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अथर्ववेद के काण्ड - 3 के सूक्त 5 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 5
    ऋषिः - अथर्वा देवता - सोमः, पर्णमणिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - राजा ओर राजकृत सूक्त
    58

    आ मा॑रुक्षत्पर्णम॒णिर्म॒ह्या अ॑रिष्ट॒तात॑ये। यथा॒हमु॑त्त॒रोऽसा॑न्यर्य॒म्ण उ॒त सं॒विदः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । मा॒ । अ॒रु॒क्ष॒त् । प॒र्ण॒ऽम॒णि: । म॒ह्यै । अ॒रि॒ष्टऽता॑तये । यथा॑ । अ॒हम् । उ॒त्त॒र: । असा॑नि । अ॒र्य॒म्ण: । उ॒त । स॒म्ऽविद॑: ॥५.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ मारुक्षत्पर्णमणिर्मह्या अरिष्टतातये। यथाहमुत्तरोऽसान्यर्यम्ण उत संविदः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । मा । अरुक्षत् । पर्णऽमणि: । मह्यै । अरिष्टऽतातये । यथा । अहम् । उत्तर: । असानि । अर्यम्ण: । उत । सम्ऽविद: ॥५.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 5; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    तेज, बल, आयु, धनादि बढ़ाने का उपदेश।

    पदार्थ

    (पर्णमणिः) पालन करनेवालों में श्रेष्ठ परमेश्वर (मह्यै अरिष्टतातये) बड़ी कुशलता के लिये (मा) मेरे (आ, अरुक्षत्) ऊपर बैठा है। (यथा) जिससे (अहम्) मैं (अर्यम्णः) श्रेष्ठों के मान करनेवाले, (उत) और (संविदः) ज्ञानी पुरुष से (उत्तरः) अधिक श्रेष्ठ (असानि) हो जाऊँ ॥५॥

    भावार्थ

    सर्वोपरि परमेश्वर अन्तर्यामी होकर हमें दुष्कर्मों से बचने की प्रेरणा करता है, जिससे हम श्रेष्ठों में अति श्रेष्ठ और ज्ञानियों में अति ज्ञानी होवें ॥५॥

    टिप्पणी

    ५−(मा)। माम्। (आ, अरुक्षत्)। रुह जन्मप्रादुर्भावयोः-लुङ्। आरूढवान्। उपरि विराजमानोऽभूत्। (पर्णमणिः)। म० १ पालकेषु श्रेष्ठः। (मह्यै)। महत्यै। (अरिष्टतातये)। रिष हिंसायाम्-क्त। रिष्टं हिंसनम्। उपद्रवः। उत्पातः। नञ्समासः। शिवशमरिष्टस्य करे। पा० ४।४।१४३। इति अरिष्ट-करोत्यर्थे तातिल्। प्रत्ययः। लिति। पा० ६।१।१९३। इति प्रत्ययात् पूर्वस्य उदात्तः। रिष्टवर्जनाय। अनुपद्रवाय। क्षेमकरणाय। (यथा)। येन प्रकारेण। (अहम्)। परमेश्वरोपासकः। (उत्तरः)। उत्कृष्टः। (असानि)। अस्तेर्लोट्। भवानि। (अर्यम्णः)। श्वन्नुक्षन्पूषन्प्लीहन् उ० १।१५९। इति अर्य+माङ् माने शब्दे च-कनिन्। अर्यान् श्रेष्ठान् मातीति। श्रेष्ठानां सत्कारकात्। (उत)। अपि च। (संविदः)। सम्+विद ज्ञाने-क्विप्। ज्ञानिनः पुरुषात् ॥

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    विषय

    महौ अरिष्टतातये

    पदार्थ

    १. यह (पर्णमणिः) = पालन व पूरण करनेवाली सोम नामक [वीर्यरूप] मणि (मा आरुक्षत्) = मुझमें आरोहण करें। यह सोम मेरे शरीर में ऊर्ध्व गतिवाला हो। (महौ अरिष्टतातये) = शरीर में ऊर्य गतिवाला होकर यह सोम अहिंसन के महान् विस्तार के लिए हो। अङ्ग-प्रत्यङ्ग का पालन व पूरण करती हुई यह मणि हमें हिंसित न होने दे। २. यह मणि इसप्रकार अहिंसन का विस्तार करे कि (यथा) = जिससे (अहम्) = मैं (अर्यम्ण:) = [अरीन् यच्छति] शत्रुओं को वशीभूत करनेवाले अर्यमा से (उत) = और (संविदः) = सम्यक् ज्ञानवाले पुरुष से (उत्तर:) = अधिक उत्कृष्ट (असानि) = बनूं। सुरक्षित सोम मुझे रोगों से बचाता व बासनारूप शत्रुओं का विजेता व उत्कृष्ट ज्ञानी बनाता है।

    भावार्थ

    सोम मेरे शरीर में सुरक्षित हो। यह मुझे अहिंसित बनानेवाला हो। इसके रक्षण से मैं शत्रुओं को वश में करनेवाला व ज्ञानी बनें।

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    भाषार्थ

    (मह्यै अरिष्टतातये) महा अहिंसा अर्थात् सुरक्षा के विस्तार के लिये, (पर्णगणिः) पालक-सेनापति रत्न१, (मा) मुझ सम्राटों के सम्राट् पर (आ अरुक्षत्) आरूढ़ हुआ है, (यथा) जिस प्रकार कि (अहम्) मैं (अर्यम्णः) अर्यमा से (उत) तथा (संविद:) सम्यक्-वेत्ता अर्थात् सम्यक-ज्ञानी से भी (उत्तरः) उत्कृष्टतर (असानि) हो जाऊँ।

    टिप्पणी

    [आ अरुक्षत्= आ+रूह + क्स: ( अष्टा० ३।१।४५), लुङ्लकार। भूमण्डल सम्राट सेनापति को अपने से भी ऊँचा मानता है, व्योंकि उसके कारण ही भूमण्डल की महारक्षा होती है। अर्यमा है न्यायाधीश, जोकि भुमण्डल में न्याय करता है। सम्राट् कहता है कि मैं सेनापत्ति के कारण अर्यमा-और-सम्यक् ज्ञानियों से भी उत्कृष्टतर हो जाऊँ। ] [१. जातौ जातौ यदुत्कृष्टं तद् रत्मगभिधीयते (आप्टे)।]

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    विषय

    ‘पर्णमणि’ के रूप में प्रधान पुरुषों का वर्णन ।

    भावार्थ

    राजा भी इस बात का विचार रक्खे कि (पर्णमणिः) प्रजा की रक्षा एवं पालन और पोषण करने हारा, शिरोमणि पुरुष अमात्य या मन्त्री के समान होकर (मह्या) बड़े भारी (अरिष्टतातये) कल्याण अर्थात् राष्ट्र को नाश होने से बचाने के लिये (मा आरुक्षत्) मेरे पास, मुझ से भी ऊपर विराजमान हो । (यथा) जिससे (अहम्) मैं (अर्यम्णः) शत्रुत्रों के नियामक, मुझ से अधिक बल वाले पर-राष्ट्र के राजा से (संविदः) तथा समान बल वाले पर-राष्ट्र के राजा से भी (उत्तरः) मैं उत्कृष्ट अर्थात् अधिक बल वाला (असानि) हो जाऊं ।

    टिप्पणी

    (द्वि०) ‘मह्यारिष्ट’ (च०) ‘मनुष्या अधिसंशतः [म्मतः ]’ इति पैप्प० सं० ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः । सोमो देवता । पुरोनुष्टुप् । त्रिष्टुप् । विराड् उरोबृहती । २-७ अनुष्टुभः । अष्टर्चं सूक्तम् ॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    The Makers of Men and Rashtra

    Meaning

    Let this pama jewel, leaf of soma, divine life and enlightenment, be the supreme guide in my mind and spirit for protection against all untoward misfortune so that I may be superior among equals, wise colleagues and leading pioneers around me.

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    Translation

    This Parņa ampoule-drug has ascended to save me from great ill, so that I acquire superiority to the rich people and to the - highly learned ones.

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    Translation

    Let this Parnamanih find highest place of priority in use for great security against troubles so that I may be superior to administrative man and wise person.

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    Translation

    God, the sustainer and Nourisher sits over me for great security from ill; so that I may be exalted above the more powerful, as well as the equally powerful king of another country.

    Footnote

    पर्णमनिःhas been translated as God by Pt. Khem Karan Das Trivedi, as He is theNoblest of the noble. ‘I’ Refers to a king, who is a devotee of God.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५−(मा)। माम्। (आ, अरुक्षत्)। रुह जन्मप्रादुर्भावयोः-लुङ्। आरूढवान्। उपरि विराजमानोऽभूत्। (पर्णमणिः)। म० १ पालकेषु श्रेष्ठः। (मह्यै)। महत्यै। (अरिष्टतातये)। रिष हिंसायाम्-क्त। रिष्टं हिंसनम्। उपद्रवः। उत्पातः। नञ्समासः। शिवशमरिष्टस्य करे। पा० ४।४।१४३। इति अरिष्ट-करोत्यर्थे तातिल्। प्रत्ययः। लिति। पा० ६।१।१९३। इति प्रत्ययात् पूर्वस्य उदात्तः। रिष्टवर्जनाय। अनुपद्रवाय। क्षेमकरणाय। (यथा)। येन प्रकारेण। (अहम्)। परमेश्वरोपासकः। (उत्तरः)। उत्कृष्टः। (असानि)। अस्तेर्लोट्। भवानि। (अर्यम्णः)। श्वन्नुक्षन्पूषन्प्लीहन् उ० १।१५९। इति अर्य+माङ् माने शब्दे च-कनिन्। अर्यान् श्रेष्ठान् मातीति। श्रेष्ठानां सत्कारकात्। (उत)। अपि च। (संविदः)। सम्+विद ज्ञाने-क्विप्। ज्ञानिनः पुरुषात् ॥

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    बंगाली (2)

    भाषार्थ

    (মহ্যৈ অরিষ্টতাতয়ে) মহা অহিংসা অর্থাৎ সুরক্ষার বিস্তারের জন্য, (পর্ণমণিঃ) পালক-সেনাপতি রত্ন১, (মা) আমার [সম্রাটদেরও সম্রাটের] ওপর (আ অরুক্ষৎ) আরূঢ় হয়েছে, (যথা) যাতে (অহম্) আমি (অর্যম্ণঃ) অর্যমা থেকে (উত) এবং (সংবিদঃ) সম্যক্-বেত্তা অর্থাৎ সম্যক্-জ্ঞানী থেকেও (উত্তরঃ) উৎকৃষ্টতর (অসানি) হয়ে যাই।

    टिप्पणी

    [আ অরুক্ষৎ= আ+রুহ্+ক্সঃ (অষ্টা০ ৩।১।৪৫), লুঙ্লকার। ভূমণ্ডলের সম্রাট্ সেনাপতিকে নিজের থেকেও উচ্চ হিসেবে মান্যতা দেয়, কারণ তাঁর কারণেই ভূমণ্ডলের মহারক্ষা হয়। অর্যমা হলো ন্যায়াধীশ, যে ভূমণ্ডলে ন্যায় করে। সম্রাট্ বলে যে, আমি সেনাপতির কারণে অর্যমা-এবং-সম্যক্ জ্ঞানীদের থেকেও উৎকৃষ্টতর হয়ে যাই।] [১. জাতৌ জাতৌ যদুৎকৃষ্টং তদ্ রত্নমভিধীয়তে (আপ্টে)।]

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    मन्त्र विषय

    তেজোবলায়ুর্ধনাদিপুষ্ট্যুপদেশঃ

    भाषार्थ

    (পর্ণমণিঃ) পালনকারীদের মধ্যে শ্রেষ্ঠ পরমেশ্বর (মহ্যৈ অরিষ্টতাতয়ে) মহৎ কুশলতার জন্য (মা) আমার (আ, অরুক্ষৎ) উপর বিরাজমান। (যথা) যাতে (অহম্) আমি (অর্যম্ণঃ) শ্রেষ্ঠদের সম্মানকারী, (উত) এবং (সংবিদঃ) জ্ঞানী পুরুষের থেকে (উত্তরঃ) অধিক শ্রেষ্ঠ (অসানি) হই ॥৫॥

    भावार्थ

    সর্বোপরি পরমেশ্বর অন্তর্যামী হয়ে আমাদের দুষ্কর্ম থেকে রক্ষার প্রেরণা প্রদান করেন যাতে আমরা শ্রেষ্ঠদের মধ্যে অতি শ্রেষ্ঠ এবং জ্ঞানীদের মধ্যে অতি জ্ঞানী হই ॥৫॥

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