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अथर्ववेद के काण्ड - 15 के सूक्त 10 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 10/ मन्त्र 10
    ऋषिः - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - द्विपदासुरी गायत्री छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
    40

    ऐन॑मिन्द्रि॒यंग॑च्छतीन्द्रि॒यवा॑न्भवति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । ए॒न॒म् । इ॒न्द्रि॒यम् । ग॒च्छ॒ति॒ । इ॒न्द्रि॒यऽवा॑न् । भ॒व॒ति॒ ॥१०.१०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऐनमिन्द्रियंगच्छतीन्द्रियवान्भवति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । एनम् । इन्द्रियम् । गच्छति । इन्द्रियऽवान् । भवति ॥१०.१०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 10; मन्त्र » 10
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    अतिथिसत्कार की महिमा का उपदेश।

    पदार्थ

    (एनम्) उस [पुरुषार्थी] को (इन्द्रियम्) ऐश्वर्य (आ) आकर (गच्छति) मिलता है, वह (इन्द्रियवान्) ऐश्वर्यवान् (भवति) होता है ॥१०॥

    भावार्थ

    मनुष्य प्रजापालन मेंदक्ष और सुनीतिप्रचार में चतुर होकर ऐश्वर्य बढ़ावें ॥१०, ११॥

    टिप्पणी

    १०−(आ) आगत्य (एनम्)पुरुषार्थिनम् (इन्द्रियम्) इन्द्रचिह्नम्। ऐश्वर्यम् (गच्छति) प्राप्नोति (इन्द्रियवान्) ऐश्वर्यवान् (भवति) ॥

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    विषय

    पृथिवी+द्यौ [ज्ञान व बल]

    पदार्थ

    १. (इयं वा उ पृथिवी) = यह पृथिवी ही निश्चय से (बृहस्पति:) = बृहस्पति है, (द्यौः एव इन्द्रः) = द्युलोक ही इन्द्र है। जैसे पृथिवी व धुलोक माता व पिता के रूप में होते हुए सब प्राणियों का धारण करते हैं [द्यौष्पिता, पृथिवीमाता], इसीप्रकार बृहस्पति व इन्द्र-ज्ञानी पुरोहित व राजा मिलकर राष्ट्र का धारण करते हैं। २. (अयं वा उ अग्नि:) = निश्चय से यह अग्नि ही ब्रह्म-ज्ञान है और (असौ आदित्यः क्षत्रम्) = वह आदित्य क्षत्र-बल है। ज्ञान ही राष्ट्र को ले-चलनेवाला 'अग्रणी' है। जैसे उदय होता हुआ सूर्य कृमियों का संहार करता है, उसीप्रकार क्षत्र व बल राष्ट्रशत्रुओं का उपमर्दन करनेवाला आदित्य है। ३. (एनम्) = इस व्यक्ति को (ब्रह्म आगच्छति) = ज्ञान समन्तात् प्राप्त होता है। यह (ब्रह्मवर्चसी भवति) = ब्रह्मवर्चसवाला होता है, (य:) = जो (पृथिवीं बृहस्पतिम्) = पृथिवी को बृहस्पति के रूप में तथा अग्निं ब्रह्म-पृथिवी के मुख्य देव अग्नि को बृहस्पति के मुख्य गुण 'ब्रह्म' [ज्ञान] के रूप में वेद-जानता है, ४. (एनम्) = इस व्यक्ति को (इन्द्रियम् आगच्छति) = समन्तात् वीर्य [बल] प्राप्त होता है, तथा यह (इन्द्रवान् भवति) = प्रशस्त इन्द्रियोंवाला होता है जो (आदित्यं क्षत्रम्) = सूर्य को बल के रूप में तथा (दिव्यम्) = सूर्याधिष्ठान द्युलोक को (इन्द्रम्) = बल के अधिष्ठानभूत राजा के रूप में देखता है।

    भावार्थ

    हम ज्ञान को ही माता के रूप में जानें 'ज्ञानाधिपति, बृहस्पति' पृथिवी के रूप में है। इसका गुण 'ज्ञान' अग्नि है। इसे प्राप्त करके हम ब्रह्मवर्चस्वी हो। बल को हम रक्षक पिता युलोक के रूप में देखें। द्युलोक इन्द्र है तो उसका मुख्य देव आदित्य बल है। इस तत्त्व को समझकर हम प्रशस्त, सबल इन्द्रियोंवाले बनें।

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    भाषार्थ

    (एनम्) इसे (इन्द्रियम्) राजलक्ष्मी (आ गच्छति) प्राप्त होती है, वह (इन्द्रियवान्) राजलक्ष्मी वाला (भवति) हो जाता है ||१०||

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Vratya-Prajapati daivatam

    Meaning

    Glory comes to him, and he commands power and splendour...

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    Translation

    Unto him comes great power of sense organs; (and) he becomes strong with bodily power.

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    Translation

    To him goes the power of Indra and he becomes mighty power.

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    Translation

    Great power comes to him and he becomes endowed with great power.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १०−(आ) आगत्य (एनम्)पुरुषार्थिनम् (इन्द्रियम्) इन्द्रचिह्नम्। ऐश्वर्यम् (गच्छति) प्राप्नोति (इन्द्रियवान्) ऐश्वर्यवान् (भवति) ॥

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