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अथर्ववेद के काण्ड - 5 के सूक्त 18 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 18/ मन्त्र 5
    ऋषिः - मयोभूः देवता - ब्रह्मगवी छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त
    46

    य ए॑नं॒ हन्ति॑ मृ॒दुं मन्य॑मानो देवपी॒युर्धन॑कामो॒ न चि॒त्तात्। सं तस्येन्द्रो॒ हृद॑ये॒ऽग्निमि॑न्ध उ॒भे ए॑नं द्विष्टो॒ नभ॑सी॒ चर॑न्तम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । ए॒न॒म् । हन्ति॑ । मृ॒दुम् । मन्य॑मान: । दे॒व॒ऽपी॒यु: । धन॑ऽकाम:। न । चि॒त्तात् । सम् । तस्य॑ । इन्द्र॑: । हृद॑ये । अ॒ग्निम् । इ॒न्धे॒ । उ॒भे इति॑ । ए॒न॒म् । द्वि॒ष्ट॒: । नभ॑सी॒ इति॑ । चर॑न्तम् ॥१८.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    य एनं हन्ति मृदुं मन्यमानो देवपीयुर्धनकामो न चित्तात्। सं तस्येन्द्रो हृदयेऽग्निमिन्ध उभे एनं द्विष्टो नभसी चरन्तम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । एनम् । हन्ति । मृदुम् । मन्यमान: । देवऽपीयु: । धनऽकाम:। न । चित्तात् । सम् । तस्य । इन्द्र: । हृदये । अग्निम् । इन्धे । उभे इति । एनम् । द्विष्ट: । नभसी इति । चरन्तम् ॥१८.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 18; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    वेदविद्या की रक्षा का उपदेश।

    पदार्थ

    (यः) जो (देवपीयुः) विद्वानों का हिंसक, (धनकामः) धन चाहनेवाला पुरुष (न चित्तात्) विना विचारे (एनम्) इस [ब्राह्मण] को (मृदुम्) कोमल (मन्यमानः) मानता हुआ (हन्ति) नाश करता है, (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् पुरुष [ब्राह्मण वा परमेश्वर] (तस्य) उसके (हृदये) हृदय में (अग्निम्) अग्नि (सम् इन्धे) जला देता है, (उभे) दोनों (नभसी) सूर्य और पृथिवी लोक, (चरन्तम्) विचरते हुए (एनम्) इस पुरुष से (द्विष्टः) द्वेष करते हैं ॥५॥

    भावार्थ

    आप्त पुरुषों के विरोधी मनुष्य का संसार भर में कोई साथी नहीं होता ॥५॥

    टिप्पणी

    ५−(यः) नास्तिकः (एनम्) आस्तिकं ब्राह्मणम् (हन्ति) नाशयति (मृदुम्) प्रथिम्रदिभ्रस्जां०। उ० १।२८। इति म्रद मर्दने−कु, सम्प्रसारणं च। कोमलम् (मन्यमानः) जानन् सन् (देवपीयुः) अ० ४।३५।७। देवानां विदुषां हिंसकः (धनकामः) धनेच्छुः (न चित्तात्) अज्ञानात् (सम्) सम्यक् (तस्य) ब्रह्महिंसकस्य (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् ब्राह्मणः परमेश्वरो वा (हृदये) मनसि (अग्निम्) दाहम् (इन्धे) दीपयति (उभे) द्वे (एनम्) ब्रह्मद्विषम् (द्विष्टः) द्रुह्यतः (नभसी) नहेर्दिवि भश्च। उ० ४।२११। इति णह बन्धने−असुन्, हस्य भः। द्यावापृथिव्यौ−निघ० ३।३०। (चरन्तम्) विचरन्तम् ॥

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    विषय

    'धनकामः देवपीयुः' राजा

    पदार्थ

    १. (यः) = जो राजा (बनकाम:) = केवल धन की कामनावाला हो जाता है और (देवपीयु:) = देवों को भी हिंसित करनेवाला होता है, वह (एनम्) = इस ब्राह्मण को (मृदुं मन्यमान:) = कोमल [निर्बल] मानता हुआ (हन्ति) = इसे विनष्ट करता है। यदि यह राजा (न चित्तात्) = नहीं समझता और अपने अत्याचार में लगा रहता है तो (इन्द्रः) = वे सर्वशक्तिमान् प्रभु (तस्य हृदये) = उसके हृदय में (अग्नि समिन्धे) = अग्नि को समिद्ध करते हैं-यह शोकाग्नि से सन्तप्त होता रहता है। २. (उभे नभसी) = दोनों द्यावापृथिवी (चरन्तं एनम्) = [अत्याचरन्तम्] अत्याचार करते हुए इस राजा को (द्विष्टः) = प्रीति नहीं करते, अर्थात् इसके राष्ट्र में आधिदैविक आपत्तियों उपस्थित होती है सूर्य अधिक तपने लगता है, प्रथिवी प्रभूत अन्न उत्पन्न नहीं करती। ज्ञान के अभाव में लोगों की वृत्तियों के वैषयिक हो जाने से इन विपत्तियों का आना स्वाभाविक ही है। ऐसे राष्ट्रों में अतिवृष्टि आदि हुआ ही करती हैं।

    भावार्थ

    यदि राजा ब्राह्मण को मृदु मानकर उसपर अत्याचार करता है और उसके ज्ञान प्रसार के कार्य पर प्रतिबन्ध लगता है तो अन्त में उसे शोकाग्नि में जलना पड़ता है। उसके राष्ट्र में आधिदैविक आपत्तियों उपस्थित होती हैं।

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    भाषार्थ

    (न चित्तात्) अशान से, (यः) जो [राष्ट्र का राजा], (देवपीयुः) ब्राह्मण-देवों की हिंसा करनेवाला तथा (धनकामः) धन की कामनावाला हुआ, (एनम् ) इस ब्राह्मण को (मृदुम्, मन्यमानः ) मृदु मानता हुआ, (हन्ति) इसका हनन करता है, (तस्य) उसके (हृदये) हृदय में (इन्द्रः) सम्राट् (अग्निम्) शोकाग्नि (सम् इन्धे) प्रदीप्त कर देता है, तथा (चरन्तम्) विचरते हुए (एनम्) इसके साथ (उभे नभसी) दोनों द्यूलोक-पृथिवीलोक (द्विष्टः) द्वेष करते हैं, दोनों लोकों के निवासी द्वेष करते हैं।

    टिप्पणी

    [ब्रह्मज्ञ और वेदज्ञ ब्राह्मण, राष्ट्रपति को, राष्ट्र की धन सम्पत्ति अपनाने से रोकता है, इसपर राष्ट्रपति, ब्राह्मण की हत्या करने पर उतारू हो जाता है, तब सम्राट् अर्थात् साम्राज्याधिपति उसे दण्डित कर, उसके हृदय को शोकाग्नि से सन्तप्त कर देता है। राष्ट्रपति तथा सम्राट् यथा "इन्द्रश्च सम्राड् वरुणश्च राजा" (यजु:० ८।३७) इन्द्र= सम्राट् और राजा है एक राष्ट्र का अधिपति ।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Brahma Gavi

    Meaning

    He that violates the Brahmana, suppresses his freedom of speech and kills his Brahma Cow, believing that he is soft and brittle as a piece of clay, is a reviler of divinities, lost in greed for material wealth, having lost his sense and mind. Omnipotent Indra sets his heart and soul on fire as he moves around hated of both heaven and earth.

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    Translation

    Whoever a divider of the enlightened ones smites him (the intellectual) thoughtlessly, thinking him to be feeble, with a desire to grab money, the resplendent Lord makes fire burn in his heart and both heaven and earth, hate him as he moves about.

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    Translation

    Whosoever sacrilegious and made after wealth smites him without discrimination considering him a weakling, Indra, the mighty electricity sets fire ablage in his heart and the twain of earth and heaven loath him in his action.

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    Translation

    Whoever, inimical to the learned, coveting wealth, foolishly smites a Brahman, deeming him a weakling-God sets fire alight within his bosom. He who acts thus is loathed by the denizens of both Earth and Sun.

    Footnote

    The inhabitants of the Earth and Sun hate such a ma, just as there are living beings on the Earth, so are they on the Sun.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५−(यः) नास्तिकः (एनम्) आस्तिकं ब्राह्मणम् (हन्ति) नाशयति (मृदुम्) प्रथिम्रदिभ्रस्जां०। उ० १।२८। इति म्रद मर्दने−कु, सम्प्रसारणं च। कोमलम् (मन्यमानः) जानन् सन् (देवपीयुः) अ० ४।३५।७। देवानां विदुषां हिंसकः (धनकामः) धनेच्छुः (न चित्तात्) अज्ञानात् (सम्) सम्यक् (तस्य) ब्रह्महिंसकस्य (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् ब्राह्मणः परमेश्वरो वा (हृदये) मनसि (अग्निम्) दाहम् (इन्धे) दीपयति (उभे) द्वे (एनम्) ब्रह्मद्विषम् (द्विष्टः) द्रुह्यतः (नभसी) नहेर्दिवि भश्च। उ० ४।२११। इति णह बन्धने−असुन्, हस्य भः। द्यावापृथिव्यौ−निघ० ३।३०। (चरन्तम्) विचरन्तम् ॥

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