अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 22/ मन्त्र 3
ऋषिः - भृग्वङ्गिराः
देवता - तक्मनाशनः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - तक्मनाशन सूक्त
58
यः प॑रु॒षः पा॑रुषे॒योऽव॑ध्वं॒स इ॑वारु॒णः। त॒क्मानं॑ विश्वधावीर्याध॒राञ्चं॒ परा॑ सुवा ॥
स्वर सहित पद पाठय: । प॒रु॒ष: । पा॒रु॒षे॒य: । अ॒व॒ध्वं॒स:ऽइ॑व । अ॒रु॒ण: । त॒क्मान॑म् । वि॒श्व॒धा॒ऽवी॒र्य॒ । अ॒ध॒राञ्च॑म् । परा॑ । सु॒व॒ ॥२२.३॥
स्वर रहित मन्त्र
यः परुषः पारुषेयोऽवध्वंस इवारुणः। तक्मानं विश्वधावीर्याधराञ्चं परा सुवा ॥
स्वर रहित पद पाठय: । परुष: । पारुषेय: । अवध्वंस:ऽइव । अरुण: । तक्मानम् । विश्वधाऽवीर्य । अधराञ्चम् । परा । सुव ॥२२.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
रोग नाश करने का उपदेश।
पदार्थ
(यः) जो (परुषः) निठुर (पारुषेयः) निठुर से उत्पन्न हुए (अरुणः) रक्तवर्ण (अवध्वंसः इव) नीचे गिरनेवाले राक्षसादि के समान है। (विश्वधावीर्य) हे सब प्रकार सामर्थ्यवाले वैद्य ! (तक्मानम्) उस दुःखित जीवन करनेवाले ज्वर को (अधराञ्चम्) नीचे देश में (परा सुव) दूर गिरादे ॥३॥
भावार्थ
मन्त्र २ के समान ॥३॥
टिप्पणी
३−(यः) तक्मा (परुषः) पॄनहिकलिभ्य उषच्। उ० ४।७५। इति पॄ पालनपूरणयोः−उषच्। निष्ठुरः (पारुषेयः) वुञ्छण्कठजिलसेनिरढञ्०। पा० ४।२।८०। इति पुरुष−ढञ्। परुषाज् जातः (अवध्वंसः) ध्वंसु अधःपतने−अच्। अधःपतनशीलः। राक्षसादिः (अरुणः) रक्तवर्णः (तक्मानम्) ज्वरम् (विश्वधावीर्य) हे सर्वप्रकारसमर्थ (अधराञ्चम्) म० २। निम्नदेशम् (परा) पृथक् (सुव) प्रेरय ॥
विषय
विश्वधा वीर्य
पदार्थ
१. हे (विश्वधावीर्य) = सब ओर वीर्य को धारण करनेवाली ओषधे! तू (तक्मानम्) = चर को (अधराञ्चं परासुव) = नीचे करके दूर भगा दे, विरेचन के द्वारा नीचे की ओर ले जाकर नष्ट कर दे। २. उस ज्वर को दूर कर दे (यः) = जो (पारुषेयः) = शरीर के पर्व-पर्व में बसा हुआ है, (परुषः) = भयंकर है, (अरुण: इव) = अग्नि की भाँति अवध्वंस: देह को [जलाकर] नष्ट करनेवाला है।
भावार्थ
विश्वधावीर्य ओषधि हमारे पर्व-पर्व में बसे भयंकर रोग को विरेचित करके नष्ट कर देती है।
भाषार्थ
(य:) जो (परुषः) कठोर और (पारुषेयः) कठोर शरीर से उत्पन्न, तथा (अवध्वंसः) पश्चिमदिशा में नीचे पतित होते हुए (इव) सूर्य के सदृश (अरुणः) लाल है (तक्मानम्) उस तक्मा ज्वर को, (विश्वधावीर्य) हे सब प्रकार के वीर्योवाली औषध! या यज्ञियाग्नि! (अधराञ्चम्) उतरे हुए को (परासुव) तू दूर कर दे।
टिप्पणी
[ज्वर के साथ जब पसीना नहीं आता तब वह परुष और पारुषेय होता है। अवध्वंस:=अव +ध्वंसु अवस्रंसने, गतौ च (भ्वादिः)। सूर्य जब अस्त होता है तो लाल होता है। परुष-तक्मा मुख को लाल कर देता है, अत्युष्णता के कारण। पसीना आने पर शरीर ठण्डा हो जाता है, लाल नहीं रहता।]
विषय
ज्वर का निदान और चिकित्सा।
भावार्थ
हे (विश्वधा-वीर्यं) सब प्रकार के वीर्य को धारण करने वाले वैद्य ! अथवा औषधे ! तू (तक्मानं) ज्वर को (अधराञ्चं) नीचे (परासुव) करके दूर भगादे। (यः) जो ज्वर (परूषः) पर्व २ शरीर के पोरु २ में बसा हुआ है। (पारुषेयः) या पर्व २ में बसे कारणों से उत्पन्न होता है (अरुण इव) और अरुण = अग्नि के समान (अव-ध्वंसः) देह को जला कर नष्ट करने वाला है। उसको (विश्वधावीर्या अधराञ्चं परासुव) बहुत प्रकार के बल या शक्तियों वाली ओषधि से नष्ट करो।
टिप्पणी
‘विश्वधावीर्या ओषधि’—‘विश्वा’ है, इस नाम से सूर्य और अतिविषा (अतीस-Aconite Nap.) दोनों का ग्रहण होता है।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भृग्वङ्गिरसो ऋषयः। तक्मनाशनो देवता। १, २ त्रिष्टुभौ। (१ भुरिक्) ५ विराट् पथ्याबृहती। चतुर्दशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Cure of Fever
Meaning
The fever which affects every joint and arises from weakness of joints gives redness as fire, the skin sprinkled, as if, with red spots. O Vishvadhavirya herb, bring it down and remove it far off from the patient.
Translation
May you, O potent in all aspects, send away downwards the fever, which is violent, affecting the paw and is ruddy like dust.
Translation
That fever which is dry and the creation of dryness and is red light dust be thrown away by the administration of the Vishvadhavirya, the Kusha plant.
Translation
O all powerful physician! send downward, far away, the fever, which is virulent, born out of violation of the laws of nature, and consumes the body like fire.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−(यः) तक्मा (परुषः) पॄनहिकलिभ्य उषच्। उ० ४।७५। इति पॄ पालनपूरणयोः−उषच्। निष्ठुरः (पारुषेयः) वुञ्छण्कठजिलसेनिरढञ्०। पा० ४।२।८०। इति पुरुष−ढञ्। परुषाज् जातः (अवध्वंसः) ध्वंसु अधःपतने−अच्। अधःपतनशीलः। राक्षसादिः (अरुणः) रक्तवर्णः (तक्मानम्) ज्वरम् (विश्वधावीर्य) हे सर्वप्रकारसमर्थ (अधराञ्चम्) म० २। निम्नदेशम् (परा) पृथक् (सुव) प्रेरय ॥
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