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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 29 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 29/ मन्त्र 1
    ऋषिः - गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-२९
    55

    त्वं हि स्तो॑म॒वर्ध॑न॒ इन्द्रास्यु॑क्थ॒वर्ध॑नः। स्तो॑तॄ॒णामु॒त भ॑द्र॒कृत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । हि । स्तो॒म॒ऽवर्ध॑न: । इन्द्र॑ । असि॑ । उ॒क्थ॒ऽवर्ध॑न: ॥ स्तो॒तृ॒णाम् । उ॒त । भ॒द्र॒ऽकृत् ॥२९.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वं हि स्तोमवर्धन इन्द्रास्युक्थवर्धनः। स्तोतॄणामुत भद्रकृत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम् । हि । स्तोमऽवर्धन: । इन्द्र । असि । उक्थऽवर्धन: ॥ स्तोतृणाम् । उत । भद्रऽकृत् ॥२९.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 29; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (1)

    विषय

    राजा के धर्म का उपदेश।

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले राजन्] (त्वम्) तू (हि) ही (स्तोमवर्धनः) स्तुतियों से बढ़ाने योग्य और (उक्थवर्धनः) यथार्थ वचनों से सराहने योग्य (उत) और (स्तोतॄणाम्) गुणव्याख्याताओं का (भद्रकृत्) कल्याण करनेवाला (असि) है ॥१॥

    भावार्थ

    राजा ऐसा उत्तम गुणी और पराक्रमी होवे कि सब लोग उसके गुणों से सुखी होवें ॥१॥

    टिप्पणी

    यह सूक्त ऋग्वेद में है-८।१४।११-१ ॥ १−(त्वम्) (हि) एव (स्तोमवर्धनः) कृत्यल्युटो बहुलम्। पा० ३।३।११३। स्तोम+वृधु वर्धने-अर्हार्थे ल्युट्। स्तुतिभिर्वर्द्धनीयः (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् राजन् (असि) (उक्थवर्धनः) ल्युट् पूर्ववत्। यथार्थवचनैर्वर्धनीयः (स्तोतॄणाम्) गुणव्याख्यातॄणाम् (उत) अपि च (भद्रकृत्) कल्याणस्य कर्ता ॥

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    इंग्लिश (2)

    Subject

    Self-integration

    Meaning

    By you the songs of praise and adoration thrive and exalt, by you the songs of celebration and prayer vibrate and fructify. Indeed, you do all the good to the celebrants.

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    Translation

    Indra, the air is the strengthener of the group or plants, this is increaser of grains and this is doer of goods for them who praise its properties and operations.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    यह सूक्त ऋग्वेद में है-८।१४।११-१ ॥ १−(त्वम्) (हि) एव (स्तोमवर्धनः) कृत्यल्युटो बहुलम्। पा० ३।३।११३। स्तोम+वृधु वर्धने-अर्हार्थे ल्युट्। स्तुतिभिर्वर्द्धनीयः (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् राजन् (असि) (उक्थवर्धनः) ल्युट् पूर्ववत्। यथार्थवचनैर्वर्धनीयः (स्तोतॄणाम्) गुणव्याख्यातॄणाम् (उत) अपि च (भद्रकृत्) कल्याणस्य कर्ता ॥

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