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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 118 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 118/ मन्त्र 2
    ऋषिः - कौशिक देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - आनृण्य सूक्त
    33

    उग्रं॑पश्ये॒ राष्ट्र॑भृ॒त्किल्बि॑षाणि॒ यद॒क्षवृ॑त्त॒मनु॑ दत्तं न ए॒तत्। ऋ॒णान्नो॒ नर्णमेर्त्स॑मानो य॒मस्य॑ लो॒के अधि॑रज्जु॒राय॑त् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उग्रं॑पश्ये॒ इत्युग्र॑म्ऽपश्ये । राष्ट्र॑ऽभृत् । किल्बि॑षाणि । यत् । अ॒क्षऽवृ॑त्तम् । अनु॑ । द॒त्त॒म् । न॒: । ए॒तत् । ऋ॒णात् । न॒: । न । ऋ॒णम् । एर्त्स॑मान: । य॒मस्य॑ । लो॒के । अधि॑ऽरज्जु: । आ । अ॒य॒त् ॥११८.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उग्रंपश्ये राष्ट्रभृत्किल्बिषाणि यदक्षवृत्तमनु दत्तं न एतत्। ऋणान्नो नर्णमेर्त्समानो यमस्य लोके अधिरज्जुरायत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उग्रंपश्ये इत्युग्रम्ऽपश्ये । राष्ट्रऽभृत् । किल्बिषाणि । यत् । अक्षऽवृत्तम् । अनु । दत्तम् । न: । एतत् । ऋणात् । न: । न । ऋणम् । एर्त्समान: । यमस्य । लोके । अधिऽरज्जु: । आ । अयत् ॥११८.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 118; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    ऋण से छूटने का उपदेश।

    पदार्थ

    (उग्रंपश्ये) हे तीव्र दृष्टिवाली ! (राष्ट्रभृत्) हे राज्य को पालनेवाली ! [सूर्य और पृथिवी] (किल्बिषाणि) हमारे अनेक पाप हैं। (यत्) जो (अक्षवृत्तम्) इन्द्रियों का सदाचार है, (एतत्) वह (नः) हमें (अनु) अनुग्रह करके (दत्तम्) तुम दोनों दान करो। (ऋणात् ऋणम्) ऋण के पीछे ऋण को (एर्त्समानः) लगातार बढ़ाने की इच्छा करता हुआ, (अधिरज्जुः) रसरी लिये हुए [उधार देनेवाला] (यमस्य) न्यायाधीश के (लोके) समाज में (नः) हमको (आ) आकर (न)(अयत्) प्राप्त हो ॥२॥

    भावार्थ

    मनुष्य पापों को छोड़कर सदा सदाचार करें, जिस से उन्हें संसार में लज्जित न होना पड़े, जिस प्रकार ऋणदाता व्याज पर व्याज बढ़ाकर अपने ऋणी को राजद्वार में लज्जित करता है ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(उग्रंपश्ये) म० १। हे तीव्रदर्शने (राष्ट्रभृत्) हे राज्यस्य पोषयित्रि (किल्बिषाणि) पापानि (यत्) (अक्षवृत्तम्) इन्द्रियाणां सच्चरित्रम् (अनु) अनुग्रहेण (दत्तम्) प्रयच्छतम् (नः) अस्मभ्यम् (एतत्) अक्षवृत्तम् (ऋणात्) ऋणकारणात् (ऋणम्) (नः) अस्मान् (न) निषेधे (एर्त्समानः) आ+ऋधु वृद्धौ−सनि चानश्। आप्ज्ञप्यृधामीत्। पा० ७।४।५५। अच ईकारः। ताच्छील्यवयो०। पा० ३।२।१२९। इति चानश्। आने मुक्। पा० ७।२।८२। इति मुक्। समन्ताद् वर्धयितुमिच्छन् (यमस्य) न्यायाधीशस्य (लोके) समाजे (अधिरज्जुः) गृहीतपाशः (आ) आगत्य (अयत्) अयेत प्राप्नुयात् ॥

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    विषय

    अस्मान् अधिरजः न आयत्

    पदार्थ

    १. हे (उग्रंपश्ये) = उत्कृष्ट ज्ञान को प्राप्त करानेवाली ज्ञानेन्द्रियो! हे (राष्ट्रभृत्) = इस शरीर-राष्ट्र का भरण करनेवाली कर्मेन्द्रियो! जो हमारे द्वारा किये गये (किल्बिषाणि) = पाप हैं, (यत्) = और जो (अक्षवृत्तम्) = इन्द्रियों से पाप निष्पन्न हो गया है, (न:) = हमारे (एतत्) = इस ऋण ले-लेने आदि सब पापों को (अनुदत्तम्) = आनुकूल्येण निवारित करो। ऋणादि को लौटाकर आगे से हम इस मार्ग पर न जाने का निश्चय करें। २. (ऋणात्) = [भावप्रधानो निर्देश:-ऋणित्वात्] ऋणी होने के कारण (न:) = हमें (यमस्य लोके) = पुण्य-पापानुसार दण्ड देनेवाले सर्वनियन्ता प्रभु के इस लोक में (ऋणम् एत्स॑मानः) = ऋण को सदा बढ़ाने की इच्छा करता हुआ यह उत्तमर्ण [ऋध+सन] (अधिरजाः) = हमारे बन्धन के लिए पाशहस्त होकर न (आयत्) = प्राप्त न हो। हम इसके ऋण को न बढ़ने दें और पिछले ऋण को लौटाकर पाप-निवृत्त हो जाएँ।

    भावार्थ

    इन्द्रियों के विषय-प्रवण होने पर मनुष्य ऋण आदि लेने को बाध्य होता है। उन्हें न चुकाने पर बन्धन में पड़ता है। प्रभुकृपा से हम इस मार्ग से दूर रहें।

     

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    भाषार्थ

    (उग्रंपश्ये) उग्र अर्थात् ऋतपूर्वक सत्यपूर्वक देखने वाली, (राष्ट्रभृत्= राष्ट्रभृतौ) तथा राष्ट्र का भरण-पोषण करने वाली [अप्सरसौ (मन्त्र १)], (किल्बिषाणि) ऋण सम्बन्धी पापों के (अनु) अनुसार जो पाप हमने किये हैं, और (अक्षवृत्तम्, अनु) न्यायालय सम्बन्धी वर्ताव के अनुसार (यत्) जो ऋण सम्बन्धी पाप हम ने किया है, (नः) हमारे (एतत्) इस पापसम्बन्धी ऋण को (दत्तम्) तुम दोनों उत्तमर्ण को दे दो। (नः) हमारी (ऋणात् एर्त्समानः) ऋणराशि से आक्षिप्त हुई अर्थात् स्वतः प्राप्त तथा शोभा से युक्त (ऋणम्) सूद को चाहता हुआ उत्तमर्ण, (यमस्य) नियन्ता अर्थात् न्यायाधीश के (लोके) न्यायालय में (अधिरज्जुः) हाथ में रज्जु अर्थात् रस्सी ले कर (न आयत्) न आए।

    टिप्पणी

    [प्रक्षः= Legal, Procedure, a law suit (आप्टे)। एर्त्समानः = एच्छमानः (सायण)। अथवा ईर क्षेपे (चुरादिः) + तीस भूष अलङ्कारे (चुरादिः) + शप् + मुक् [आने मुक् (अष्ट ० ७।२।८२) + शानच्] क्षेपे= आक्षिप्त१ हुई। उग्रंपश्ये= प्रथमाविभक्ति द्विवचनान्त। राष्ट्रभृत्= राष्ट्रभृतौ। दोनों अप्सराएं फैसले सच्चाई पूर्वक करती हैं, अतः राष्ट्र का भरण-पोषण करती है।] [१. उत्तमर्ण द्वारा दिये गये ऋण और उस पर के सूद को उत्तमर्ण को वापिस कर देना, यह राजकीय नियम तथा सामाजिक प्रथा द्वारा स्वतः सिद्ध है। ]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Freedom from Debt

    Meaning

    O relentless watchful sustainers of the Rashtra, pray bail us out of our trespasses and put us back on course lest the agent of life and law in this world pursue us with the rope to exact the debt money rising in compound measure.

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    Translation

    O fiercely-seeing and O sustainer of kingdom, what sins we commit with our sense-organs, may you two forgive us for that. May the creditor, demanding repayment of his debt from the debtor, not come to us, with a rope in the realm of the controller (death).

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    Translation

    Let these two electricities be the source of our freedom from the wrong if we desire to commit them through gambling. The debtor whome we owe the debt increasing his debt from further debt, with his fetters, may not bring to the court of the king.

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    Translation

    May the vigilant C.I.D. and the Police, the protector of the state from the guilty, punish us for the crime of gambling and other crimes, and save us from running into debt through gambling. The creditor failing to realize the debt, will get fetters put on the debtor and take him to a court of law.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(उग्रंपश्ये) म० १। हे तीव्रदर्शने (राष्ट्रभृत्) हे राज्यस्य पोषयित्रि (किल्बिषाणि) पापानि (यत्) (अक्षवृत्तम्) इन्द्रियाणां सच्चरित्रम् (अनु) अनुग्रहेण (दत्तम्) प्रयच्छतम् (नः) अस्मभ्यम् (एतत्) अक्षवृत्तम् (ऋणात्) ऋणकारणात् (ऋणम्) (नः) अस्मान् (न) निषेधे (एर्त्समानः) आ+ऋधु वृद्धौ−सनि चानश्। आप्ज्ञप्यृधामीत्। पा० ७।४।५५। अच ईकारः। ताच्छील्यवयो०। पा० ३।२।१२९। इति चानश्। आने मुक्। पा० ७।२।८२। इति मुक्। समन्ताद् वर्धयितुमिच्छन् (यमस्य) न्यायाधीशस्य (लोके) समाजे (अधिरज्जुः) गृहीतपाशः (आ) आगत्य (अयत्) अयेत प्राप्नुयात् ॥

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