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अथर्ववेद के काण्ड - 2 के सूक्त 21 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 21/ मन्त्र 2
    ऋषिः - अथर्वा देवता - सूर्यः छन्दः - एकावसानानिचृद्विषमात्रिपाद्गायत्री सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
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    सूर्य॒ यत्ते॒ हर॒स्तेन॒ तं प्रति॑ हर॒ यो॑३ ऽस्मान्द्वेष्टि॒ यं व॒यं द्वि॒ष्मः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सूर्य॑ । यत् । ते॒ । हर॑: । तेन॑ । तम् । प्रति॑ । ह॒र॒ । य: । अ॒स्मान् । द्वेष्टि॑ । यम् । व॒यम् ।‍ द्वि॒ष्म: ॥२१.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सूर्य यत्ते हरस्तेन तं प्रति हर यो३ ऽस्मान्द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सूर्य । यत् । ते । हर: । तेन । तम् । प्रति । हर । य: । अस्मान् । द्वेष्टि । यम् । वयम् ।‍ द्विष्म: ॥२१.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 21; मन्त्र » 2
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    हिन्दी (4)

    विषय

    कुप्रयोग के त्याग के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    (सूर्य) हे सूर्य [सूर्यमण्डल !] (यत्) जो (ते) तेरी (हरः) नाशनशक्ति है, (तेन) उससे (तम्) उस [दोष] को (प्रति हर) नाश कर डाल, (यः) जो (अस्मान्) हमसे..... मन्त्र १ ॥२॥

    भावार्थ

    मन्त्र १ के समान ॥२॥

    टिप्पणी

    २–सूर्य। अ० १।३।५। हे सरणशील ! हे प्रेरणशील ! आदित्य ! अन्यदुपरिगतम् ॥ २, ३, ४, ५–उपरि व्याख्यातः ॥

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    विषय

    ५ भुरिग्विषमात्रिपाद्गायत्री।

    पदार्थ

    १,  २,  ३,  ४,  ५  एवं  मन्त्र संख्या के  केवल भावार्थ ही है |

    भावार्थ

    सूर्य अपने तप आदि के द्वारा द्वेषियों के द्वेष को दूर करे । राष्ट्र में राजा भी सूर्य है। राजा सूर्य की भाँति निरन्तर सरण करते हुए सब लोगों को क्रिया-प्रवृत्त करता है, जिससे न वे खाली हों और न ही व्यर्थ के द्वेष आदि में पड़ें। समाज में ज्ञानी प्रचारक को भी सूर्य की भांति निरन्तर भ्रमण करते हुए ज्ञान के प्रकाश से अज्ञान-अन्धकार को दूर करना है, जिससे लोग द्वेष आदि आसुर भावनाओं को त्याज्य ही समझें।

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    भाषार्थ

    (सूर्य) हे सूर्य (यत् ते) जो तेरा (हरः) हरणसामर्थ्य है ( तेन ) उस द्वारा (तं प्रति हर) उसका हरण कर। शेष का अर्थ और भाव पूर्ववत् । सूर्य अन्धकार का हरण करता है, तद्वत् उस द्वेष्टा का हरण कर ।

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    विषय

    द्वेष करने वालों के सम्बन्ध में प्रार्थना ।

    भावार्थ

    हे (सूर्य) सबके उत्पादक और प्रकाशक और प्रेरक परमात्मन् ! शेष सब पूर्ववत् है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिश्छन्दश्च पूर्ववत् । सूर्यो देवता । पञ्चर्चं सूक्तम् ॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Vayu Devata

    Meaning

    O sun, the blaze and passion that is yours, with that seize that which hates us, and that which we hate to suffer.

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    Translation

    O Sun, whatever compelling force (haras) you have, with that may you compel him, who hates us and whom we hate.

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    Translation

    Let the Sun with that of its heat,...etc. like the pervious Hymn. XIX.

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    Translation

    O God, All-Creating, All-Goading like the Sun, with Thy Righteous indignation take him under Thy shelter and make him virtuous, who hates us, or whom we do not love!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २–सूर्य। अ० १।३।५। हे सरणशील ! हे प्रेरणशील ! आदित्य ! अन्यदुपरिगतम् ॥ २, ३, ४, ५–उपरि व्याख्यातः ॥

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    बंगाली (2)

    भाषार्थ

    (সূর্য) হে সূর্য ! (যৎ তে) যে তোমার (হরঃ) হরণ সামর্থ্য রয়েছে (তেন) তা দ্বারা (তং প্রতি হর) তাঁর হরণ করো। (যঃ অস্মান) যে আমাদের সাথে দ্বেষ করে, এবং (যম্ বয়ম্ দ্বিষ্মঃ) এইজন্য যার প্রতি আমরা প্রেম করিনা।

    टिप्पणी

    [সূর্য অন্ধকার হরণ করে, তদ্বৎ সেই দ্বেষ্টার হরণ করো।]

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    मन्त्र विषय

    কুপ্রয়োগত্যাগায়োপদেশঃ

    भाषार्थ

    (সূর্য) হে সূর্য [সূর্যমণ্ডল !] (যৎ) যে/যা (তে) তোমার (হরঃ) বিনাশকারী শক্তি আছে, (তেন) তা দ্বারা (তম্) সেই [দোষ] (প্রতি হর) নাশ করো, (যঃ) যা (অস্মান্) আমাদের প্রতি (দ্বেষ্টি) অপ্রীতি করে, [অথবা] (যম্) যার প্রতি (বয়ম্) আমরা (দ্বিষ্মঃ) অপ্রীতি করি ॥২॥

    भावार्थ

    মন্ত্র ১ এর সমান ॥২॥

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