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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 67 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 67/ मन्त्र 3
    ऋषिः - अथर्वा देवता - चन्द्रः, इन्द्रः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
    59

    ऐषु॑ नह्य॒ वृषा॒जिनं॑ हरि॒णस्या॒ भियं॑ कृधि। परा॑ङ॒मित्र॒ एष॑त्व॒र्वाची॒ गौरुपे॑षतु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । ए॒षु॒ । न॒ह्य॒ । वृषा॑ । अ॒जिन॑म् । ह॒रि॒णस्य॑ । भिय॑म् । कृ॒धि॒ । परा॑ङ् । अ॒मित्र॑: । एष॑तु । अ॒र्वाची॑ । गौ: । उप॑ । ए॒ष॒तु॒॥६७.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऐषु नह्य वृषाजिनं हरिणस्या भियं कृधि। पराङमित्र एषत्वर्वाची गौरुपेषतु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । एषु । नह्य । वृषा । अजिनम् । हरिणस्य । भियम् । कृधि । पराङ् । अमित्र: । एषतु । अर्वाची । गौ: । उप । एषतु॥६७.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 67; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    सेनापति के लक्षणों का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे सेनापति !] (एषु) इन [अपने वीरों] में (वृषा=वृष्णः) ऐश्वर्यवान् पुरुष का (अजिनम्) चर्म [कवच] (आ नह्य) पहिना दे, और [शत्रुओं में] (हरिणस्य) हरिण का (भियम्) डरपोकपन (कृधि) करदे। (अमित्रः) शत्रु (पराङ्) उलटे मुख होकर, (एषतु) चला जावे (गौः) भूमि [युद्धभूमि और राज्य] (अर्वाची) हमारी ओर (उप एषतु) चली आवे ॥३॥

    भावार्थ

    सेनापति अपने वीरों को कवच आदि पहिना कर शत्रुओं को भयभीत करके रणभूमि और राज्य अपने हाथ करे ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−(एषु) स्वभटेषु (आ नह्य) आवधान। आच्छादय (वृषा) सुपां सुलुक्०। पा० ७।१।३९। इति षष्ठ्याः सु। वृष्णः। इन्द्रस्य। ऐश्वर्यवतः पुरुषस्य (अजिनम्) अ० ४।७।६। चर्म। कवचम् (हरिणस्य) मृगस्य (भियम्) भीतिम् (कृधि) कुरु शत्रुषु (पराङ्) षण्मुखः सन् (अमित्रः) शत्रुः (एषतु) इष गतौ गच्छतु। पलायताम् (अर्वाची) अस्मदभिमुखा। अनुकूला (गौः) पृथ्वी−निघ० १।१। रणभूमिः। राजभूमिः (उप एषतु) समीपं प्राप्नोतु ॥

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    विषय

    स्वभूमि-प्रत्यावर्तन

    पदार्थ

    १. हे इन्द्र ! तू (एषु) = इन हमारे सैनिकों में (वृषा) = शक्ति का सेचन करता हुआ (अजनिं आनाह्या) = चर्मनिर्मित कवच को पहना दे और तब शत्रुओं में (हरिणस्य) = हिरन-सम्बन्धी (भयं कृधि) = भय को उत्पन्न कर दे। जैसे भयभीत हिरन भगा खड़ा होता है, उसी प्रकार हमारे ये शत्रु भाग खड़े हों। २. (अमित्र:) = शत्रु (पराएषतु) = सुदूर भाग जाए। यह (गौ:) = शत्रु से अधिकृत कर ली गई भूमि पुन:-(अर्वाची उप एषतु) = हमारे अभिमुख समीपता से प्राप्त हो। हमारी भूमि हमें पुन: प्राप्त हो जाए।

    भावार्थ

    सेनापति अपने सैनिकों को कवच धारण कराता हुआ उन्हें शक्तिशाली बनाए। शत्रु-सैन्य को भयभीत हिरन की भाँति दूर भगा दे। हमारी भूमि पुनः हमें प्राप्त हो जाए।

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    भाषार्थ

    (बृषा) हे समाट् ! सुखवर्षी तू (हरिणस्य) हरिण अर्थात् मृगों के (अजिनम्) चर्मों को (एषु) इन निज सैनिकों में (आ नह्य) बान्ध, (अभयम्१ कृधि) और हमें भय रहित कर। (अमित्रः) शत्रु (पराङ्) पराङ्मुख होकर (एषतु) चला जाय, और (गौः) उन की पृथिवी (अर्वाची) हमारी ओर (उप) हमारे पास (एषतु) आ जाय [उन का राज्य हमारे अधीन हो जाय]।

    टिप्पणी

    [मन्त्र में हरिणस्य जात्येकवचन है। क्योंकि "एषु" पद द्वारा निज सैनिकों का बहुत्व दर्शाया है। गौः पृथिवीनाम (निघं० १।१)। मृगचर्मो की कवचों से शत्रु के वाणों का भय नहीं रहता]।[१. पदपाठ में "भियं कृधि" पाठ है। अर्थात् शत्रु के लिये भय पैदा कर। वे यह जान कर भयभीत हों कि ये हरिण कोई अद्भुत शक्तिया है जो कि युद्ध कर ही हैं, ये हमारे नाश कर देंगी। अत: वे युद्धस्थल से भाग जाय।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Fear and Defence

    Meaning

    Give these border forces tiger corslet of the brave and strike the encroachers and intruders with fear so that the enemy runs away and our lands and properties are recovered and safely defended.

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    Translation

    With your might, put deer’s hide on them (the enemies). Create terror among them all around. Let the enemy flee away; let his cows come here to us.

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    Translation

    O King! gird you a bullocks’ hide on these and make these as timid as deer. Let the foe flee away and let the land remain safe with us.

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    Translation

    O King, the showerer of joys, gird on these soldiers the deer's hide to act as an armor. Let our soldiers strike terror in the hearts of the soldiers of the enemy. Let the foe flee away, and his land come under our possession.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(एषु) स्वभटेषु (आ नह्य) आवधान। आच्छादय (वृषा) सुपां सुलुक्०। पा० ७।१।३९। इति षष्ठ्याः सु। वृष्णः। इन्द्रस्य। ऐश्वर्यवतः पुरुषस्य (अजिनम्) अ० ४।७।६। चर्म। कवचम् (हरिणस्य) मृगस्य (भियम्) भीतिम् (कृधि) कुरु शत्रुषु (पराङ्) षण्मुखः सन् (अमित्रः) शत्रुः (एषतु) इष गतौ गच्छतु। पलायताम् (अर्वाची) अस्मदभिमुखा। अनुकूला (गौः) पृथ्वी−निघ० १।१। रणभूमिः। राजभूमिः (उप एषतु) समीपं प्राप्नोतु ॥

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