अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 26/ मन्त्र 2
ऋषिः - मेधातिथिः
देवता - विष्णुः
छन्दः - त्रिपदा विराड्गायत्री
सूक्तम् - विष्णु सूक्त
26
प्र तद्विष्णु॑ स्तवते वी॒र्याणि मृ॒गो न भी॒मः कु॑च॒रो गि॑रि॒ष्ठाः। प॑रा॒वत॒ आ ज॑गम्या॒त्पर॑स्याः ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । तत् । विष्णु॑: । स्त॒व॒ते॒ । वी॒र्या᳡णि । मृ॒ग: । न । भी॒म: । कु॒च॒र: । गि॒रि॒ऽस्था: । प॒रा॒ऽवत॑: । आ । ज॒ग॒म्या॒त् । पर॑स्या: ॥२७.२॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र तद्विष्णु स्तवते वीर्याणि मृगो न भीमः कुचरो गिरिष्ठाः। परावत आ जगम्यात्परस्याः ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । तत् । विष्णु: । स्तवते । वीर्याणि । मृग: । न । भीम: । कुचर: । गिरिऽस्था: । पराऽवत: । आ । जगम्यात् । परस्या: ॥२७.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
व्यापक ईश्वर के गुणों का उपदेश।
पदार्थ
(भीमः) डरावने, (कुचरः) टेढ़े-टेढ़े चलनेवाले [ऊँचे-नीचे दाये-बायें जानेवाले] (गिरिष्ठाः) पहाड़ों पर रहनेवाले (मृगः न) आखेट ढूँढ़नेवाले सिंह आदि के समान, (तत्) वह (विष्णुः) सर्वव्यापी विष्णु (वीर्याणि) अपने पराक्रमों को (प्र) अच्छे प्रकार (स्तवते) स्तुतियोग्य बनाता है। वह (परावतः) समीप दिशा से और दूर दिशा से (आ जगम्यात्) आता रहे ॥२॥
भावार्थ
जैसे सिंह का पराक्रम जंगलीय पशुओं में विदित होता है, वैसे ही सर्वव्यापी, पापियों के दण्ड देनेवाले परमात्मा का सामर्थ्य निकट और दूर सब लोकों में प्रसिद्ध है ॥२॥ इस मन्त्र का पूर्वभाग ऋग्वेद में है-म० १।१५४।२। और यजु० अ० ५।२०। (मृगो न.... गिरिष्ठाः) यह पाद निरुक्त १।२०। में व्याख्यात है ॥
टिप्पणी
२−(प्र) प्रकर्षेण (तत्) सः (विष्णुः) व्यापकेश्वरः (स्तवते) छान्दसः शप्। स्तुते। स्तुत्यं करोति (वीर्याणि) पराक्रमान् (मृगः) यो मार्ष्ट्यन्विच्छति वधाय जीवान्। सिंहादिः (न) इव (भीमः) भयानकः (कुचरः) कुत्सितं चरन् (गिरिष्ठाः) पर्वतस्थायी (परावतः) अ० ३।४।५। परा आभिमुख्ये। अभिमुखगताया दिशायाः (आ जगम्यात्) शपः श्लुः, विधिलिङ्। आगच्छेत् (परस्याः) दूरदिशायाः ॥
विषय
कुचरः, गिरिष्ठाः
पदार्थ
१. (तत्) = [सः] वे सर्वव्यापक [तनु विस्तारे] (विष्णु:) = प्रभु (वीर्याणि) [उदिश्य] = वीर कर्मों का लक्ष्य करके (प्रस्तवते) = खूब ही स्तुति किये जाते हैं। (मृगः) = वे प्रभु ही अन्वेषणीय हैं [मृग अन्वेषणे], (न भीमः) = वे भयंकर नहीं, प्रेम ही भगवान् का रूप है, पापियों को दण्ड भी वे उनके कल्याण के लिए प्रेम से ही देते हैं। (कुचरः) = सम्पूर्ण पृथिवी पर विचरण करनेवाले है अथवा कहाँ नहीं है? [क्वायं न चरतीति वा-नि०] प्रभु तो सर्वत्र हैं। (गिरिष्ठाः) = वेदवाणियों में स्थित हैं, सब वेद प्रभु का ही तो वर्णन कर रहे है [सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति]।२. वे प्रभु (परस्याः परावतः) = दूर-से-दूर होते हुए भी (आजगम्यात्) = हमारे हृदय-देश में आने का अनुग्रह करें। दूर से-दूर विद्यमान उस प्रभु को हम यहाँ हृदय में अनुभव करने का प्रयत्न करें।
भावार्थ
प्रभु के वीरतापूर्ण कर्म स्तुति के योग्य हैं। उन प्रभु का ही हम अन्वेषण करें, वे प्रेमरूप हैं, सर्वत्र हैं, सब वेदमन्त्रों में उनका ही प्रतिपादन हो रहा है। दूर-से-दूर होते हुए भी वे प्रभु हमें यहाँ हदयों में प्राप्त हों।
भाषार्थ
(विष्णुः) व्यापक परमेश्वर (तत्= तानि) उन निज (वीर्याणि) सामर्थ्यों को (प्रस्तवते) स्वयं प्रस्तुत करता है। (मृगः न) सिंह के सदृश वह (भीमः) न्याय की दृढ़ता या कर्मफल के प्रदान में भयानक है, (कुचरः) वह पृथिवी में विचर रहा है, (गिरिष्ठाः) पर्वत में स्थित है, तथा मेघ में स्थित है। (परावतः परस्याः) दूर देश की द्यौ से भी दूर देश से (आ जगम्यात्) वह आ जाता है।
टिप्पणी
[परमेश्वर अपने सामर्थ्यों का स्वयं स्तवन करता है, अन्यथा उसके सामर्थ्यों का परिज्ञान हम अल्पज्ञों को कैसे सम्भव था। वह कर्मानुसार न्याय करने और नियन्त्रण में भयानक है, सुदृढ़ है। तभी कहा है कि "भयादस्याग्निस्तपति भयातपति सूर्यः। भयादिन्द्रश्च वायुश्च मृत्युर्धावति पञ्चमः"। “कुचरः"= कु (पृथिवी) + चरः। गिरिष्ठाः= गिरि पर्वते१, तथा मेघे तिष्ठति (निघं० १।१०)। आजगम्यात्= वह दूर से दूर तक और समीप से समीप में व्याप्त है, अतः सबको दर्शन दे सकता है।] [१. गिरिः मेघनाम (निघं० १।१०)। अथवा गिरिष्ठाः= वेदवाणी में स्थित, व्याप्त, व्याख्यात। गीः= गीः वाङ्नाम (निघं० १।११)। तथा ''उपहरे गिरीणां संगमे च नदीनाम्। धिया विप्रो अजायत (यजु० २६।१५); मतः गिरिष्ठाः= उपह्वरे गिरीणाम्।]
इंग्लिश (4)
Subject
Omnipresent Vishnu
Meaning
For these mighty exploits Vishnu is celebrated and adored, indeed the Lord himself reveals these exploits in the divine hymns of the Veda. He pervades the universe, mountains, caves and the clouds, as an awesome lion roams around at will over tortuous paths of the forest. May the Lord come, manifest in the cave of the heart and bless us from farthest of the far.
Translation
The all-pervading God has been dominating by His powers like a sturdy wild mountain lion (mrgo nabhimah kucaro girsthah). May He come hither from the distance beyond the remotest distance.(Also Rg. X.154.2; Rg. X.130.2)
Comments / Notes
MANTRA NO 7.27.2AS PER THE BOOK
Translation
Thus, All-pervading Divinity manifest His wondrous deeds. He is as dreadful for the wickeds as wild beasts. He is pervading the earth and He is pervading the cloud. May he be realize in my heart though he is pervading farthest external world and space.
Translation
God speaks in the Vedas of His supernatural, manifold powers. He is Awe-inspiring like a tiger. He is Omnipresent, and sung in Vedic verses. He approaches our heart from the farthest distance.
Footnote
See Yajur, 5-20; Rig, 1-154-2.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(प्र) प्रकर्षेण (तत्) सः (विष्णुः) व्यापकेश्वरः (स्तवते) छान्दसः शप्। स्तुते। स्तुत्यं करोति (वीर्याणि) पराक्रमान् (मृगः) यो मार्ष्ट्यन्विच्छति वधाय जीवान्। सिंहादिः (न) इव (भीमः) भयानकः (कुचरः) कुत्सितं चरन् (गिरिष्ठाः) पर्वतस्थायी (परावतः) अ० ३।४।५। परा आभिमुख्ये। अभिमुखगताया दिशायाः (आ जगम्यात्) शपः श्लुः, विधिलिङ्। आगच्छेत् (परस्याः) दूरदिशायाः ॥
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