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अथर्ववेद के काण्ड - 8 के सूक्त 10 के मन्त्र
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मन्त्र चुनें
अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 10/ मन्त्र 12
ऋषिः - अथर्वाचार्यः
देवता - विराट्
छन्दः - याजुषी जगती
सूक्तम् - विराट् सूक्त
90
सोद॑क्राम॒त्सामन्त्र॑णे॒ न्यक्रामत्।
स्वर सहित पद पाठसा । उत् । अ॒क्रा॒म॒त् । सा । आ॒ऽमन्त्र॑णे । नि । अ॒क्रा॒म॒त् ॥१०.१२॥
स्वर रहित मन्त्र
सोदक्रामत्सामन्त्रणे न्यक्रामत्।
स्वर रहित पद पाठसा । उत् । अक्रामत् । सा । आऽमन्त्रणे । नि । अक्रामत् ॥१०.१२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
ब्रह्म विद्या का उपदेश।
पदार्थ
(सा उत् अक्रामत्) वह [विराट्] ऊपर चढ़ी, (सा) वह (आमन्त्रणे) अभिनन्दनस्थान में (नि अक्रामत्) नीचे उतरी ॥१२॥
भावार्थ
बड़े लोगों की प्रशंसा में ईश्वरशक्ति दिखाई देती है ॥१२॥
टिप्पणी
१२− (आमन्त्रणे) आङ्+मत्रि गुप्तपरिभाषणे-ल्युट्। सम्बोधने। अभिनन्दने। अन्यत् पूर्ववत् ॥
विषय
आमन्त्रण [U.N.0.]
पदार्थ
१. 'यदि महाद्वीपों का कलह उपस्थित हो जाए तो क्या करें', यह विचार उपस्थित होने पर (सा उदकामत्) = वह विराट् अवस्था और उत्क्रान्त हुई और (सा आमन्त्रणे न्यक्रामत्) = वह 'आमन्त्रण' में आकर विश्रान्त हुई। यह इस पृथिवी पर सबसे बड़ा संगठन है। इसमें सब महाद्वीपों से प्रतिनिधि आमन्त्रित होते हैं और वे मिलकर समस्याओं को सुलझाने का यल करते हैं। २. (यः एवं वेद) = जो इसप्रकार इस आमन्त्रण के बनाने की बात को समझता है, वही (आमन्त्रणीयः भवति) = इस आमन्त्रण का प्रधान बनने के योग्य समझा जाता है और सब (सदस्य अस्य) = इसके पुकारने पर (आमन्त्रणं यन्ति) = 'आमन्त्रण' में जाते हैं-आमन्त्रण में उपस्थित होकर गम्भीर विषयों पर अपना-अपना विचार देने का प्रयत्न करते हैं। यह आमन्त्रण ही 'विश्वशान्ति' का साधन बनता है। यह मानवजाति का सर्वोत्तम संगठन है। इसके होने पर भी कुछ-न-कुछ विराट् अवस्था रह ही जाती है। विराट् अवस्था ही तो उत्क्रान्त होकर यहाँ तक पहुँची है। मनुष्य की सहज अपूर्णता संगठन की अपूर्णता का कारण होगी ही।
भावार्थ
'आमन्त्रण' वह संगठन है, जो महाद्वीपों के पारस्परिक कलहों को निपटाकर मनुष्यों को युद्धों की स्थिति से ऊपर उठाता है। युद्धों के अभाव में ही वास्तविक उन्नति सम्भव हैं|
भाषार्थ
(सा) वह समिति संस्था द्वारा निर्वाचित सम्राट् संस्था (उदक्रामत्) उत्क्रान्त हुई (सा) वह (आमन्त्रणे) आमन्त्रण में (न्यक्रामत्) अवतीर्ण हुई।
विषय
‘विराड्’ के ६ स्वरूप गार्हपत्य, आहवनीय, दक्षिणाग्नि, सभा, समिति और आमन्त्रण।
भावार्थ
(सा उद् अक्रामत्) वह ऊपर उठी और फिर (सा आमन्त्रणे नि अक्रामत्) वह ‘आमन्त्रण’, परस्पर प्रेम और सम्मानपूर्वक बुलाने के रूप में आ उतरी, प्रकट हुई। (य एवं वेद आमन्त्रणीयः भवति। अस्य आमन्त्रणं यन्ति) जो विराट के इस प्रकार के रूप को जान लेता है वह अन्यों द्वारा सम्मानपूर्वक आमन्त्रण पाता है और इस के आमन्त्रण को दूसरे स्वीकार करते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वाचार्य ऋषिः विराड् देवता। १ त्रिपदार्ची पंक्तिः। २,७ याजुष्यो जगत्यः। ३,९ सामन्यनुष्टुभौ। ५ आर्ची अनुष्टुप्। ७,१३ विराट् गायत्र्यौ। ११ साम्नी बृहती। त्रयोदशर्चं पर्यायसूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Virat
Meaning
Virat proceeded further and higher than Samiti and settled in the Samantrana, Ministry organisation of the Samitis (See Atharva-veda 3, 5, 7 and Yajurveda 8, 37)
Translation
She moved up. She entered amantrana (tne consultative committee).
Translation
This mounted and entered negotiation and conversation.
Translation
The glory of God arose, and appeared in the form of mutual love and respectful invitation.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१२− (आमन्त्रणे) आङ्+मत्रि गुप्तपरिभाषणे-ल्युट्। सम्बोधने। अभिनन्दने। अन्यत् पूर्ववत् ॥
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