारा यह प्रकट किया है कि शिशु के लिए निज माता का दूध ही अति उपकारी होता है। अतः बच्चा उत्पन्न होने के निकट काल में दुग्धोत्पादक ओषधियों का सेवन भी माता को करते रहना चाहिये।] [१. एक काल में एक पति की दृष्टि से "ऋषभस्य रेतः बिभ्रती" में ऋषभस्य में एकवचन प्रयुक्त हुआ है।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Surya’s Wedding

    Meaning

    O man, this woman, the bride, strong in spirit and morals, mature and fertile in health, has come to you as wife in whom you would plant the seed, and, bearing the seed of the virile husband, nourishing the seed and bearing milk from the steams of her body energy, she will give birth to your child for you and your family.

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    Translation

    Full of spirit, and fertile this woman has come; O man, sow your seed into her. Bearing the squeezed out semen of virile male, may she bear children for you from her flanks.

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    Translation

    This bride enriched with spiritual force and having progenitor comes to the house of her husband. Narah the husband. sows the seed of life in this lady. O family members, that lady bearing in her the discharged semen of strong husband gives birth to from her teeming side for you.

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    Translation

    This spiritually advanced dame, fit for begetting children has come, sow, thou man, the seed in this physically fit woman. She from her teeming sides shall bear thee children, preserving in her womb the valuable semen of her strong husband.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १४−(आत्मन्वती) आभ्यन्तरशक्तियुक्ता (उर्वरा) शस्योत्पादनयोग्या भूमिर्यथा, (नारी) नरस्य पत्नी (इयम्) वधूः (आ अगन्) आगमत् (तस्याम्) नार्याम् (नरः) सुपांसुपो भवन्ति। वा० पा० ७।१।३९। एकवचनस्य बहुवचनम्। हे नः। नायक (वपत) तिङां तिङोभवन्ति। वा० पा० ७।१।३९। एकवचनस्य बहुवचनम्। वप। प्रक्षिप (बीजम्) (अस्याम्)ईदृश्यां गुणवत्याम् (सा) (वः) पूर्ववद्बहुवचनम्। तुभ्यम् (प्रजाम्) सन्तानम् (जनयत्) जनयेत् (वक्षणाभ्यः) वक्षःस्थलेभ्यः। उदरनाडीभ्यः (बिभ्रती) धारयन्ती (दुग्धम्) क्षीरतुल्यम् (ऋषभस्य) वीर्यवतः पुरुषस्य (रेतः) वीर्यम् ॥

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