अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 22/ मन्त्र 4
ऋषिः - भृग्वङ्गिराः
देवता - तक्मनाशनः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - तक्मनाशन सूक्त
63
अ॑ध॒राञ्चं॒ प्र हि॑णो॒मि नमः॑ कृ॒त्वा त॒क्मने॑। श॑कम्भ॒रस्य॑ मुष्टि॒हा पुन॑रेतु महावृ॒षान् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ध॒राञ्च॑म् । प्र । हि॒नो॒मि॒ । नम॑: । कृ॒त्वा । त॒क्मने॑ । श॒क॒म्ऽभ॒रस्य॑ । मु॒ष्टि॒ऽहा । पुन॑: । ए॒तु॒ । म॒हा॒ऽवृ॒षान् ॥२२.४॥
स्वर रहित मन्त्र
अधराञ्चं प्र हिणोमि नमः कृत्वा तक्मने। शकम्भरस्य मुष्टिहा पुनरेतु महावृषान् ॥
स्वर रहित पद पाठअधराञ्चम् । प्र । हिनोमि । नम: । कृत्वा । तक्मने । शकम्ऽभरस्य । मुष्टिऽहा । पुन: । एतु । महाऽवृषान् ॥२२.४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
रोग नाश करने का उपदेश।
पदार्थ
(तक्मने) दुःखित जीवन करनेवाले ज्वर को (नमः) नमस्कार (कृत्वा) करके (अधराञ्चम्) नीचे देश को (प्र हिनोमि) मैं भेजता हूँ। (शकम्भरस्य) शक्ति धारण करनेवाले पुरुष का (मुष्टिहा) मुष्टि से मारनेवाला [ज्वर] (महावृषान्) बड़ी वृष्टिवाले देशों को (पुनः) लौटकर (एतु) चला जावे ॥४॥
भावार्थ
नीचे, बहुत जलवाले स्थानों में ज्वर आदि बलवान् रोग प्रायः होते हैं, मनुष्य सावधान रहें ॥४॥
टिप्पणी
४−(अधराञ्चम्) म० २। निम्नदेशम् (प्र हिणोमि) हि गतौ, अन्तर्गतण्यर्थः। प्रेरयामि (नमः) नमस्कारम् (कृत्वा) विधाय (तक्मने) कृच्छ्रजीवनकराय ज्वराय (शकम्भरस्य) शक्लृ शक्तौ−अच्। संज्ञायां भृतॄवृजि०। पा० ३।२।४६। इति शक+भृञ् धारणपोषणयोः−खच्, मुम्। शक्तिधारकस्य। बलवतः पुरुषस्य (मुष्टिहा) मुष्टिना हन्ता ज्वरः (पुनः) परावृत्य (एतु) गच्छतु (महावृषान्) वृषु सेचने−क। महावृष्टियुक्तान् देशान् ॥
विषय
शकम्भरस्य मुष्टिहा
पदार्थ
१. इस (तक्मने) = ज्वर के लिए (नमः कृत्वा) = नमस्कार करके (अधराञ्चं प्रहिणोमि) = इसे नीचे की ओर गतिवाला करके दूर भेज देता हूँ। २. (शकम्भरस्य) = अपने में शक्ति का भरण करनेवाले का भी-शक्तिशाली का भी (मुष्टिहा) = [मुष स्तेये] शक्तिशोषण के द्वारा विनाश करनेवाला यह ज्वर (पुन:) = फिर (महावृषान् एतु) = बहुत अधिक वृष्टिवाले देशों में जाए।
भावार्थ
ज्वर को दूर से ही नमस्कार करना ठीक है। इसे विरेचक ओषधि द्वारा निम्नगतिवाला करना चाहिए। यह शक्तिशाली को भी निस्तेज करके नष्ट कर देता है।
अतिवृष्टिवाले देशों में यह फिर-फिर उत्पन्न हो जाता है।
भाषार्थ
(तक्मने) जीवन की कृच्छ्र करनेवाले ज्वर के [ विनाशार्थ] (नम: कृत्वा) [यज्ञियाग्नि में] अन्नाहुतियाँ देकर, (अधराञ्चम्) नीचे हो जानेवाले, ठतर जानेवाले ज्वर को ( प्र हिणोमि) मैं दूर करता हूँ। (शकम्भरस्य) शक्ति धारण करनेवाले, ज्वर की भी (मुष्टिहा) ऐसे हत्या कर देता हूँ, जैसेकि मुष्टि द्वारा क्षुद्रजन्तु की हत्या की जाती है। (पुन:) तदनन्तर (महावृषान्) महावर्षावाले प्रदेशों को (एतु) यह तक्मा प्राप्त हो।
टिप्पणी
[तक्मने=तुमुन्नर्थ में चतुर्थी, तक्मानं विनाशयितुम् (अष्टा० २.३.१४)। नमः अन्ननाम (निघं० २.७)। शकम्भरस्य=शकम् (शक्तिम्) +भृ (धारणे, पोषणे च)। महावृषान्=महानवर्षावाले प्रदेशों में मलेरिया की वृद्धि होती है। प्र हिणोमि=प्र+हि, गतौ (स्वादिः)]
विषय
ज्वर का निदान और चिकित्सा।
भावार्थ
मैं वैद्य (तक्मने) ज्वर को (नमः कृत्वा) नमाने, नीचे कर देने और दबा देने वाली ओषधि से दबा कर (अधराञ्चं प्र हिणोमि) नीचे ही उतारता हूं। (शकंभरस्य) शक्ति को धारण करने वाले बलवान् पुरुष को भी (मुष्टि-हा) मानों मुक्कों से मारने वाला यह ज्वर (महा-वृषान्) बड़े २ वीर्यवान् पुरुषों को भी (पुनः एतु) बार बार आ जाता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भृग्वङ्गिरसो ऋषयः। तक्मनाशनो देवता। १, २ त्रिष्टुभौ। (१ भुरिक्) ५ विराट् पथ्याबृहती। चतुर्दशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Cure of Fever
Meaning
O fever, having done the treatment with proper medicines, I reduce your intensity to normal temperature. Beating and pounding with fist force even the strong ones, fever affects even the very strong persons and spreads often in the areas of heavy rains.
Translation
Having bowed in reverence to the fever, I send it downwards. May this boxer killer of vegetable growers go again to the regions of much rain-fall.
Translation
I, the physician throw away the fever by giving a heavy jolt,. It is found in the places of heavy rain and is fatal to him who is used to work with cow-dung.
Translation
I lower the fever through medicine and drive it away. It is suppressed by vegetarians, and visits the marshy places again and again.
Footnote
‘I’ refers to a physician.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४−(अधराञ्चम्) म० २। निम्नदेशम् (प्र हिणोमि) हि गतौ, अन्तर्गतण्यर्थः। प्रेरयामि (नमः) नमस्कारम् (कृत्वा) विधाय (तक्मने) कृच्छ्रजीवनकराय ज्वराय (शकम्भरस्य) शक्लृ शक्तौ−अच्। संज्ञायां भृतॄवृजि०। पा० ३।२।४६। इति शक+भृञ् धारणपोषणयोः−खच्, मुम्। शक्तिधारकस्य। बलवतः पुरुषस्य (मुष्टिहा) मुष्टिना हन्ता ज्वरः (पुनः) परावृत्य (एतु) गच्छतु (महावृषान्) वृषु सेचने−क। महावृष्टियुक्तान् देशान् ॥
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