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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 29 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 29/ मन्त्र 2
    ऋषिः - मृगारः देवता - मित्रावरुणौ छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - पापमोचन सूक्त
    63

    सचे॑तसौ॒ द्रुह्व॑णो॒ यौ नु॒देथे॒ प्र स॒त्यावा॑न॒मव॑थो॒ भरे॑षु। यौ गच्छ॑थो नृ॒चक्ष॑सौ ब॒भ्रुणा॑ सु॒तं तौ नो॑ मुञ्चत॒मंह॑सः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सऽचे॑तसौ । द्रुह्व॑ण: । यौ । नु॒देथे॒ इति॑ । प्र । स॒त्यऽवा॑नम् । अव॑थ: । भरे॑षु । यौ । गच्छ॑थ: । नृ॒ऽचक्ष॑सौ । ब॒भ्रुणा॑ । सु॒तम् । तौ । न॒: । मु॒ञ्च॒त॒म् । अंह॑स: ॥२९.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सचेतसौ द्रुह्वणो यौ नुदेथे प्र सत्यावानमवथो भरेषु। यौ गच्छथो नृचक्षसौ बभ्रुणा सुतं तौ नो मुञ्चतमंहसः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सऽचेतसौ । द्रुह्वण: । यौ । नुदेथे इति । प्र । सत्यऽवानम् । अवथ: । भरेषु । यौ । गच्छथ: । नृऽचक्षसौ । बभ्रुणा । सुतम् । तौ । न: । मुञ्चतम् । अंहस: ॥२९.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 29; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    पुरुषार्थ करने का उपदेश।

    पदार्थ

    (सचेतसौ) हे समान ज्ञान करानेवाले ! (यौ) जो तुम दोनों (द्रुह्वणः) उपद्रवियों को (नुदेथे) निकाल देते हो और (सत्यावानम्) सत्यवान् पुरुष को (भरेषु) संग्रामें में (प्र) अच्छे प्रकार (अवथः) बचाते हो। (नृचक्षसौ) मनुष्यों के देखनेवाले (यौ) जो तुम दोनों (बभ्रुणा) पोषण के साथ (सुतम्) उत्पन्न जगत् वा पराक्रमी वा पुत्रसमान सेवक पुरुष को (गच्छथः) प्राप्त होते हो। (तौ) वे तुम दोनों (नः) हमें (अंहसः) कष्ट से (मुञ्चतम्) छुड़ावो ॥—२॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य श्वास-श्वास और पल-पल पर दृष्टि रख कर वैदिक कर्म करते रहते हैं, वे सत्यप्रतिज्ञ पुरुष बल पराक्रम प्राप्त करके सदा प्रसन्न रहते हैं ॥—२॥

    टिप्पणी

    २−पूर्वार्द्धो व्याख्यातः-म० १ (यौ) मित्रावरुणौ (गच्छथः) प्राप्नुथः (नृचक्षसौ) अ० १।७।५। हे नृणां चष्टारौ द्रष्टारौ सर्वस्यापि मानुषव्यापारस्य साक्षिणौ (बभ्रुणा) कुर्भ्रश्च। उ० १।२२। इति डुभृञ् धारणपोषणयोः-कु, द्वित्वं च। भरणेन पोषणेन (सुतम्) षु प्रसवैश्वर्ययोः-क्तः। उत्पन्नं जगत् ऐश्वर्यवन्तम्। पराक्रमिणम्। पुत्रवत्सेवकं वा। अन्यत् पूर्ववत् ॥—

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    विषय

    'नवृक्षसौ' मित्रावरुणौ

    पदार्थ

    १. (सचेतसौ) = हमारे जीवनों को चेतना से युक्त करनेवाले हे मित्र और वरुण! (यौ) = जो आप (ब्रहण:) = द्रोह करनेवालों को (नुदेथे) = हमसे दूर करते हो, वे आप (सत्यावानम्) = सत्ययुक्त पुरुष को (भरेषु) = संग्रामों में (प्र+अवथ:) = प्रकर्षेण रक्षित करते हो। २. (यौ) = जो आप दोनों (बभ्रूणा) = धारणात्मक कर्मों को करनेवाले पुरुष से किये गये (सुतम्) = यज्ञ को (गच्छथ:) = जाते हो (तौ) = वे (नृचक्षसौ) = [नृणां द्रष्टारौ] मनुष्यों के देखनेवाले-उनके हित का ध्यान करनेवाले आप (न:) = हमें (अंहसः) = पाप से (मुञ्चतम्) = मुक्त करो।

    भावार्थ

    लेह व निद्वेषता का उपासक बभू-धारणकर्ता बनता है। यह धारणात्मक कर्मों को ही करता है। इसका जीवन द्रोहरहित व सत्य से युक्त होता है। यह सभी का ध्यान करता है। ये स्नेह व निर्देषता के भाव हमें पाप-मुक्त करें।

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    भाषार्थ

    (यौ) जो दो तुम (सचेतसौ) सचेत अर्थात् सावधान रहनेवाले [राष्ट्रकार्यों में], अथवा एक चित्तवाले अर्थात् परस्पर मिलकर, (द्रुह्वण:) राष्ट्रदोही को (नुदेथे) राष्ट्र से धकेल देते हो, निकाल देते हो, और (भरेषु) युद्धों में, या भरण-पोषण में, अथवा परस्पर के विवादों में (सत्यावानम्) सत्याचारी की (प्र अवथ:) प्रकर्षरूप में रक्षा करते हो; तथा (नृचक्षसौ) राष्ट्र के प्रजाजनों पर सदा दृष्टि रखते हो, और (बभ्रुणा) राष्ट्र का भरण पोषण करनेवाले के द्वारा (सुतम्) अभिषुत सोमयज्ञ में, अथवा नवोत्पादित उद्योग में (गच्छथः) जाते हो, शामिल होते हो, (तौ) वे तुम दोनों (न:) हम सबको (अंहसः) पापकर्म से (मुञ्चतम्) मुक्त करो, या छुड़ाओं।

    टिप्पणी

    [अंहसः मुञ्चतम्= पाप करने से मुक्त करो।]

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    विषय

    पापमोचन की प्रार्थना।

    भावार्थ

    आप दोनों (स-चेतसौ) समान चित्त होकर, समान रूप से ज्ञानवान् होकर (यौ) जो (द्रुह्वणः) सत्य और राज्य शासन के द्रोहकारी पुरुषों को (नुदेथे) ताड़ना करते हो और (भरेषु) संग्रामों यज्ञों और विवादस्थलों, व्यवहारों में (सत्य-वानं प्र अवथः) सत्यवादी पुरुष की रक्षा करते हो और (नृ-चक्षसौ) सब मनुष्यों को समान रूप से देखते हुए (यौ) जो आप दोनों (बभ्रुणा) पालन पोषण करने हारे राष्ट्र के पोषक राजा के द्वारा (सुतं) बनाये हुए राष्ट्र या पुत्र समान प्रजा के पास (गच्छथः) आते हो। अथवा (बभ्रुणा सुतं गच्छथः) बभ्रु= पुष्ट प्रमाण से सुत = निष्कर्ष किये, अन्तिम निर्णय पर पहुंचते हो। वे दोनों आप (नः अंहसः मुञ्चतम्) हम राष्ट्रवासियों को पाप कर्म से मुक्त करो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मृगार ऋषिः। सप्तम मृगारसूक्तम्। नाना देवताः। १-६ त्रिष्टुभः। ७ शक्वरीगर्भा जगती। सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Freedom from Sin

    Meaning

    O Mitra and Varuna, equal in mind and thought, who drive out mutually conflictive forces and protect the powers of truth in the human struggle for higher life, who, watching humanity, go to yajna in unison in support of the progress of life, pray save us from sin and suffering.

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    Translation

    You two, who, with one mind, drive away the treacherous; who carefully protect the truthful in struggles; who, the overseers of men, go to the sacrifice full of nourishment, as such, may both of you free us from sin.

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    Translation

    These two are Mitra and Varuna which are the object of Knowledge, which react harmfully to them who break the rules of hygiene and health, which protect them who follow the law of nature in life’s turmoils, which are the sources of man’s seeing and which are present in every one with their protective powers. May these two become the sources of our safety from the grief and troubles.

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    Translation

    Ye, who vigorously drive away internal foes, Ye, who protect the truthful in intellectual discussions; Ye, who, men's guardians, come to the subjects nourished by the king as son, deliver us, twain, from grief and trouble.

    Footnote

    Ye: Prana and Apana, or Day and Night.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−पूर्वार्द्धो व्याख्यातः-म० १ (यौ) मित्रावरुणौ (गच्छथः) प्राप्नुथः (नृचक्षसौ) अ० १।७।५। हे नृणां चष्टारौ द्रष्टारौ सर्वस्यापि मानुषव्यापारस्य साक्षिणौ (बभ्रुणा) कुर्भ्रश्च। उ० १।२२। इति डुभृञ् धारणपोषणयोः-कु, द्वित्वं च। भरणेन पोषणेन (सुतम्) षु प्रसवैश्वर्ययोः-क्तः। उत्पन्नं जगत् ऐश्वर्यवन्तम्। पराक्रमिणम्। पुत्रवत्सेवकं वा। अन्यत् पूर्ववत् ॥—

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