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अथर्ववेद के काण्ड - 8 के सूक्त 5 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 17
    ऋषिः - शुक्रः देवता - कृत्यादूषणम् अथवा मन्त्रोक्ताः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - प्रतिसरमणि सूक्त
    76

    अ॑सप॒त्नं नो॑ अध॒राद॑सप॒त्नं न॑ उत्त॒रात्। इन्द्रा॑सप॒त्नं नः॑ प॒श्चाज्ज्योतिः॑ शूर पु॒रस्कृ॑धि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒स॒प॒त्नम् । न॒: । अ॒ध॒रात् । अ॒स॒प॒त्नम् । न॒: । उ॒त्त॒रात् । इन्द्र॑ । अ॒स॒प॒त्नम् । न॒: । प॒श्चात् । ज्योति॑: । शू॒र॒ । पु॒र: । कृ॒धि॒॥५.१७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    असपत्नं नो अधरादसपत्नं न उत्तरात्। इन्द्रासपत्नं नः पश्चाज्ज्योतिः शूर पुरस्कृधि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    असपत्नम् । न: । अधरात् । असपत्नम् । न: । उत्तरात् । इन्द्र । असपत्नम् । न: । पश्चात् । ज्योति: । शूर । पुर: । कृधि॥५.१७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 5; मन्त्र » 17
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    हिंसा के नाश का उपदेश।

    पदार्थ

    (शूर) हे शूर (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् राजन् ! (ज्योतिः) ज्योति को (नः) हमारे लिये (अधरात्) नीचे से (असपत्नम्) शत्रुरहित, (नः) हमारे लिये (उत्तरात्) ऊपर से (असपत्नम्) शत्रुरहित, (नः) हमारे लिये (पश्चात्) पीछे से (असपत्नम्) शत्रुरहित (पुरः) सन्मुख (कृधि) कर ॥१७॥

    भावार्थ

    राजा सब ओर से शत्रुओं को नाश करके प्रजा की रक्षा करे ॥१७॥

    टिप्पणी

    १७−(असपत्नम्) शत्रुरहितम् (नः) अस्मभ्यम् (अधरात्) अधोदेशात् (उत्तरात्) उपरिदेशात् (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् राजन् (पश्चात्) पृष्ठतः (ज्योतिः) प्रकाशम् (शूर) (पुरः) पुरस्तात् (कृधि) कुरु। अन्यत्पूर्ववत् ॥

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    विषय

    असपत्नम् ज्योतिः

    पदार्थ

    १. हे प्रभो! इस वीर्यमणि के द्वारा (न:) = हमें (अधरात्) = दक्षिण दिशा से (असपत्रम्) = शत्रुरहित (कृधि) = कीजिए। इसी प्रकार (उत्तरात्) = उत्तर दिशा से भी (न:) = हमें (असपत्नम्) = शत्रुरहित कीजिए। हे (इन्द्र) = सब शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले प्रभो ! (न:) = हमें (पश्चात्) = पश्चिम दिशा से भी (असपत्नम्) = शत्रुराहित कीजिए। (पुर:) = सामने से वा पूर्व से भी शत्रुरहित कीजिए। २. इस वीर्यमणिरूप कवच को धारण करने पर हमें किसी भी दिशा में रोगादि शत्रुओं का भय न हो। हे (शूर) = हमारे शत्रुओं को शीर्ण करनेवाले प्रभो! हमारे लिए आप (ज्योतिः) [कृधि] = प्रकाश करनेवाले होओ।

    भावार्थ

    शरीर में सुरक्षित वीर्यमणि हमें सब दिशाओं में शत्रुरहित करके ज्योतिर्मय जीवनवाला बनाए।

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    भाषार्थ

    (शुर ! इन्द्रः) हे शूर ! सम्राट् ! (अधरात) दक्षिण से (नः) हम प्रजाजनों को (असपत्नम्) शत्रुरहित (कृधि) कर (नः) हम प्रजाजनों को (उत्तरात्) उत्तर से (असपत्नम्) शत्रुरहित (कृधि) कर। (नः) हम प्रजाजनों को (पश्चात्) पश्चिम से (असपत्नम्) शत्रुरहित (कृधि) कर (पुरः) पूर्व से शत्रु रहित (कृधि) कर, इस प्रकार हमारे संमुख (ज्योतिः) ज्योति प्रकट कर अर्थात् हमारे जीवन और लक्ष्य अन्धकारमय न हों।

    टिप्पणी

    [सेनाध्यक्ष तो शूर होता ही है। सम्राट् को भी शूर होना चाहिये, ताकि साम्राज्य के चहुदिशि सपनों का अभाव हो और प्रजाजनों के संमुख आशा और उत्साह की ज्योति जगमगाती रहे।]

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    विषय

    शत्रुनाशक सेनापति की नियुक्ति।

    भावार्थ

    हमारे (अधरात्) नीचे से अर्थात् हम से नीचे के लोगों की ओर से (असपत्नम्) हमारे कोई विरोधी न उठें। (नः उत्तरात् असपत्नम्) हमारी अपेक्षा ऊंचे पद के लोगों में से भी हमारे शत्रु न रहें। हे (इन्द्र) राजन् ! (नः) हमारे (पश्चात्) पीछे की ओर से (असपत्नम्) हमारे शत्रु न हों और (पुरः) आगे की ओर से हमारे आगे (ज्योतिः कृधि) प्रकाश, ज्ञान और वेदमय आदेश को रख, जिस से हम अंधेरे में न भटकें और निर्भय होकर जीवन व्यतीत करें। यह राजा का कर्त्तव्य है कि प्रजा को सब ओर से निर्भय करके प्रजा को अन्धेरे में न रक्खे, प्रत्युत उनको ज्ञानमय उन्नत मार्ग की ओर आगे बढ़ावे, उनको अन्धेरे में या अज्ञानमय दशा में न रक्खे। वह वेद का उपदेश है। मणिर्वा इन्द्र शब्देन उच्यते इति सायणवचनात्तन्मते ऽपि मणिशब्देन मणिभिन्नं वस्तु सूक्तेन वर्ण्यते इति मणिव्याजेन् प्रणिधारिणो राज्ञ एव वर्णनमिष्यते।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शुक्र ऋषिः। कृत्यादूषणमुत मन्त्रोक्ता देवताः। १, ६, उपरिष्टाद् बृहती। २ त्रिपाद विराड् गायत्री। ३ चतुष्पाद् भुरिग् जगती। ७, ८ ककुम्मत्यौ। ५ संस्तारपंक्तिर्भुरिक्। ९ पुरस्कृतिर्जगती। १० त्रिष्टुप्। २१ विराटत्रिष्टुप्। ११ पथ्या पंक्तिः। १२, १३, १६-१८ अनुष्टुप्। १४ त्र्यवसाना षट्पदा जगती। १५ पुरस्ताद बृहती। १३ जगतीगर्भा त्रिष्टुप्। २० विराड् गर्भा आस्तारपंक्तिः। २२ त्र्यवसाना सप्तपदा विराड् गर्भा भुरिक् शक्वरी। द्वाविंशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Pratisara Mani

    Meaning

    Indra, ruler of the world, brave invincible warrior of eminence, give us the light and freedom from enemies from below, give us the light and freedom from enemies from above, give us the light and freedom from enemies from behind, and give us the light and freedom from enemies from the front.

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    Translation

    O resplendent one, may there be for us freedom from rivals in the north, freedom from rivals in the west. O brave hero, set light before us.

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    Translation

    O mighty King ! set before of us the light devoid of any fear and enemity, from bellow, set before us the light devoid of any fear and enemity from above, set before us the light devoid of any fear and threat from behind.

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    Translation

    O brave king, set light before us, peace and security from below, peace and security from above, peace and security from behind.

    Footnote

    Let there be peace and security for us from South. North, West, and light in the East before us.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १७−(असपत्नम्) शत्रुरहितम् (नः) अस्मभ्यम् (अधरात्) अधोदेशात् (उत्तरात्) उपरिदेशात् (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् राजन् (पश्चात्) पृष्ठतः (ज्योतिः) प्रकाशम् (शूर) (पुरः) पुरस्तात् (कृधि) कुरु। अन्यत्पूर्ववत् ॥

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