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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 20 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 20/ मन्त्र 4
    ऋषिः - मातृनामा देवता - मातृनामौषधिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - पिशाचक्षयण सूक्त
    54

    तां मे॑ सहस्रा॒क्षो दे॒वो दक्षि॑णे॒ हस्त॒ आ द॑धत्। तया॒हं सर्वं॑ पश्यामि॒ यश्च॑ शू॒द्र उ॒तार्यः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ताम् । मे॒ । स॒ह॒स्र॒ऽअ॒क्ष: । दे॒व: । दक्षि॑णे । हस्ते॑ । आ । द॒ध॒त् । तया॑ । अ॒हम् । सर्व॑म् । प॒श्या॒मि॒ । य: । च॒ । शू॒द्र: । उ॒त । आर्य॑: ॥२०.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तां मे सहस्राक्षो देवो दक्षिणे हस्त आ दधत्। तयाहं सर्वं पश्यामि यश्च शूद्र उतार्यः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ताम् । मे । सहस्रऽअक्ष: । देव: । दक्षिणे । हस्ते । आ । दधत् । तया । अहम् । सर्वम् । पश्यामि । य: । च । शूद्र: । उत । आर्य: ॥२०.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 20; मन्त्र » 4
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    हिन्दी (3)

    विषय

    ब्रह्म की उपासना का उपदेश।

    पदार्थ

    (सहस्राक्षः) असंख्य दर्शन शक्तिवाला अथवा सहस्रों व्यवहारोंवाला (देवः) प्रकाशस्वरूप परमात्मा (दक्षिणे) प्रवृद्ध (हस्ते) प्रकाश के निमित्त (ताम्) उपकारशक्ति (मे) मुझ को (आ) सब ओर से (दधत्) दान कर रहा है, (तया) उस [उपकारशक्ति] से (अहम्) मैं (सर्वम्) सबको (पश्यामि) देखता हूँ, (यः च) जो कोई (शूद्रः) शोचनीय शूद्र अर्थात् मूर्ख (उत) अथवा (आर्यः) प्राप्त करने योग्य आर्य अर्थात् विद्वान् [ब्राह्मण, क्षत्रिय वा वैश्य] हो ॥४॥

    भावार्थ

    सर्वव्यवहारकुशल, सर्वद्रष्टा, सर्वनियन्ता जगदीश्वर की दी हुई उपकारशक्ति द्वारा मनुष्य सब मनुष्यों और पदार्थों का यथावत् विवेक करके संसार की उन्नति करे ॥४॥

    टिप्पणी

    ४−(ताम्) तनु विस्तारे, उपकृतौ च-ड। टाप्। विस्तृतिम् उपकृतिम् (मे) मह्यम् (सहस्राक्षः) अ० ४।१६।४। बहुदर्शकः। बहुव्यवहारवान्। असंख्यदर्शनः। (देवः) प्रकाशदानादिगुणयुक्तः परमेश्वरः (दक्षिणे) अ० ४।११।४। समर्थे। प्रवृद्धे (हस्ते) हसिमृग्रिण्०। उ० ३।८६। इति हस विकाशे-तन्। विकाशे। प्रकाशे निमित्ते (आ) समन्तात् (दधत्) ददद् वर्तते (तया) विस्तृत्या (अहम्) उपासकः (सर्वम्) शूद्रमार्यं च (पश्यामि) साक्षात्करोमि निर्णयामि (यः) (च) पक्षान्तरे (शूद्रः) शुचेर्दश्च। उ० २।१९। इति शुच शोके-रक्, चस्य दः, धातोर्दीर्घश्च। शोचनीयः। मूर्खः (उत) विकल्पे (आर्यः) ऋहलोर्ण्यत्। पा० ३।१।१२४। इति ऋ गतौ-ण्यत्। अर्त्तुं प्राप्तुं योग्यः। पूज्यः। श्रेष्ठः विद्वान्। ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यो वा। महाकुलकुलीनार्यसभ्यसज्जनसाधवः-इत्यमरः, १७।३ ॥

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    विषय

    शूद्र व आर्य का विवेचन

    पदार्थ

    १. (सहस्त्रशीर्षा पुरुषः सहस्त्राक्षः सहस्त्रपात्') = इन शब्दों में प्रभु को सहस्राक्ष कहा गया है। इस (सहस्त्राक्ष: देव:) = हजारों आँखोंवाले प्रकाशमय प्रभु ने (ताम्) = उस वेदवाणिरूप माता को (मे) = मेरे (दक्षिणे हस्ते) = दाहिने हाथ में (आदधत्) = स्थापित किया है, इस वेदमाता को मुझे प्रास कराया है। २. तथा उसके द्वारा (अहम्) = मैं (सर्वं पश्यामि) = समाज के सब व्यक्तियों को ठीकरूप में देख पाता हूँ-(य: च शूद्रः) = जो शूद्र है (उत) = और (आर्य:) = श्रेष्ठ है। इस वेदमाता ने 'शूह व आर्य' का ठीक-ठीक लक्षण कर दिया है। उस लक्षण के अनुसार मैं शूद्रों व आर्यों को पृथक् पृथक् करके जान पाता हूँ।

    भावार्थ

    प्रभु सहस्राक्ष हैं। वे वेदवाणी द्वारा हमें भी सब शूद्रों व आयों को पृथक्-पृथक् देखने की शक्ति प्रदान करते हैं।

     

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    भाषार्थ

    (सहस्राक्ष: देवः) हजारों आंखोंवाले देव ने (ताम्) उस औषधि को (मे) मेरे (दक्षिणे१ हस्ते) दाहिने हाथ में (आ दधत्) स्थापित विया है। (तया) उस ओषधि द्वारा (अहम्) मैं [द्रष्टा] (पश्यामि) देखता हूँ, (यः च) जो (शूद्रः) है, (उत) तथा (आर्य:) आर्य है।

    टिप्पणी

    [सहस्राक्षः देव:=परमेश्वर-पुरुषः, यथा "सहस्रशीर्षा पुरुषः 'सहस्राक्षः' 'सहस्रपात्'" (यजुः० पुरुष सूक्त ३१। १)। औषधि द्वारा, सर्व द्रष्टा के सदृश हो जाने से द्रष्टा, [योगी] परमेश्वर-पुरुष के प्रति कृतज्ञता प्रकट करता है। दक्षिणे हस्ते=दक्षिण हस्त द्वारा वृद्धि कार्य सम्पन्न होते हैं, अत: दक्षिण हस्त में औषधि के आधान अर्थात् स्थापन का कथन हुआ है; "दक्ष वृद्धौ शीघ्रार्थे च" (भ्वादिः) मन्त्र में मणिबन्धन का वर्णन नहीं, मणिबन्धन कलाई में होता है, या बाहु में, हाथ में नहीं। इसलिए मन्त्र में आधान का कथन हुआ है, बन्धन का नहीं। शूद्रः, उतार्य:=आर्य और शूद्र के सम्बन्ध में ऋषि दयानन्द के विचार, यथा,-(१) 'उत शूद्र उतार्ये' यह अथर्ववेद का वचन है। आर्यों में पूर्वोक्त प्रकार से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र चार भेद हुए। द्विज विद्वानों का नाम आर्य, और मूर्खों का नाम शूद्र और अनार्य अर्थात् अनाड़ी नाम हुआ (स० प्र० समु० ८)। (२) तथा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य द्विजों का नाम आर्य और शूद्र का नाम अनार्य अर्थात्, अनाड़ी है, (स० प्र०, समु० ८; पृ० ३५२; रामलाल कपूर ट्रस्ट)। (३) जिसको पढ़ने-पढ़ाने से कुछ भी न आवे, वह निर्बुद्धि और मूर्ख होने से शूद्र कहाता है (स० प्र०, समु० ३, पृ० १२६, रामलाल कपूर ट्रस्ट)।] [१. दक्षिणे हस्ते. यथा "अयं गे हस्तो भगवान्" (अथर्व ४।१३।६) यह मेरा दाहिना हाथ भाग्यशाली है, अधिक शक्तिशाली है।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Divine Sight

    Meaning

    That vision, the lord of thousand divine eyes has placed in me, this herb in my right hand for a symbol and efficacy. By that intensified vision. I see all, well and equally, whether one is rich or poor, high or low, master or servant.

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    Translation

    May the thousand-eyed Lord lay that herb on my right hand. With that may equally I see through all, whether a súdra (labourer) or an arya (master; employer)..(See.Rg.X.90.12 for four classes or four vamas of Aryan social structure in the Purusa Súkta of the Yajurveda, Chapter XXXI)

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    Translation

    The wonderful Divinity who possesses the eyes of the world gives this plant in my adroit hand, Let me see through this all be that Shudra or be that Arya.

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    Translation

    God, Who possesses the power of a thousand eyes, bath placed keenness of perception in my right hand, wherewith I look alike on a sudra or an Arya.

    Footnote

    In my right hand: At my disposal. Sudra: An ignorant man. Arya: A learned person.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४−(ताम्) तनु विस्तारे, उपकृतौ च-ड। टाप्। विस्तृतिम् उपकृतिम् (मे) मह्यम् (सहस्राक्षः) अ० ४।१६।४। बहुदर्शकः। बहुव्यवहारवान्। असंख्यदर्शनः। (देवः) प्रकाशदानादिगुणयुक्तः परमेश्वरः (दक्षिणे) अ० ४।११।४। समर्थे। प्रवृद्धे (हस्ते) हसिमृग्रिण्०। उ० ३।८६। इति हस विकाशे-तन्। विकाशे। प्रकाशे निमित्ते (आ) समन्तात् (दधत्) ददद् वर्तते (तया) विस्तृत्या (अहम्) उपासकः (सर्वम्) शूद्रमार्यं च (पश्यामि) साक्षात्करोमि निर्णयामि (यः) (च) पक्षान्तरे (शूद्रः) शुचेर्दश्च। उ० २।१९। इति शुच शोके-रक्, चस्य दः, धातोर्दीर्घश्च। शोचनीयः। मूर्खः (उत) विकल्पे (आर्यः) ऋहलोर्ण्यत्। पा० ३।१।१२४। इति ऋ गतौ-ण्यत्। अर्त्तुं प्राप्तुं योग्यः। पूज्यः। श्रेष्ठः विद्वान्। ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यो वा। महाकुलकुलीनार्यसभ्यसज्जनसाधवः-इत्यमरः, १७।३ ॥

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