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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 29 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 29/ मन्त्र 4
    ऋषिः - मृगारः देवता - मित्रावरुणौ छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - पापमोचन सूक्त
    48

    यौ श्या॒वाश्व॒मव॑थो वध्र्य॒श्वं मित्रा॑वरुणा पुरुमी॒ढमत्त्रि॑म्। यौ वि॑म॒दमव॑थः स॒प्तव॑ध्रिं॒ तौ नो॑ मुञ्चत॒मंह॑सः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यौ । श्या॒वऽअ॑श्वम् । अव॑थ: । व॒ध्रि॒ऽअ॒श्वम् । मित्रा॑वरुणा । पु॒रु॒ऽमी॒ढम् । अत्त्रि॑म् । यौ । वि॒ऽम॒दम् । अव॑थ: । स॒प्तऽव॑ध्रिम् । तौ । न॒: । मु॒ञ्च॒त॒म् । अंह॑स: ॥२९.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यौ श्यावाश्वमवथो वध्र्यश्वं मित्रावरुणा पुरुमीढमत्त्रिम्। यौ विमदमवथः सप्तवध्रिं तौ नो मुञ्चतमंहसः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यौ । श्यावऽअश्वम् । अवथ: । वध्रिऽअश्वम् । मित्रावरुणा । पुरुऽमीढम् । अत्त्रिम् । यौ । विऽमदम् । अवथ: । सप्तऽवध्रिम् । तौ । न: । मुञ्चतम् । अंहस: ॥२९.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 29; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    पुरुषार्थ करने का उपदेश।

    पदार्थ

    (यौ) जो (मित्रावरुणा) मित्र और वरुण तुम दोनों (श्यावाश्वम्) ज्ञान में व्याप्ति रखनेवाले को, (वध्र्यश्वम्) मित भोजन करनेवाले को, (पुरुमीढम्) बड़े धनी को और (अत्रिम्) नित्य उद्योगी को (अवथः) बचाते हो। (यौ) जो तुम दोनों (विमदम्) मदरहित वा अदीन पुरुष को और (सप्तवध्रिम्) [पञ्च ज्ञानेन्द्रिय मन और बुद्धि इन] सात को संयम में रखनेवाले पुरुष को (अवथः) बचाते हो। (तौ) वे तुम दोनों (नः) हमें (अंहसः) कष्ट से (मुञ्चतम्) छुड़ावो ॥—४॥

    भावार्थ

    मनुष्य समय और प्राण के संयम से ज्ञानपूर्वक, शुद्ध आहार, विहार करके निरभिमानी और अदीन अर्थात् उत्साही, स्वस्थ और धनी होके सदा आनन्दित रहते हैं ॥—४॥

    टिप्पणी

    ४−(यौ) युवां मित्रावरुणौ (श्यावाश्वम्) कॄगॄशॄदॄभ्यो वः। उ० १।१५५। इति श्यैङ् गतौ-व। इति श्यावः। अशूप्रुषिलटि०। १।१५१। इति अशू व्याप्तौ, अश भोजने वा-क्वन्। इति अश्वः। श्यावे ज्ञाने अश्वो व्याप्तिर्यस्य तं ज्ञानव्याप्तिकम् (अवथः) रक्षथः (वध्र्यश्वम्) अदिशदिभूशुभिभ्यः क्रिन्। उ० ४।६५। इति बध बन्धने भ्वा०, वा बध संयमने चुरा०-क्रिन्। बध्रौ संयमने अश्वोऽशनं भोजनं यस्य तं मितभोजिनम् (मित्रावरुणा) म० १। अहोरात्रौ। प्राणापानौ (पुरुमीढम्) मिह सेचने-क्त। मीढं धननाम-निघ० २।१२। बहुधनयुक्तम् (अत्रिम्) म० –३। निरन्तरगतिशीलम् (विमदम्) मदी हर्षग्लेपनयोः, गर्वे च-अच्। ग्लेपनं दैन्यम्। विगतो मदोऽहङ्कारो दैन्यं वा यस्य तम्। निरहङ्कारम्। अदीनम् (सप्तवध्रिम्) बध संयमने-क्रिन् पूर्ववत्। पञ्चज्ञानेन्द्रियाणि मनो बुद्धिश्च सप्त वध्रौ संयमने यस्य तम्। अतिजितेन्द्रियम्। अन्यत् पूर्ववत् ॥—

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    विषय

    श्यावाश्व से ससवधि तक

    पदार्थ

    १. (मित्रावरुणा) = स्नेह व निर्द्वषता के भावो! (यौ) = जो आप (श्यावाश्वम् अवधः) = [श्यै गती] गतिशील इन्द्रियाश्वोंवाले-क्रियाशील पुरुष का रक्षण करते हैं और (वध्यश्वम्) = व्रतों की रज्जु से इन्द्रियाश्वों को बाँधनेवाले-जितेन्द्रिय पुरुष का रक्षण करते हो [वधी रस्सी], (पुरुमीढम्) = शक्ति का अपने में खूब ही सेचन करनेवाले का [मिह सेचने] रक्षण करते हो, और (अत्रिम) = 'काम क्रोध-लोभ' से अतीत का रक्षण करते हो, (यो) = जो आप (विमदम्) = मदशून्य-गवरहित गौरवान्वित पुरुष का अवथः रक्षण करते हो, (सप्तवृधिम्) = सात रजुओंवाले-अपने-आपको सात मर्यादाओं के बन्धनों में बाँधनेवाले को रक्षित करते हो [सप्त मर्यादः कवयस्तता:०], (तौ) = वे आप मित्र और वरुण (न:) = हमें (अंहसः) = पाप से (मुञ्चतम्) = मुक्त करो।

    भावार्थ

    स्नेह व निद्रेषता के भाव हमें श्यावाश्व, पुरुमीढ, अत्रि, विमद व सतवनि' बनाते हैं। वे हमें पाप-मुक्त करते हैं।

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    भाषार्थ

    (मित्रावरुणा) हे मित्र! और हे वरुण! (यौ) जो तुम दो (श्यावाश्वम्) श्यावाश्व को,(वध्र्यश्वम्) क्लीवाश्व को, (पुरुमीढम्) बहुधनी को, (अत्त्रिम्) अत्रि को [मन्त्र ३] (अवथः) सुरक्षित करते हो; (यौ) जो तुम दो (विमदम्) मादकद्रव्यों के सेवन से रहित को, (सप्तवध्रिम्) सातों शक्तियों से क्लीव की (अवथ:) सुरक्षित करते हो, (तौ) वे तुम दो (न:) हम सबको (अंहसः) पाप से (मुन्चतम्) मुस्त करो, छुड़ाओ।

    टिप्पणी

    [श्यावाश्वम्= श्यामल अथवा शीघ्रगतिक अश्वोंवाला सैन्यवर्ग। श्यामल अर्थात् नातिकृष्ण वर्णमाला, अथवा "श्यैङ् गतौ" (अदादिः), अतिवेगी अश्योंवाला सैन्यवर्ग। वध्रि= क्लीब+अश्व [इन्द्रियाँ] यथा "इन्द्रियाणि हयानाहु:" (कठ० १।३।४)। पुरुमीढम्+ पुरु अर्थात् अधिक, बहुत+ "मीढुम् धननाम" (निघं० २।१०)। अथवा पुरुम् ईडते इति; बहुधनी परमेश्वर का स्तोता। विमदम्= विगतमदम्। सप्तवध्रिम्= साम शक्तियों से क्लीब। सात शक्तियाँ, यथा "कर्णाविमौ नासिके चक्षणी मुखम; सप्त खानि शीर्षणि" (अर्थव० १०।२।६ )। वध्रि होना पाप का परिणाम है, अंहः का परिणाम है। 'श्यावाश्व' आदि की रक्षा के साथ-साथ, क्लीबों१ की रक्षा करना भी राष्ट्र का कर्त्तव्य है-यह दर्शाया है।] [१. क्लीब: (यजु:० ३०।२२)। क्लीब प्राजापत्य हैं, प्रजापति द्वारा रक्षणीय हैं।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Freedom from Sin

    Meaning

    O Mitra and Varuna, who protect and promote Shyavashva, man of dynamic thought and habit, Vadhryashva, man of sense control, Purumidha, man of prosperity, Atri, man of threefold freedom, Vimada, man free from pride, and Saptavadhri, man of controlled mind and senses, pray save us from sin and suffering.

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    Translation

    You two, O Mitra and Varuna, who protect syavásya (one with restless horses), vadhryasva (one with calm and still horses), purumidha (one with great riches), and atri (seeker of progress by travelling widely); who protect vimada (free from arrogance and saptavadhri (one with seven horses); as such, may both of you free us from sin.

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    Translation

    These are Mitra and Varuna which protect the soul who is the master of cognitive organs; which protect the soul who is the controlling power of our the active organs; which save the vitality of the body which has many powers; which save the power of hunger and thirst; which preserve the mind that has no indolence in its activity, and which protect the brain that has seven limbs in its range. (two eyes, two ears, two nostrils and mouth. May these two become the sources of our safety from the grief and troubles.

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    Translation

    Mitra and Varuna, who help a talented person, a man abstemious in diet, a wealthy person, a vigilant worker, a man free from pride, a man who controls the five organs of cognition, mind and intellect, deliver us, Ye twain, from grief and trouble!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४−(यौ) युवां मित्रावरुणौ (श्यावाश्वम्) कॄगॄशॄदॄभ्यो वः। उ० १।१५५। इति श्यैङ् गतौ-व। इति श्यावः। अशूप्रुषिलटि०। १।१५१। इति अशू व्याप्तौ, अश भोजने वा-क्वन्। इति अश्वः। श्यावे ज्ञाने अश्वो व्याप्तिर्यस्य तं ज्ञानव्याप्तिकम् (अवथः) रक्षथः (वध्र्यश्वम्) अदिशदिभूशुभिभ्यः क्रिन्। उ० ४।६५। इति बध बन्धने भ्वा०, वा बध संयमने चुरा०-क्रिन्। बध्रौ संयमने अश्वोऽशनं भोजनं यस्य तं मितभोजिनम् (मित्रावरुणा) म० १। अहोरात्रौ। प्राणापानौ (पुरुमीढम्) मिह सेचने-क्त। मीढं धननाम-निघ० २।१२। बहुधनयुक्तम् (अत्रिम्) म० –३। निरन्तरगतिशीलम् (विमदम्) मदी हर्षग्लेपनयोः, गर्वे च-अच्। ग्लेपनं दैन्यम्। विगतो मदोऽहङ्कारो दैन्यं वा यस्य तम्। निरहङ्कारम्। अदीनम् (सप्तवध्रिम्) बध संयमने-क्रिन् पूर्ववत्। पञ्चज्ञानेन्द्रियाणि मनो बुद्धिश्च सप्त वध्रौ संयमने यस्य तम्। अतिजितेन्द्रियम्। अन्यत् पूर्ववत् ॥—

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