Loading...
अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 64 के मन्त्र
मन्त्र चुनें
  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 64/ मन्त्र 2
    ऋषिः - अथर्वा देवता - विश्वे देवाः, मनः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सांमनस्य सूक्त
    108

    स॑मा॒नो मन्त्रः॒ समि॑तिः समा॒नी स॑मा॒नं व्र॒तं स॒ह चि॒त्तमे॑षाम्। स॑मा॒नेन॑ वो ह॒विषा॑ जुहोमि समा॒नं चेतो॑ अभि॒संवि॑शध्वम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒मा॒न: । मन्त्र॑: । सम्ऽइ॑ति: । स॒मा॒नी । स॒मा॒नम् । व्र॒तम् । स॒ह । चि॒त्तम् । ए॒षा॒म् । स॒मा॒नेन॑ । व॒: । ह॒विषा॑ । जु॒हो॒मि॒ । स॒मा॒नम् । चे॑त: । अ॒भि॒ऽसंवि॑शध्वम् ॥६४.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    समानो मन्त्रः समितिः समानी समानं व्रतं सह चित्तमेषाम्। समानेन वो हविषा जुहोमि समानं चेतो अभिसंविशध्वम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    समान: । मन्त्र: । सम्ऽइति: । समानी । समानम् । व्रतम् । सह । चित्तम् । एषाम् । समानेन । व: । हविषा । जुहोमि । समानम् । चेत: । अभिऽसंविशध्वम् ॥६४.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 64; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    संगति के लाभ का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे मनुष्यो तुम्हारा] (मन्त्रः) मन्त्र, विचार (समानः) एकसा, (समितिः) समिति [सामाजिक व्यवस्था] (समानी) एकसी, (व्रतम्) धर्म का आचरण (समानम्) एकसा और (एषाम्) इन तुम सब का (चित्तम्) चित्त [सब पदार्थों का ज्ञान] (सह) मिला हुआ होवे। (समानेन) एक से (हविषा) ग्राह्य धर्म के साथ (वः) तुम को (जुहोमि) मैं ग्रहण करता हूँ, (समानम्) एक से (चेतः) चिन्तन [भूत, भविष्यत् के अनुभव के स्मरण] में (अभिसंविशध्वम्) तुम भली-भाँति प्रवेश करो ॥२॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को योग्य है कि सदा वेदमार्ग पर चलकर एकचित्त होकर धर्मसभा, विद्यासभा, राजसभा आदि बनाकर बुद्धि, बल, और पराक्रम आदि उत्तम गुण बढ़ावें ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(समानः) सम्+अन प्राणने−घञ्। तुल्यः। एकरूपः (मन्त्रः) मत्रि गुप्तभाषणे−घञ्। सत्यासत्यविवेकः (समितिः) सम्+इण्−क्तिन्। संगतिः। सभा (समानी) एकरसा (समानम्) अविरुद्धम् (व्रतम्) अ० २।३०।२। वृञ्−अतच्। वरणीयं धर्माचरणम् (सह) संगतम् (चित्तम्) सर्वपदार्थविषयि ज्ञानम् (एषाम्) एतेषां युष्माकम् (समानेन) एकरूपेण (वः) युष्मान् (हविषा) ग्राह्येण धर्मणा (जुहोमि) हु दानादानादनेषु। आददे। स्वीकरोमि (समानम्) साधारणम् (चेतः) पूर्वापरानुभूतं स्मरणात्मकं चिन्तनम् (अभिसंविशध्वम्) अभितः प्रविशत। आत्मनि धारयत ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    मन्त्र व चित्त की समानता

    पदार्थ

    १. (मन्त्रः) = तुम्हारा कार्य-अकार्य का पर्यालोचन (समान:) = एकरूप हो। उस मन्त्र के अनुसार (समितिः) = संगति-कार्यों में प्रवृति समानी-एकरूप हो, तुम्हारे (व्रतं समानम्) = कर्म एकरूप हों। (एषाम्) = इन सबका (चित्तम्) = अन्त:करण भी (सह) = एकविध हो-मिला हुआ हो। २. (समानेन) = साधारण-ऐक्य के जनक (हविषा) = दानपूर्वक अदन की वृति से (व:) = तुम्हें (जुहोमि) = [हावयामि] यज्ञशील बनाता हूँ। वस्तुत यह यज्ञशीलता-स्वार्थ से ऊपर उठने की वृत्ति ही हमें परस्पर मेलवाला करती है। इस हवि के द्वारा (समानं चेतः) = एकरूप चित्त को (अभि संविशध्वम्) = आभिमुख्येन प्रास होओ।

    भावार्थ

    हमारा मन्त्र, समिति, व्रत व चित्त समान हो। हम यज्ञशील होते हुए समान चित्त को प्राप्त हों। हम सब अभिन्न हृदय बन पाएँ।

     

    इस भाष्य को एडिट करें

    भाषार्थ

    (मन्त्रः१) तुम्हारी पारस्परिक मन्त्रणा (समानः) एकरूपा हो, (समितिः) राजसभा (समानी) एक हो, (व्रतम्) व्रत (समानम्) एकरूप हों, (एषाम्) इन प्रजाजनों के (चित्तम्) अन्तः करण (सह) परस्पर मिले रहें। (वः) तुम्हारी (समानेन) समान२ (हविषा) हवि द्वारा (जुहोमि) मैं यज्ञ करता हूं, आहुतियां३ देता हूं, (समानम) तुम्हारा एकविध (चेतः) चिन्तन हो (अभि सं विशध्वम्) [एक चित्त हो कर] तुम राजसभा में प्रवेश किया करो।

    टिप्पणी

    [१. अथवा मन्त्रः=वैदिक विचार, वेदानुकूल विचार। २. सब से एकत्रित की गई। ३. राजसभा में प्रवेश कर, कार्यारम्भ करने से पूर्व, समान हवि द्वारा यज्ञ करना। ]

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    एकचित्त होने का उपदेश।

    भावार्थ

    (एषाम्) इन समस्त लोगों का (मन्त्रः समानः) मन्त्र अर्थात् मनन, विचार भी समान हो, (समितिः समानी) एकत्र होकर बैठने की सभा भी समान एक ही हो, (समानं व्रतम्) व्रत आचार कर्त्तव्य भी समान = एक ही हो और (चित्तं सह) सबका चित्त भी एक साथ ही हो। हे लोगो ! (वः) तुम सबको (समानेन हविषा) मैं समान प्रकार के, एकही हवि = ग्रहण करने योग्य मार्ग से (जुहोमि) प्रेरित करता हूं। आप लोग (समानं चेतः) एक चित्त होकर (अभि सं विशध्वम्) नगर में निवास करो।

    टिप्पणी

    (द्वि०) ‘समानं मनः’ (च०) समानं मन्त्रमभिमन्त्रये वः। इति ऋ०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। साम्मनस्यं देवता। १, २ अनुष्टुभौ। २ त्रिष्टुप्। तृचं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (4)

    Subject

    United Social Order of Humanity

    Meaning

    Let your mantra, thinking, discussion and decision in the light of your joint principles together be one and equal for all. Let your assembly be one and equal for all. Let your discipline and commitment be one and equal for all with perfect union at heart in depth. I love and vest you with equal vestments of life and knowledge, so that with one mind on equal terms you enter the field of life.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    Let your consultations be common, your assemblies common, you duties common and thoughts of all of you be common and concurrent. I offer to you oblations (supplies) jointly. Strive for a common objective (purpose). (Cf. Rg X.191.3)

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    O ye mankind! let the object of your thought be the same, the place of your assembly ought to be common, let your vow or law be common and let your hearts be united together. I (God) provide you all of you with common objects for accepting and offering and you all entertain together one common purpose.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    Common the rede, Common the Assembly, Common the religious law, so be their minds united. I urge ye to follow the same line of conduct. May ye, one-minded live in the city.

    Footnote

    The same line of conduct: the teachings of the Vedas.

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(समानः) सम्+अन प्राणने−घञ्। तुल्यः। एकरूपः (मन्त्रः) मत्रि गुप्तभाषणे−घञ्। सत्यासत्यविवेकः (समितिः) सम्+इण्−क्तिन्। संगतिः। सभा (समानी) एकरसा (समानम्) अविरुद्धम् (व्रतम्) अ० २।३०।२। वृञ्−अतच्। वरणीयं धर्माचरणम् (सह) संगतम् (चित्तम्) सर्वपदार्थविषयि ज्ञानम् (एषाम्) एतेषां युष्माकम् (समानेन) एकरूपेण (वः) युष्मान् (हविषा) ग्राह्येण धर्मणा (जुहोमि) हु दानादानादनेषु। आददे। स्वीकरोमि (समानम्) साधारणम् (चेतः) पूर्वापरानुभूतं स्मरणात्मकं चिन्तनम् (अभिसंविशध्वम्) अभितः प्रविशत। आत्मनि धारयत ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top