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अथर्ववेद के काण्ड - 15 के सूक्त 15 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 15/ मन्त्र 5
    ऋषिः - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - द्विपदा साम्नी बृहती छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
    54

    तस्य॒व्रात्य॑स्य। योऽस्य॑ तृ॒तीयः॑ प्रा॒णो॒ऽभ्यू॑ढो॒ नामा॒सौ स च॒न्द्रमाः॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तस्य॑ । व्रात्य॑स्य । य: । अ॒स्य॒ । तृ॒तीय॑:। प्रा॒ण: । अ॒भिऽऊ॑ढ: । नाम॑ । अ॒सौ । स: । च॒न्द्रमा॑: ॥१५.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तस्यव्रात्यस्य। योऽस्य तृतीयः प्राणोऽभ्यूढो नामासौ स चन्द्रमाः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तस्य । व्रात्यस्य । य: । अस्य । तृतीय:। प्राण: । अभिऽऊढ: । नाम । असौ । स: । चन्द्रमा: ॥१५.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 15; मन्त्र » 5
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    हिन्दी (3)

    विषय

    अतिथि के सामर्थ्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (तस्य) उस (व्रात्यस्य) व्रात्य [सत्यव्रतधारी अतिथि] का−(यः) जो (अस्य) इस [व्रात्य] का (तृतीयः) तीसरा (प्राणः) प्राण [श्वास] (अभ्यूढः) अभ्यूढ [सामने से प्राप्त] (नाम) नाम है, (सः) सो (असौ चन्द्रमाः) यह चन्द्रमा है [अर्थात् वह बताता है किउपग्रह चन्द्रमा, अपने ग्रह पृथिवी से किस सम्बन्ध से क्या प्रभाव करता है औरइसी प्रकार अन्य चन्द्रमाओं का अन्य ग्रहों से क्या सम्बन्ध है] ॥५॥

    भावार्थ

    मन्त्र ९ पर देखो॥५॥

    टिप्पणी

    ५−(अभ्यूढः) आभिमुख्येन प्राप्तः (चन्द्रमाः) चन्द्रविद्याप्रचारः। अन्यत्पूर्ववत् स्पष्टं च ॥

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    विषय

    अग्नि, आदित्य, चन्द्रमा

    पदार्थ

    १. (तस्य वातस्य) = उस व्रात्य का, (यः अस्य) = जो इसका (प्रथमः प्राणः) = पहला प्राण है, (ऊर्ध्व: नाम) = वह ऊर्ध्व नामवाला है, (अयं सः अग्नि:) = यह वह 'अग्नि' है। (तस्य खात्यस्य) = उस व्रात्य का (यः अस्य) = जो इसका (द्वितीयः प्राण:) = द्वितीय प्राण है, वह (प्रौढ: नाम) = प्रौढ नामवाला, (असौ सः आदित्यः) = वह वही आदित्य है। (तस्य व्रात्यस्य) = उस व्रात्य का (यः अस्य तृतीय: प्राण:) = जो इसका तीसरा प्राण है (अभ्यूढ: नाम) = अभ्यूढ नामवाला है। (असौ सः चन्द्रमा:) = वह वही चन्द्रमा है। २. प्रथम प्राण 'ऊर्ध्व' व 'अग्नि' है। 'ऊर्ध्व' का अभिप्राय: है शरीर में रेत:कणों की ऊर्ध्वगति करनेवाला। प्राणसाधना के द्वारा शरीर के रेत:कण ऊर्ध्वगतिवाले होते ही हैं। यह अग्नि' है-शरीर में उचित शक्ति की अग्नि का पोषण करता है। दूसरा प्राण 'प्रौढ' [प्र+ऊब]-प्रकृष्ट वहनवाला है। यह हमें उन्नति की दिशा में ले-चलता है। प्राणसाधना द्वारा बुद्धि का विकास होकर हमारा ज्ञान बढ़ता है। यह ज्ञान ही हमें उन्नत करनेवाला होता है, अत: इस प्राण को 'आदित्य' कहा गया है-सब ज्ञानों व गुणों का आदान करनेवाला। अब तृतीय प्राण 'अभि ऊढ' है। यह हमें प्रभु की ओर-आत्मतत्त्व की ओर ले-चलता है। प्राणायाम द्वारा ही विवेकख्याति होकर आत्मदर्शन होता है। यह प्राण 'चन्द्रमा' है-[चदि आहादे] अद्भुत आहाद का साधन बनता है। आत्मदर्शन का आनन्द वाग्विषय न होकर अन्त:करणग्राह्य ही है।

    भावार्थ

    व्रात्य प्राणसाधना करता हुआ अपने अन्दर शक्ति को अग्नि' को, ज्ञान व गणों के आदानरूप आदित्य' को तथा आत्मदर्शन के आनन्द रूप 'चन्द्रमा को धारण करता है।

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    भाषार्थ

    (तस्य) उस (व्रात्यस्य) व्रतपति तथा प्राणिवर्गों के हितकारी परमेश्वर की [सृष्टि में], (यः) जो (अस्य) इस परमेश्वर का (तृतीयः प्राणः) तीसरा प्राण है, वह (अभ्यूढः नाम) "अभ्यूढ" नाम वाला है, (असौ) वह है (सः,चन्द्रमाः) वह चन्द्रमा।

    टिप्पणी

    [अभ्यूढः= अभि (सम्मुख स्थित हुआ) + ऊढः (वह प्रापणे, परिवाहित)। चन्द्रमा सूर्य के सम्मुख स्थित रहता है, और पृथिवी के वेग के साथ साथ आकाश में, पृथिवी के आकर्षण द्वारा आकृष्ट हुआ, परिवाहित होता रहता है]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Vratya-Prajapati daivatam

    Meaning

    The third pranic energy of this Vratya is Abhyudha’ by name, conveyed, communicated and reflected, and that is Chandrama, the moon.

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    Translation

    Of that Vratya; what is his third in- breath, called Abhudha (concluded), that is the moon yonder.

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    Translation

    The third vital air of that Vratya called as Abhyudha, approached is this moon.

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    Translation

    His third vital breath, called Approached, is that Moon.

    Footnote

    It is the manifestor of the science of Moon.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५−(अभ्यूढः) आभिमुख्येन प्राप्तः (चन्द्रमाः) चन्द्रविद्याप्रचारः। अन्यत्पूर्ववत् स्पष्टं च ॥

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