अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 29/ मन्त्र 3
ऋषिः - चातनः
देवता - जातवेदाः
छन्दः - त्रिपदा विराड्गायत्री
सूक्तम् - रक्षोघ्न सूक्त
72
यथा॒ सो अ॒स्य प॑रि॒धिष्पता॑ति॒ तथा॒ तद॑ग्ने कृणु जातवेदः। विश्वे॑भिर्दे॒वैः स॒ह सं॑विदा॒नः ॥
स्वर सहित पद पाठयथा॑ । स: । अ॒स्य । प॒रि॒ऽधि: । पता॑ति । तथा॑ । तत् । अ॒ग्ने॒ । कृ॒णु॒ । जा॒त॒ऽवे॒द॒: । विश्वे॑भि: । दे॒वै: । स॒ह । स॒म्ऽवि॒दा॒न: ॥२९.३॥
स्वर रहित मन्त्र
यथा सो अस्य परिधिष्पताति तथा तदग्ने कृणु जातवेदः। विश्वेभिर्देवैः सह संविदानः ॥
स्वर रहित पद पाठयथा । स: । अस्य । परिऽधि: । पताति । तथा । तत् । अग्ने । कृणु । जातऽवेद: । विश्वेभि: । देवै: । सह । सम्ऽविदान: ॥२९.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
शत्रुओं और रोगों के नाश का उपदेश।
पदार्थ
(यथा) जिस प्रकार से (अस्य) उस [शत्रु] का (सः परिधिः) वह परकोटा (पताति) गिर पड़े, (तत्) सो (जातवेदः) हे विद्या में प्रसिद्ध (अग्ने) विद्वान् पुरुष ! (विश्वेभिः) सब (देवैः सह) उत्तम गुणों के साथ (संविदानः) मिलता हुआ तू (तथा) वैसा (कृणु) कर ॥३॥
भावार्थ
राजा शत्रु से प्रजा की रक्षा करने का उपाय सदा करता रहे ॥३॥
टिप्पणी
३−गतम्। म० २ ॥
विषय
रोग-परिधि-पतन
पदार्थ
१. हे (जातवेदः अग्ने) = सर्वज्ञ अग्रणी प्रभो! (विश्वेभिः देवैः सह संविदान:) = माता-पिता, आचार्य व अतिथि आदि सब देवों के साथ ऐकमत्य [मेलवाले].होकर (तत् तथा कृणु) = उसे नैमा कीजिा (यशा) = जिससे कि (अस्य) = इस रोग का (सः परिधिः) = वह घेरा (पताति) = गिर जाता है, गिर जाए।
भावार्थ
प्रभु सब देवों के साथ ऐसी व्यवस्था करें कि हमें घेरनेवाले रोगों का घेरा टूट जाए।
भाषार्थ
जिस प्रकार इस पिशाच की परिधि टूटकर गिर जाए, उस प्रकार हे अग्नि ! तू उसे कर दे, हे जातप्रज्ञ ! सब देवों के साथ ऐकमत्य को प्राप्त हुआ तु।
विषय
रोगों का नाश करके आरोग्य होने का उपाय।
भावार्थ
(यथा) जिस प्रकार भी हो (अस्य) इस शत्रु की भी (परिधिः) हदबन्दी, पर कोट (पताति) टूट कर गिर पड़े, हे (जातवेदः अग्ने) हे विद्वन् सेनापते ! (विश्वेभिः देवैः) समस्त विजयशील पुरुषों से (सं-विदानः) सहमति करके (तत्) वह कार्य (तथा कृणु) उसी प्रकार ही कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
चातन ऋषिः। जातवेदा मन्त्रोक्ताश्व देवताः। १२, ४, ६-११ त्रिष्टुमः। ३ त्रिपदा विराड नाम गायत्री। ५ पुरोतिजगती विराड्जगती। १२-१५ अनुष्टुप् (१२ भुरिक्। १४, चतुष्पदा पराबृहती ककुम्मती)। पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Destruction of Germs and Insects
Meaning
Agni, Jataveda, in order that the disease with its cause be eliminated to the bounds of its prevalence, do that what you decide but in consultation with all the brilliant scholars and specialists in the field and with the joint consolidated knowledge of all the divine herbs and sanatives you know.
Translation
That its protective enclosure falls down, may you manage it so, O biological fire, knower of all the born organisms, being accordant with all the bounties of Nature.
Translation
O man, full of effulgence of knowledge ! you unanimous with other learned men work in such a way as this effective range of the disease become narrow.
Translation
O learned person, in consultation with other physicians, arrange so, that the stronghold of the germs of this disease may fall and fail!
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−गतम्। म० २ ॥
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