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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 36 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 36/ मन्त्र 5
    ऋषिः - भरद्वाजः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-३६
    29

    तं पृ॒च्छन्ती॒ वज्र॑हस्तं रथे॒ष्ठामिन्द्रं॒ वेपी॒ वक्व॑री॒ यस्य॒ नू गीः। तु॑विग्रा॒भं तु॑विकू॒र्मिं र॑भो॒दां गा॒तुमिषे॒ नक्ष॑ते॒ तुम्र॒मच्छ॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तम् । पृ॒च्छन्ती॑ । वज्र॑ऽहस्तम् । र॒थे॒ऽस्थम् । इन्द्र॑म् । वेपी॑ । वक्व॑री । यस्य॑ । नु । गी: ॥ तु॒वि॒ऽग्रा॒भम् । तु॒वि॒ऽकू॒र्मिम् । र॒भ॒:ऽदाम् । गा॒तुम् । इ॒षे॒ । नक्ष॑ते । तुम्र॑म् । अच्छ॑ ॥३६.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तं पृच्छन्ती वज्रहस्तं रथेष्ठामिन्द्रं वेपी वक्वरी यस्य नू गीः। तुविग्राभं तुविकूर्मिं रभोदां गातुमिषे नक्षते तुम्रमच्छ ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तम् । पृच्छन्ती । वज्रऽहस्तम् । रथेऽस्थम् । इन्द्रम् । वेपी । वक्वरी । यस्य । नु । गी: ॥ तुविऽग्राभम् । तुविऽकूर्मिम् । रभ:ऽदाम् । गातुम् । इषे । नक्षते । तुम्रम् । अच्छ ॥३६.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 36; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (यस्य) जिस [पुरुष] की (गीः) वाणी (नु) निश्चय करके (वेपी) हिलनेवाली [बे-रोक चलनेवाली] और (वक्वरी) बोलने की शक्तिवाली है, (तम्) उस (वज्रहस्तम्) वज्र [हथियार] हाथ में रखनेवाले (रथेष्ठाम्) रथ में बैठे हुए, (तुविग्राभम्) बहुतों को सहारा देनेवाले, (तुविकूर्मिम्) बहुत से काम करनेवाले, (रभोदाम्) वेगयुक्त बल देनेवाले, (गातुम्) वेदों के गानेवाले, (तुम्रम्) विघ्नों के मिटानेवाले (इन्द्रम्) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले पुरुष] को (इषे) अन्न आदि के लिये (पृच्छन्ती) पूँछती हुई [स्त्री] (अच्छ) अच्छे प्रकार (नक्षते) प्राप्त होती है ॥॥

    भावार्थ

    ब्रह्मचारिणी कन्या भली-भाँति निश्चय करके शुभ गुणवाले ऐश्वर्यवान् पुरुष को विवाह के लिये स्वीकार करे ॥॥

    टिप्पणी

    −(तम्) पुरुषम् (पृच्छन्ती) जिज्ञासमाना (वज्रहस्तम्) आयुधपाणिम् (रथेष्ठाम्) रथारूढम् (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवन्तं पुरुषम् (वेपी) वेपृ कम्पने पचाद्यच्। गौरादित्वाद् ङीप्। कम्पनशीला। चेष्टायमाना (वक्वरी) वचेर्वनिप्। वनो र च। पा०४।१।७। ङीब्रेफौ। यद्वा, कॄगॄशॄदॄभ्यो वः। उ०१।१। वचेर्वप्रत्ययः, रो मत्वर्थे, ङीप्। न्यङ्क्वादीनां च। पा०७।३।३। इति बाहुलकात् कुत्त्वम्। वचनशक्तिमती (यस्य) पुरुषस्य (नु) निश्चयेन (गीः) वाक् (तुविग्राभम्) ग्रह उपादाने-अण् हस्य भः। बहूनां ग्रहीतारं सहायकम् (तुविकूर्मिम्) अर्त्तेरुच्च। उ०४।४४। डुकृञ् करणे-मिप्रत्ययः ऊच्च। बहुकर्माणम् (रभोदाम्) रभसो वेगयुक्तबलस्य दातारम् (गातुम्) कमिमनिजनिगाभायाहिभ्यश्च। उ०१।७३। वेदानां गायनं गायकम् (इषे) अन्नाद्याय दयानन्दभाष्ये-ऋक्०६।२२।। (नक्षते) प्राप्नोति। नक्षतिर्गतिकर्मा-निघ०२।१४ (तुम्रम्) तुमिराहननार्थः-सायणभाष्ये-ऋक्०३।०।१। सुसूधाञ्गृधिभ्यः क्रन्। उ०२।२४। इति क्रन् प्रत्ययः। विघ्नानां नाशकम् (अच्छ) सुष्ठु ॥

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    विषय

    प्रभु की चर्चा व प्रभु की ओर

    पदार्थ

    १. (यस्य) = जिस स्तोता की (वेपी) = [वेप-कर्म] यागादि लक्ष्ण कर्मोंवाली-यज्ञशीला (वक्वरी) = प्रभु के गुणों का प्रवचन करनेवाली (गी:) = वाणी (नु) = निश्चय से (तं वजहस्तम्) = उस वन को हाथ में लिये हुए, (रथेष्ठाम्) = हमारे शरीर-रथों में स्थित (इन्द्रम्) = सर्वशक्तिमान् प्रभु को (पृच्छन्ती) = पूछती हुई होती है, यह स्तोता सदा (गातुम् इषे) = मार्ग को ही चाहता है-सदा सन्मार्ग पर चलने की ही कामना करता है। सदा प्रभु की ही चर्चा करता हुआ यह कुमार्गगामी नहीं होता। २. इसप्रकार सन्मार्ग पर चलता हुआ यह उस प्रभु को ही (अच्छ नक्षते) = आभिमुख्येन प्राप्त होता है जोकि (तुविनाभम्) = महान् ग्राहक हैं-सारे ही ब्रह्माण्ड को अपने अन्दर लिये हुए हैं। (तुविकूर्मिम्) = महान् कर्मोंवाले हैं। (रभोदाम्) = बल के दाता है तथा (तुमम्) = शत्रु के प्रति आक्रमण करनेवाले हैं।

    भावार्थ

    हम सदा प्रभु की ही चर्चा करें और सन्मार्ग पर चलते हुए प्रभु की ओर ही जाएँ।

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    भाषार्थ

    (वेपी) उदात्तादि स्वरों की दृष्टि से सुरीले वेपनोंवाली, (वक्वरी) और यथार्थज्ञान का कथन करनेवाली (यस्य गीः) जिसकी वेदवाणी—(वज्रहस्तम्) न्यायवज्रधारी, (रथेष्ठाम्) शरीर-रथ तथा ब्रह्माण्ड-रथ में स्थित, (तुविग्राभम्) मजबूत पकड़वाले, (तुविकूर्मिम्) महती कृति शक्ति से सम्पन्न, (रभोदाम्) शक्ति प्रदाता, (गातुम्) वेदवाणी के उपदेष्टा, (तुम्रम्) तुमुल अर्थात् महान् (तम् इन्द्रम्) उस परमेश्वर के सम्बन्ध में (पृच्छन्ती) पूछती हुई, (इषे) प्रजाजनों के अभीष्टों के लिए (नक्षते) प्राप्त हुई है।

    टिप्पणी

    [तुविग्राभम्=संसार में ग्रह, उपग्रह, सूर्य नक्षत्र, तारागण, विना किसी अवलम्ब के महाकाश में नियत गतियाँ कर रहे हैं, और स्थान भ्रष्ट नहीं होते। इसका कारण यह है कि ये सब परमेश्वर की मजबूत पकड़ में हैं। रभोदाम्=रभस् (strength; आप्टे)+दा। पृच्छन्ती=जैसे कि मन्त्र ४ में “कस्ते भागः, किं वयः”—द्वारा परमेश्वर से प्रश्न किये हैं। इस प्रकार के प्रश्न वेदों में कई स्थानों में किये गये हैं। गातुम्=गायति सः गातुः (उणा০ कोष १.७३)। नक्षते=गतिकर्मा (निघं০ २.१४); गतेः त्रयोऽर्थाः ज्ञानम् गतिः, प्राप्तिश्च।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Indr a Devata

    Meaning

    If the voice and words of a person are vibrant with devotion and eloquent with enquiry in right earnest about Indra, lord of power, honour and excellence, wielder of the thunderbolt in hand, riding the chariot of life, strong with iron grasp, bold in action, giver of tempestuous strength and commander of cosmic force, then such a person wins the lord’s favour of dominion over land for food, energy and the happiness of his heart’s desire.

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    Translation

    The learned man, whose always active powerful voice seeking the favour of Almighty who is the possesor of thunder (Vajrah) and who ıs present in the universe (Ratha) desires to invoke Him who is swift in grasping, swift in action and the giver of swift power attain Him who is the All-pervading.

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    Translation

    The learned man, whose always active powerful voice seeking the favor of Almighty who is the possessor of thunder (Vajrah) and who is present in the universe (Ratha) desires to invoke Him who is swift in grasping, swift in action and the giver of swift power attain Him who is the All-pervading.

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    Translation

    The self-same devotee, whose inquisitive, active and fluent faculty of speech wishes to sing the praises of that Mighty Lord, with the thunderbolt in His Hand, well-entrenched in the hearts of the blissful souls, Sustainer of innumerable worlds, and Doer of numerous deeds, attains well the Remover of all obstructions and handicaps.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    −(तम्) पुरुषम् (पृच्छन्ती) जिज्ञासमाना (वज्रहस्तम्) आयुधपाणिम् (रथेष्ठाम्) रथारूढम् (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवन्तं पुरुषम् (वेपी) वेपृ कम्पने पचाद्यच्। गौरादित्वाद् ङीप्। कम्पनशीला। चेष्टायमाना (वक्वरी) वचेर्वनिप्। वनो र च। पा०४।१।७। ङीब्रेफौ। यद्वा, कॄगॄशॄदॄभ्यो वः। उ०१।१। वचेर्वप्रत्ययः, रो मत्वर्थे, ङीप्। न्यङ्क्वादीनां च। पा०७।३।३। इति बाहुलकात् कुत्त्वम्। वचनशक्तिमती (यस्य) पुरुषस्य (नु) निश्चयेन (गीः) वाक् (तुविग्राभम्) ग्रह उपादाने-अण् हस्य भः। बहूनां ग्रहीतारं सहायकम् (तुविकूर्मिम्) अर्त्तेरुच्च। उ०४।४४। डुकृञ् करणे-मिप्रत्ययः ऊच्च। बहुकर्माणम् (रभोदाम्) रभसो वेगयुक्तबलस्य दातारम् (गातुम्) कमिमनिजनिगाभायाहिभ्यश्च। उ०१।७३। वेदानां गायनं गायकम् (इषे) अन्नाद्याय दयानन्दभाष्ये-ऋक्०६।२२।। (नक्षते) प्राप्नोति। नक्षतिर्गतिकर्मा-निघ०२।१४ (तुम्रम्) तुमिराहननार्थः-सायणभाष्ये-ऋक्०३।०।१। सुसूधाञ्गृधिभ्यः क्रन्। उ०२।२४। इति क्रन् प्रत्ययः। विघ्नानां नाशकम् (अच्छ) सुष्ठु ॥

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