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अथर्ववेद के काण्ड - 5 के सूक्त 14 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 14/ मन्त्र 5
    ऋषिः - शुक्रः देवता - कृत्यापरिहरणम् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - कृत्यापरिहरण सूक्त
    55

    कृ॒त्याः स॑न्तु कृत्या॒कृते॑ श॒पथः॑ शपथीय॒ते। सु॒खो रथ॑ इव वर्ततां कृ॒त्या कृ॑त्या॒कृतं॒ पुनः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    कृ॒त्या: । स॒न्तु॒ । कृ॒त्या॒ऽकृते॑ । श॒पथ॑: । श॒प॒थि॒ऽय॒ते । सु॒ख: । रथ॑:ऽइव । व॒र्त॒ता॒म् । कृ॒त्या । कृ॒त्या॒ऽकृत॑म् । पुन॑: ॥१४.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कृत्याः सन्तु कृत्याकृते शपथः शपथीयते। सुखो रथ इव वर्ततां कृत्या कृत्याकृतं पुनः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    कृत्या: । सन्तु । कृत्याऽकृते । शपथ: । शपथिऽयते । सुख: । रथ:ऽइव । वर्तताम् । कृत्या । कृत्याऽकृतम् । पुन: ॥१४.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 14; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    शत्रु के विनाश का उपदेश।

    पदार्थ

    (कृत्याः) शत्रुनाशक सेनायें (कृत्याकृते) हिंसाकारी के लिये (सन्तु) होवें, और (शपथः) दुर्वचन (शपथीयते) दुर्वचन बोलनेवाले पुरुष के से आचरणवाले को [होवे], (कृत्या) शत्रुनाशक सेना (कृत्याकृतम्) हिंसाकारी पर (पुनः) अवश्य (वर्तताम्) घूमे, (इव) जैसे (सुखः) अच्छा बना हुआ (रथः) रथ [घूमता है] ॥५॥

    भावार्थ

    मनुष्य दोषों के त्यागने का शीघ्र उपाय करे ॥५॥

    टिप्पणी

    ५−(कृत्याः) शत्रुनाशिकाः सेनाः (सन्तु) भवन्तु (कृत्याकृते) हिंसाकारिणे (शपथः) दुर्वचनम् (शपथीयते) कर्तुः क्यङ् सलोपश्च। पा० ३।१।११। इति शपथिन्−क्यङ्, छान्दसं परस्मैपदम्। शपथिवदाचारणं कुर्वते (सुखः) सु+खनु विदारणे−ड। सुखं कस्मात् सु हितं खेभ्यः खं पुनः खनतेः−निरु०। ३।१३। सुख−अर्शआद्यच्। सुनिर्मितः (रथः) यानम् (इव) यथा (वर्तताम्) वर्तनेन गच्छतु (कृत्या) शत्रुनाशिका सेना (कृत्याकृतम्) हिंसाकारिणम् (पुनः) अवश्यम् ॥

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    विषय

    सुखो रथः

    पदार्थ

    १. (कृत्या:) = मारक साधन (कृत्याकृते सन्तु) = हिंसक के लिए ही हों-ये कृत्याएँ उन हिंसकों पर ही लौट जाएँ। (शपथः शपथीयते) = गलियाँ गाली देनेवाले के पास लौट जाएँ। २. हम न इन कृत्याओं से प्रभावित हों और न ही इन शपथों से अपने मानस-सन्तुलन को खोएँ। (सुखः रथः इव) = [सु+ख] उत्तम इन्द्रियाश्वोंवाला यह शरीर-रथ की भाँति (वर्तताम्) = हो। यह मार्ग पर निरन्तर आगे बढ़े। (कृत्या) = हिंसन की क्रिया (पुन:) = फिर (कृत्याकृतम्) = इस छेदन क्रिया के करनेवाले को प्राप्त हो।

    भावार्थ

    हम दुर्जनों की कृत्याओं व शपथों से प्रभावित न होते हुए उत्तम इन्द्रियाश्वोंवाले शरीर-रथ से निरन्तर आगे बढ़ें ।

     

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    भाषार्थ

    (कृत्याः) हिंस्रसेनाएँ (कृत्याकृते) हिंस्रसेनाओं के संग्रहकर्ता के लिए (सन्तु) हो [उसे ही विनष्ट करें] जैसेकि (शपथः) शपथ (शपथीयते) शपथ लेनेवाले के लिए ही [हानिकारक] होता है। (कृत्या) शत्रु की हिंस्रसेना (सुखः रथः इव) सुखपूर्वक चलनेवाले रथ के सदृश, सुखपूर्वक, (कृत्याकृतम्) हिंस्रसेनाओं के संग्रह करनेवाले [राजा के प्रति] (पुनः) फिर (वर्तताम्) चली जाए, लौट जाए ।

    टिप्पणी

    [मन्त्र में 'कृत्याः' पद सेनाओं के नानात्व का सूचक है। जैसेकि मन्त्र ८ में 'पृतनाः' पद पृतनाओं अर्थात् सेनाओं के नानात्व का सूचक है।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Krtyapratiharanam

    Meaning

    Let the deeds be for the doers: good for the good, evil for the evil. Likewise, let inprecations be for the imprecators. Like a perfectly designed comfortable chariot, let evil deeds come back to the evil doer.

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    Translation

    May the fatal contrivances be for him, who makes fatal contrivances; may the cause be for the curser. Like a pleasure-giving chariot, may the fatal contrivance go back to its maker.

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    Translation

    Let the troubles caused by artificial means fall back on him who plans and causes them, let the curse go back to him who originates it and let the calamity caused by artificial device, return to its originator like the chariot which always moves.

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    Translation

    Let him, who behaves violently, be punished adequately. Let the public revile him, who reviles others. Just as a car rolls peacefully in an open space, so let the criminal, through fear behave, properly. Let him be punished, if he again commits mischief.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५−(कृत्याः) शत्रुनाशिकाः सेनाः (सन्तु) भवन्तु (कृत्याकृते) हिंसाकारिणे (शपथः) दुर्वचनम् (शपथीयते) कर्तुः क्यङ् सलोपश्च। पा० ३।१।११। इति शपथिन्−क्यङ्, छान्दसं परस्मैपदम्। शपथिवदाचारणं कुर्वते (सुखः) सु+खनु विदारणे−ड। सुखं कस्मात् सु हितं खेभ्यः खं पुनः खनतेः−निरु०। ३।१३। सुख−अर्शआद्यच्। सुनिर्मितः (रथः) यानम् (इव) यथा (वर्तताम्) वर्तनेन गच्छतु (कृत्या) शत्रुनाशिका सेना (कृत्याकृतम्) हिंसाकारिणम् (पुनः) अवश्यम् ॥

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