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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 10 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 10/ मन्त्र 4
    ऋषिः - अथर्वा देवता - शङ्खमणिः, कृशनः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शङ्खमणि सूक्त
    33

    दि॒वि जा॒तः स॑मुद्र॒जः सि॑न्धु॒तस्पर्याभृ॑तः। स नो॑ हिरण्य॒जाः श॒ङ्ख आ॑युष्प्र॒तर॑णो म॒णिः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दि॒वि । जा॒त: । स॒मु॒द्र॒ऽज: । सि॒न्धु॒त: । परि॑ । आऽभृ॑त: । स: । न॒: । हि॒र॒ण्य॒ऽजा: । श॒ङ्ख: । आ॒यु॒:ऽप्र॒तर॑ण: । म॒णि: ॥१०.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दिवि जातः समुद्रजः सिन्धुतस्पर्याभृतः। स नो हिरण्यजाः शङ्ख आयुष्प्रतरणो मणिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दिवि । जात: । समुद्रऽज: । सिन्धुत: । परि । आऽभृत: । स: । न: । हिरण्यऽजा: । शङ्ख: । आयु:ऽप्रतरण: । मणि: ॥१०.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 10; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

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    पदार्थ

    (दिवि) सूर्यमण्डल में (जातः) प्रकट, (समुद्रजः) अन्तरिक्ष में प्रकट, (सिन्धुतः) पार्थिव समुद्र से (परि) ऊपर (आभृतः) सर्वथा पुष्टि को प्राप्त, (सः) दुःखनाशक, (हिरण्यजाः) सूर्यादि तेजों का उत्पन्न करनेवाला, (शङ्खः) शान्तिकारक, (मणिः) प्रशंसायोग्य परमेश्वर (नः) हमारा (आयुष्प्रतरणः) जीवन बढ़ानेवाला है ॥४॥

    भावार्थ

    परमात्मा सबके ऊपर, नीचे, मध्य में विराजमान होकर अपनी न्यायव्यवस्था से हमारे उत्तम कर्मों के अनुसार हमें उत्तम फल देता है ॥४॥

    टिप्पणी

    ४−(दिवि) द्युलोके। सूर्यमण्डले (जातः) प्रादुर्भूतः। वर्तमानः (समुद्रजः) सप्तम्यां जनेर्डः। पा० ३।२।९७। इति ड प्रत्ययः। अन्तरिक्षे प्रत्यक्षः (सिन्धुतः) पार्थिवजलौघात् (परि) म० १। अधि। उपरि (आभृतः) समन्तात् पुष्टिं प्राप्तः (सः) म० १। दुःखनाशक ईश्वरः (नः) अस्माकम्। अस्मभ्यम् (हिरण्यजाः) म० १। तेजसां जनयिता (शङ्खः) म० १। शान्तिकारकः (आयुष्प्रतरणः) आयुषो जीवनस्य प्रवर्धयिता (मणिः) अ० १।२९।१। रत्नम्। प्रशंसनीयः परमेश्वरः ॥

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    विषय

    आयुष्यतरणो मणि:

    पदार्थ

    १. (दिवि जात:) = ये प्रभु झुलोक में प्रादुर्भूत होते हैं-युलोक में प्रभु की महिमा का प्रकाश होता है, (समुद्रजः) = वे प्रभु इन समुद्रों में प्रादुर्भूत होते हैं-इनमें प्रभु की महिमा का प्रकाश होता है, वे प्रभु (सिन्धुतः परि आभृत:) = नदियों से चारों ओर धारण किये जाते हैं। पूर्व से पश्चिम में, उत्तर से दक्षिण में-इसीप्रकार भिन्न-भिन्न दिशाओं में बहती हुई नदियाँ उस प्रभु की महिमा का गायन करती हैं। २. (स:) = वे प्रभु (नः) = हमारे लिए (हिरण्यजा:) = हितरमणीय ज्ञान-ज्योति को प्रादुर्भूत करनेवाले हैं, (शङ्खः) = ज्ञान-ज्योति के द्वारा इन्द्रियों की शान्ति देनेवाले हैं, शान्त इन्द्रियों के द्वारा (आयुष्प्रतरण:) = आयुष्य का वर्धन करनेवाले हैं, (मणि:) = [मण-to sound] ये प्रभु ही हृदयस्थरूपेण कर्तव्याकर्तव्य का ज्ञान देनेवाले हैं, सदा हृदय-गुहा में धर्म की प्रेरणा देनेवाली वाणी का उच्चारण करनेवाले हैं।

    भावार्थ

    धुलोक, समुद्र, नदियों में सर्वत्र प्रभु की महिमा का प्रकाश है। ये प्रभु ज्ञान देकर हमें शान्त इन्द्रियोंवाला बनाते हैं और इसप्रकार दीर्घजीवन देकर हृदयस्थरूपेण सदा धर्म की प्रेरणा देते रहते हैं।

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    भाषार्थ

    (दिवि) द्युलोक [के जलों] में (जातः) प्रकट हुआ, (समुद्रजः) समुद्र से पैदा हुआ, (सिन्धुत: परि आभृतः) स्पन्दनशील नदियों से आहृत होता है। (शङ्ख) शङ्ख (हिरण्यजाः) हिरण्य से पैदा हुआ (सः) वह (आयुष् प्रतरणः) आयु का बढ़ानेवाला (मणि:) बहुमूल्य पाषाण के सदृश बहुमूल्य है। [हिरण्यजाः=स्वर्ण भस्म-मिथुन शंख भस्म ।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Shankha-mani

    Meaning

    Arisen in the light of the solar region, born of the deep sea, collected from rivers and the seas, may the Shankha shell, of jewel value and golden quality, be the life-saving ark for us to cross the ocean-floods of life.

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    Translation

    Born in the sky, born in the ocean, brought here from the river, may this gold-born jewel, the pearl-shell, be bestower of long life for us.

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    Translation

    The Conch which is born of rainfall, which is sprung up from ocean, which is brought up from the flood of the rivers and which is a manih produced from light, be the lengthener of our life.

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    Translation

    Refulgent like the sun, recipient of happiness from God, the ocean of joy, nourished by God, the ocean of knowledge, existing on the support of Boundless God, the virtuous soul, glowing with knowledge like a pearl, pro longs the days of our life.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४−(दिवि) द्युलोके। सूर्यमण्डले (जातः) प्रादुर्भूतः। वर्तमानः (समुद्रजः) सप्तम्यां जनेर्डः। पा० ३।२।९७। इति ड प्रत्ययः। अन्तरिक्षे प्रत्यक्षः (सिन्धुतः) पार्थिवजलौघात् (परि) म० १। अधि। उपरि (आभृतः) समन्तात् पुष्टिं प्राप्तः (सः) म० १। दुःखनाशक ईश्वरः (नः) अस्माकम्। अस्मभ्यम् (हिरण्यजाः) म० १। तेजसां जनयिता (शङ्खः) म० १। शान्तिकारकः (आयुष्प्रतरणः) आयुषो जीवनस्य प्रवर्धयिता (मणिः) अ० १।२९।१। रत्नम्। प्रशंसनीयः परमेश्वरः ॥

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