अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 15/ मन्त्र 4
ऋषिः - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - भुरिक् प्राजापत्या अनुष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
37
तस्य॒व्रात्य॑स्य। योऽस्य॑ द्वि॒तीयः॑ प्रा॒णः प्रौढो॒ नामा॒सौ स आ॑दि॒त्यः ॥
स्वर सहित पद पाठतस्य॑ । व्रात्य॑स्य । य: । अ॒स्य॒ । द्वि॒तीय॑: । प्रा॒ण: । प्र॒ऽऊ॒ढ: । नाम॑ । अ॒सौ । स: । आ॒दि॒त्य: ॥१५.४॥
स्वर रहित मन्त्र
तस्यव्रात्यस्य। योऽस्य द्वितीयः प्राणः प्रौढो नामासौ स आदित्यः ॥
स्वर रहित पद पाठतस्य । व्रात्यस्य । य: । अस्य । द्वितीय: । प्राण: । प्रऽऊढ: । नाम । असौ । स: । आदित्य: ॥१५.४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
अतिथि के सामर्थ्य का उपदेश।
पदार्थ
(तस्य) उस (व्रात्यस्य) व्रात्य [सत्यव्रतधारी अतिथि] का−(यः) जो (अस्य) इस [व्रात्य] का (द्वितीयः) दूसरा (प्राणः) प्राण (प्रौढः) प्रौढ (ऊर्ध्वः) [प्रवृद्ध] (नाम) नामहै, (सः) सो (असौ) यह (आदित्यः) चमकनेवाला सूर्य है [अर्थात् वह सूर्यविद्या काप्रकाशक होता है−कि सूर्य का पृथिवी आदि लोकों और उनके पदार्थों से और उन सबकासूर्यलोक से क्या सम्बन्ध है, यह विचारता है] ॥४॥
भावार्थ
मन्त्र ९ पर देखो॥४॥
टिप्पणी
४−(प्रौढः) प्रादूहोढोढ्येषैष्येषु। वा० पा० ६।१।८९। प्र+ऊढः, वृद्धिः।प्रवृद्धः (आदित्यः) आदीप्यमानसूर्यविद्याप्रकाशः। अन्यत् पूर्ववत् स्पष्टं च ॥
विषय
अग्नि, आदित्य, चन्द्रमा
पदार्थ
१. (तस्य वातस्य) = उस व्रात्य का, (यः अस्य) = जो इसका (प्रथमः प्राणः) = पहला प्राण है, (ऊर्ध्व: नाम) = वह ऊर्ध्व नामवाला है, (अयं सः अग्नि:) = यह वह 'अग्नि' है। (तस्य खात्यस्य) = उस व्रात्य का (यः अस्य) = जो इसका (द्वितीयः प्राण:) = द्वितीय प्राण है, वह (प्रौढ: नाम) = प्रौढ नामवाला, (असौ सः आदित्यः) = वह वही आदित्य है। (तस्य व्रात्यस्य) = उस व्रात्य का (यः अस्य तृतीय: प्राण:) = जो इसका तीसरा प्राण है (अभ्यूढ: नाम) = अभ्यूढ नामवाला है। (असौ सः चन्द्रमा:) = वह वही चन्द्रमा है। २. प्रथम प्राण 'ऊर्ध्व' व 'अग्नि' है। 'ऊर्ध्व' का अभिप्राय: है शरीर में रेत:कणों की ऊर्ध्वगति करनेवाला। प्राणसाधना के द्वारा शरीर के रेत:कण ऊर्ध्वगतिवाले होते ही हैं। यह अग्नि' है-शरीर में उचित शक्ति की अग्नि का पोषण करता है। दूसरा प्राण 'प्रौढ' [प्र+ऊब]-प्रकृष्ट वहनवाला है। यह हमें उन्नति की दिशा में ले-चलता है। प्राणसाधना द्वारा बुद्धि का विकास होकर हमारा ज्ञान बढ़ता है। यह ज्ञान ही हमें उन्नत करनेवाला होता है, अत: इस प्राण को 'आदित्य' कहा गया है-सब ज्ञानों व गुणों का आदान करनेवाला। अब तृतीय प्राण 'अभि ऊढ' है। यह हमें प्रभु की ओर-आत्मतत्त्व की ओर ले-चलता है। प्राणायाम द्वारा ही विवेकख्याति होकर आत्मदर्शन होता है। यह प्राण 'चन्द्रमा' है-[चदि आहादे] अद्भुत आहाद का साधन बनता है। आत्मदर्शन का आनन्द वाग्विषय न होकर अन्त:करणग्राह्य ही है।
भाषार्थ
(तस्य) उस (वात्यस्य) व्रतपति तथा प्राणिवर्गों के हितकारी परमेश्वर की [सृष्टि में], (यः) जो (अस्य) इस परमेश्वर का (द्वितीयः प्राणः) दूसरा प्राण है (प्रौढ़ः नाम) वह "प्रौढ़" नाम वाला है, (असौ) वह हे (सः आदित्यः) वह सूर्य।
टिप्पणी
[प्रौढ़ः = सूर्य से सब ग्रह-उपग्रह उत्पन्न हुएं हैं जो कि शीत पड़ गए हैं, परन्तु सूर्य अभी तक गर्मी और प्रकाश की दृष्टि से प्रौढ़ावस्था में है, युवावस्था में है]
इंग्लिश (4)
Subject
Vratya-Prajapati daivatam
Meaning
The second vital breath energy of that Vratya is ‘Praudha’ by name, mature on top, and that is Aditya, the sun.
Translation
Of that Vratya; what is his second in- breath, called praudha (nature); that is sun yonder.
Translation
The second vital breath of that vratya called as Praudha, mature is this Aditya, the sun.
Translation
His second vital breath, called Mature, is that Sun.
Footnote
It is the manifestor of the science of the Sun.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४−(प्रौढः) प्रादूहोढोढ्येषैष्येषु। वा० पा० ६।१।८९। प्र+ऊढः, वृद्धिः।प्रवृद्धः (आदित्यः) आदीप्यमानसूर्यविद्याप्रकाशः। अन्यत् पूर्ववत् स्पष्टं च ॥
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