अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 76/ मन्त्र 8
व्या॑न॒डिन्द्रः॒ पृत॑नाः॒ स्वोजा॒ आस्मै॑ यतन्ते स॒ख्याय॑ पू॒र्वीः। आ स्मा॒ रथं॒ न पृत॑नासु तिष्ठ॒ यं भ॒द्रया॑ सुम॒त्या चो॒दया॑से ॥
स्वर सहित पद पाठवि । आ॒न॒ट् । इन्द्र॑: । पृत॑ना: । सु॒ऽओजा॑: । आ । अस्मै॑ । य॒त॒न्ते॒ । स॒ख्याय॑ । पू॒र्वी: ॥ आ । स्म॒ । रथ॑म् । न । पृत॑नासु । ति॒ष्ठ॒ । यम् । भ॒द्रया॑ । सु॒ऽम॒त्या । चो॒दया॑से ॥७६.८॥
स्वर रहित मन्त्र
व्यानडिन्द्रः पृतनाः स्वोजा आस्मै यतन्ते सख्याय पूर्वीः। आ स्मा रथं न पृतनासु तिष्ठ यं भद्रया सुमत्या चोदयासे ॥
स्वर रहित पद पाठवि । आनट् । इन्द्र: । पृतना: । सुऽओजा: । आ । अस्मै । यतन्ते । सख्याय । पूर्वी: ॥ आ । स्म । रथम् । न । पृतनासु । तिष्ठ । यम् । भद्रया । सुऽमत्या । चोदयासे ॥७६.८॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
राजा के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(स्वोजाः) सुन्दर बलवाला (इन्द्रः) इन्द्र [परम ऐश्वर्यवाला पुरुष] (पृतनाः) मनुष्यों में (वि आनट्) फैल गया है, (अस्मै) इसकी (सख्याय) मित्रता के लिये (पूर्वीः) सब [मनुष्य] (आ यतन्ते) यत्न करते रहते हैं। [हे राजन् !] (न) अब (पृतनासु) मनुष्यों के बीच (स्म) अवश्य (रथम्) रथ पर (आतिष्ठ) तू चढ़, (यम्) जिस [रथ] को (भद्रया) कल्याणी (सुमत्या) सुमति के साथ (चोदयासे) तू चलावेगा ॥८॥
भावार्थ
जो धर्मात्मा पुरुष सबमें प्रबल और सुबोध होता है, सब मनुष्य उसके मित्र बन जाते हैं और वह सभी रथ रूपी राजकाज आदि व्यवहार को उत्तम रीति से चलाता है ॥८॥
टिप्पणी
८−(वि आनट्) व्याप्नोति (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् पुरुषः (पृतनाः) मनुष्यान्-निघ० २।३। (स्वोजाः) शोभनबलः (आ) समन्तात् (अस्मै) षष्ठ्यर्थे चतुर्थी। अस्य। इन्द्रस्य (यतन्ते) यत्नं कुर्वन्ति (सख्याय) सखित्वाय मित्रभावाय (पूर्वीः) समस्ता मनुष्यप्रजाः (स्म) अवश्यम् (रथम्) रथरूपं राज्यव्यवहारम् (न) सम्प्रति (पृतनासु) मनुष्येषु (आ तिष्ठ) आरोह (यम्) रथम् (भद्रया) कल्याण्या (सुमत्या) शोभनया बुद्ध्या (चोदयासे) लेटि रूपम्। चोदयेः। प्रेरयेः ॥
विषय
प्रभुरूप सारथि द्वारा विजय-प्राप्ति
पदार्थ
१. गतमन्त्र के अनुसार सोम-रक्षण के द्वारा (स्वोजा:) = उत्तम ओजवाला (इन्द्र:) = जितेन्द्रिय पुरुष (पृतना:) = शत्रुसैन्यों को (व्यानट्) = विशेषरूप से घेरनेवाला-उन्हें पराभूत करनेवाला बनता है। काम, क्रोध के परिभव के द्वारा पूर्वी: अपना पूरण करनेवाले लोग अस्मै सख्याय-इस प्रभु की मित्रता के लिए (आयतन्ते) = सर्वथा प्रयत्न करते है। २. ये प्रभु से प्रार्थना करते हैं कि (न) = जैसे (पृतनास) = संग्रामों में (रथम्) = रथ पर सारथि स्थित होता है, उसी प्रकार हे प्रभो! आप भी (स्म) = निश्चय से [रथम्] (आतिष्ठ) = हमारे इस शरीर-रथ पर स्थित होइए। उस रथ पर स्थित होइए (यम्) = जिसको कि आप (भद्रया समत्या) = कल्याणी सुमति से (चोदयासे) = प्रेरित करते हैं। इस कल्याणी मति को प्राप्त कराके ही प्रभु हमें विजयी बनाते हैं।
भावार्थ
प्रभु मेरे शरीर-रथ के सारथि हों। मैं अपनी जीवन-दिशा को प्रभु के निर्देश से निश्चित करूँ। प्रभु के निर्देश से चलनेवाला व्यक्ति 'वामदेव'-सुन्दर दिव्य गुणोंवाला बनता है। यह प्रार्थना करता है कि -
भाषार्थ
(स्वोजाः) निज ओजःसम्पन्न (इन्द्रः) परमेश्वर, (पृतनाः) देवासुर-संग्रामों में, कामादि की सेनाओं को (व्यानल्=व्यानट्) विनष्ट करता है। इसलिए (पूर्वीः) अनादि काल परम्परा से होनेवाली पूजाएँ, (अस्मै सख्याय) परमेश्वर के साथ इसके सखिभाव की प्राप्ति के लिए, (आ यतन्ते) पूर्णतया प्रयत्न करती रही हैं। हे परमेश्वर! (यम्) जिस उपासक को आप, (भद्रया) सुखदायिनी और कल्याणकारिणी (सुमत्या) सुमति द्वारा, (चोदयासे) प्रेरित करते रहते हैं, उस के (पृतनासु) देवासुर-संग्रामों में, आप उसकी सहायतार्थ, (आ तिष्ठ) दृढ़तापूर्वक स्थित हूजिए, (न) जैसे कि रथ-योद्धा युद्धों में (रथम्) अपने रथ को दृढ़तापूर्वक स्थित रखता है। [व्यानल्=व्यानट्=व्याप्नोति वा। अथवा “नश्” नाश।]
विषय
आत्मा और राजा।
भावार्थ
(इन्द्रः) आत्मा (स्वोजाः) उत्तम, ओजस्वी होकर (पृतनाः) समस्त मनुष्यों के भीतर (वि आनट्) विविध रूपों में व्यापक है। (पूर्वीः) पूर्ण सामर्थ्य वाली उत्कृष्ट कोटि की प्रजाएं सदा से (अस्मै सख्याय) इसके मैत्रीभाव को प्राप्त करने के लिये (आयतन्ते) यत्न करती रही हैं। हे मेरे आत्मन् ! तू (पृतनासु रथं न) संग्राम के लिये सेनाओं के बीच जिस प्रकार महारथी रथ पर सवार होता है उसी प्रकार तू भी (पृतनासु) समस्त मनुष्यों के बीच (रथम् आतिष्ठ) देह में, स्थित है (यम्) जिस देह को तू (भद्रया) सुखप्रद कल्याणकारिणी है (सुमत्या) शुभ या उत्तम सुप्रबद्ध मननकारिणी मन शक्ति या बुद्धि द्वारा (चोदयासे) प्रेरित करता या चलाता है। राजा के पक्ष में—(स्वोजाः) उत्तम पराक्रमी (इन्द्रः) राजा (पृतनाः) शत्रु सेनाओं को (व्यानट्) विविध प्रकारों से व्यापता है (पूर्वीः) वे पूर्ण सामर्थ्य वाली शत्रु सेनाएं भी (अस्मै सख्याय आ यतन्ते) इसकी मित्रता या सन्धि के लिये यत्न करती हैं। हे राजन् ! तू (पृतनासु) संग्रामों में (रथं न) रथ के समान (पृतनासु रथं) प्रजाओं में रमणीय सिंहासन या राज्यरूप रथ पर (अतिष्ठ स्म) आरूढ हो। और (यं) जिसको (भद्रया) भद्र कल्याणकारी (सुमत्या) शुभमति से (चोदयासे) संचालित कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसुक ऐन्द्रो ऋषिः। इन्द्रो देवता। त्रिष्टुभः। अष्टर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Indra Devata
Meaning
Indra, lord of holy light and lustre, pervades the peoples’ heart and soul within and joins them in their struggles in the world outside. The best of people since time immemorial try to win his love and friendship with homage, prayer and meditation. O lord of cosmic chariot, ruler of the world, come to us to bless us and our social order like a master of the chariot among people whom you inspire and bless with clear intelligence, noble ambition and holy enthusiasm in the right direction. Indra, lord of holy light and lustre, pervades the peoples’ heart and soul within and joins them in their struggles in the world outside. The best of people since time immemorial try to win his love and friendship with homage, prayer and meditation. O lord of cosmic chariot, ruler of the world, come to us to bless us and our social order like a master of the chariot among people whom you inspire and bless with clear intelligence, noble ambition and holy enthusiasm in the right direction.
Translation
Self-refulgent God is pervading the humankind. For His friendliness all the human -subjects strive. O Lord, now, may always you have seat in this cycle of cosmos which you carry towards its purpose by your auspicious wisdom.
Translation
Self-refulgent God is pervading the humankind. For His friendliness all the human subjects strive. O Lord, now, may always you have seat in this cycle of cosmos which you carry towards its purpose by your auspicious wisdom.
Translation
The Mighty Lord of High Energy and Valour1 pervades all through men and opposing forces of nature. The noblest persons full of high qualities of head and heart have ever tried to win His friendship. O my soul, fully stay in this body, the source of. all pleasures and joys, amongst men like the chariot amidst the fighting armies, which thou mobilises through peaceful and good intellect.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
८−(वि आनट्) व्याप्नोति (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् पुरुषः (पृतनाः) मनुष्यान्-निघ० २।३। (स्वोजाः) शोभनबलः (आ) समन्तात् (अस्मै) षष्ठ्यर्थे चतुर्थी। अस्य। इन्द्रस्य (यतन्ते) यत्नं कुर्वन्ति (सख्याय) सखित्वाय मित्रभावाय (पूर्वीः) समस्ता मनुष्यप्रजाः (स्म) अवश्यम् (रथम्) रथरूपं राज्यव्यवहारम् (न) सम्प्रति (पृतनासु) मनुष्येषु (आ तिष्ठ) आरोह (यम्) रथम् (भद्रया) कल्याण्या (सुमत्या) शोभनया बुद्ध्या (चोदयासे) लेटि रूपम्। चोदयेः। प्रेरयेः ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
রাজকর্তব্যোপদেশঃ
भाषार्थ
(স্বোজাঃ) শোভন বলযুক্ত (ইন্দ্রঃ) ইন্দ্র [পরম ঐশ্বর্যবান্ পুরুষ] (পৃতনাঃ) মনুষ্যগণের মধ্যে (বি আনট্) ব্যাপ্ত হয়েছে, (অস্মৈ) এঁর [ইন্দ্রের] (সখ্যায়) মিত্রতার জন্য (পূর্বীঃ) সকল [মনুষ্য] (আ যতন্তে) প্রচেষ্টা করতে থাকে। [হে রাজন্ !] (ন) এখন (পৃতনাসু) মনুষ্যদের মধ্যে (স্ম) অবশ্যই (রথম্) রথে (আতিষ্ঠ) তুমি আরোহন করো, (যম্) যে [রথ] কে (ভদ্রয়া) কল্যাণী (সুমত্যা) সুমতি / উত্তম বুদ্ধির সহিত (চোদয়াসে) তুমি পরিচালনা করবে ॥৮॥
भावार्थ
যে ধর্মাত্মা পুরুষ সকলের মধ্যে প্রবল শক্তিশালী ও বুদ্ধিমান হয়, সকল মনুষ্য তাঁর মিত্র হয় এবং তিনি রথরূপী রাজকাজ আদিকে উত্তম রীতি দ্বারা পরিচালনা করে॥৮॥
भाषार्थ
(স্বোজাঃ) নিজ ওজঃসম্পন্ন (ইন্দ্রঃ) পরমেশ্বর, (পৃতনাঃ) দেবাসুর-সংগ্রামে, কামাদির সেনাদের (ব্যানল্=ব্যানট্) বিনষ্ট করেন। এইজন্য (পূর্বীঃ) অনাদি কাল পরম্পরা থেকে প্রবাহমান পূজা, (অস্মৈ সখ্যায়) পরমেশ্বরের সাথে সখিভাব প্রাপ্তির জন্য, (আ যতন্তে) পূর্ণরূপে প্রচেষ্টা করেছে। হে পরমেশ্বর! (যম্) যে উপাসককে আপনি, (ভদ্রয়া) সুখদায়িনী এবং কল্যাণকারিণী (সুমত্যা) সুমতি দ্বারা, (চোদয়াসে) প্রেরিত করতে থাকেন, তাঁর (পৃতনাসু) দেবাসুর-সংগ্রামে, আপনি তাঁর সহায়তার্থ, (আ তিষ্ঠ) দৃঢ়তাপূর্বক স্থিত হন, (ন) যেমন রথ-যোদ্ধা যুদ্ধে (রথম্) নিজের রথকে দৃঢ়তাপূর্বক স্থিত রাখে। [ব্যানল্=ব্যানট্=ব্যাপ্নোতি বা। অথবা “নশ্” নাশ।]
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