Loading...
अथर्ववेद के काण्ड - 8 के सूक्त 5 के मन्त्र
मन्त्र चुनें
  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 4
    ऋषिः - शुक्रः देवता - कृत्यादूषणम् अथवा मन्त्रोक्ताः छन्दः - चतुष्पदा भुरिग्जगती सूक्तम् - प्रतिसरमणि सूक्त
    58

    अ॒यं स्रा॒क्त्यो म॒णिः प्र॑तीव॒र्तः प्र॑तिस॒रः। ओज॑स्वान्विमृ॒धो व॒शी सो अ॒स्मान्पा॑तु स॒र्वतः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒यम् । स्रा॒क्त्य: । म॒णि: । प्र॒ति॒ऽव॒र्त: । प्र॒ति॒ऽस॒र: । ओज॑स्वान् । वि॒ऽमृ॒ध: । व॒शी । स: । अ॒स्मान् । पा॒तु॒ । स॒र्वत॑: ॥५.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अयं स्राक्त्यो मणिः प्रतीवर्तः प्रतिसरः। ओजस्वान्विमृधो वशी सो अस्मान्पातु सर्वतः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अयम् । स्राक्त्य: । मणि: । प्रतिऽवर्त: । प्रतिऽसर: । ओजस्वान् । विऽमृध: । वशी । स: । अस्मान् । पातु । सर्वत: ॥५.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 5; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    हिंसा के नाश का उपदेश।

    पदार्थ

    (अयम्) यह [प्रसिद्ध वेदरूप] (मणिः) मणि [श्रेष्ठ नियम] (स्राक्त्यः) उद्यमशील, (प्रतीवर्त्तः) सब ओर घूमनेवाला और (प्रतिसरः) अग्रगामी है। (सः) वह (ओजस्वान्) महाबली, (विमृधः) बड़े हिंसकों को (वशी) वश में करनेवाला (अस्मान्) हमको (सर्वतः) सब ओर से (पातु) बचावे ॥४॥

    भावार्थ

    वेदानुगामी पुरुष बड़े ओजस्वी होकर शत्रुओं को वश में करके सब की रक्षा करते हैं ॥४॥

    टिप्पणी

    ४−(अयम्) म० १। (स्राक्त्यः) स्रक गतौ-क्तिन्, यत्। प्रति+वृतेर्घञ्। उपसर्गस्य घञ्यमनुष्ये बहुलम्। पा० ६।३।१२२। इति दीर्घः। प्रज्ञादिभ्यश्च। पा० ५।४।३८। स्वार्थेऽण्। स्राक्त्यः-अ० २।११।२। उद्यमशीलः (मणिः) म–० १। (प्रतीवर्तः) सर्वतोवर्तनः (प्रतिसरः) म० १ (ओजस्वान्) बलयुक्तः (विमृधः) अ० १।२१।१। विशेषेण हिंसकान् (वशी) वश-इनि। अकेनोर्भविष्यदाधमर्ण्ययोः। पा० २।३।७०। इति सकर्मकत्वम्। वशयिता (सः) (अस्मान्) धार्मिकान् (पातु) (सर्वतः) ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    स्त्राक्त्यः मणिः

    पदार्थ

    १. (अयं मणि:) = यह वीर्यरूप मणि (स्त्रावत्यः) [सै पाके, अक् गती, त्य] = तपस्या के द्वारा परिपाक की ओर गति करनेवालों में होनेवाली है। अपने को तपस्या की अग्नि में परिपक्व करनेवाला ही इसका रक्षण कर पाता है, विलासी पुरुष में इसका निवास नहीं होता। (प्रतीवर्तः) = [प्रतिकूल वर्तयति अनेन] शत्रुओं के मुख को मोड़ देनेवाला है। (प्रतिसर:) = यह वीर्य रोगरूप शत्रुओं पर धावा बोलनेवाला है। २. (ओजस्वान्) = यह हमें प्रशस्त ओजवाला बनाता है, (विमृधः) = शत्रुओं का विमर्दन करनेवाला है और (वशी) = सबको अपने वश में करनेवाला है। (स:) = वह मणि (अस्मान्) = हमें (सर्वतः पातु) = सब ओर से रक्षित करे।

    भावार्थ

    यह वीर्यरूप मणि अपने को तपस्या की अग्नि में परिपक्व करनेवालों में रहती है। यह प्रतीवर्त व प्रतिसर है। यह हमें ओजस्वी बनाती है व हमारा रक्षण करती है।

    इस भाष्य को एडिट करें

    भाषार्थ

    (अयम्) यह (स्राक्त्यः मणिः) स्रात्य-मणि, (प्रतीवर्तः) शत्रूसेना को वापिस मोड़ देता है, (प्रतिसरः) और शत्रुसेना के प्रति सरण करता है! (ओजस्वान्) ओजस् वाला, (विमृधः) शत्रुओं का विमर्दन करने वाला, (वशी) उन्हें वश में करने वाला है, (सः) वह (अस्मान) हमें (सर्वतः) सब ओर से, या सब प्रकार के भयों से (पातु) सुरक्षित करे।

    टिप्पणी

    [स्राक्त्यः = विनियोगकारों के अनुसार सायणाचार्य लिखते हैं कि "अयं तिलकवृक्षनिर्मितो मणिः" (मन्त्र १), अर्थात् यह मणि तिलक वृक्ष से निर्मित है, अर्थात् तिलक वृक्ष के फल या काष्ठ से निर्मित है। इस काष्ठ निर्मित मणि में, सूक्त ५ में कथित वर्णन उपपन्न हो सकते हैं, यह असम्भव है "स्राक्त्य-मणिः" वस्तुतः है स्रक् (स्रज्) अर्थात् माला द्वारा सत्कार योग्य विजयी सेनाध्यक्षरूपी पुरुष-रत्न। इस के सम्बन्ध में ही सूक्तोक्त वर्णन उपपन्न हो सकते हैं। "स्राक्त्य" का वर्णन "स्रक्त्यः" द्वारा [अथव० २।११।२] में भी हुआ है। स्राक्त्यः= स्रक्त्य + स्वार्थे अण्। सायणाचार्य ने अथर्व० २।११।२ में भी इसे तिलक वृक्ष द्वारा निर्मित कहा है। यथा "स्रक्तिस्तिलकवृक्षः तत्र भव स्रक्त्यः (अथर्व० २।११।४) में "स्रक्त्य" को सूरि कहा है। सूरिः का अर्थ सायणाचार्य ने “अभिज्ञः” किया है, अर्थात ज्ञानी। क्या काष्ठनिर्मित या फलरूप वस्तु ज्ञानी हो सकती है]।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    शत्रुनाशक सेनापति की नियुक्ति।

    भावार्थ

    (अयम्) यह (मणिः) जिस प्रकार (स्राक्त्यः) स्रक्ति नामक तिलक वृक्ष से बना है, उसी प्रकार यह (मणिः) मणि को धारण करने वाला वीर भी (स्राक्त्यः) समस्त सेना के बीच तिलक के योग्य है। अथवा माला आदि से सुशोभित करने योग्य है। वही (प्रतीवर्तः) शत्रुओं से अभिमुख खड़ा होने वाला और (प्रतिसरः) शत्रुओं पर चढ़ाई करने में समर्थ है। वह (ओजस्वान्) ओजस्वी (विमृधः) नाना प्रकार से युद्ध करने में समर्थ (वशी) शत्रुओं पर, अपने सेनासमूह और अपने इन्द्रियगणों पर भी वशकारी होकर (सर्वतः) सब प्रकार से (अस्मान्) हमारी (पातु) रक्षा करे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शुक्र ऋषिः। कृत्यादूषणमुत मन्त्रोक्ता देवताः। १, ६, उपरिष्टाद् बृहती। २ त्रिपाद विराड् गायत्री। ३ चतुष्पाद् भुरिग् जगती। ७, ८ ककुम्मत्यौ। ५ संस्तारपंक्तिर्भुरिक्। ९ पुरस्कृतिर्जगती। १० त्रिष्टुप्। २१ विराटत्रिष्टुप्। ११ पथ्या पंक्तिः। १२, १३, १६-१८ अनुष्टुप्। १४ त्र्यवसाना षट्पदा जगती। १५ पुरस्ताद बृहती। १३ जगतीगर्भा त्रिष्टुप्। २० विराड् गर्भा आस्तारपंक्तिः। २२ त्र्यवसाना सप्तपदा विराड् गर्भा भुरिक् शक्वरी। द्वाविंशर्चं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (4)

    Subject

    Pratisara Mani

    Meaning

    This jewel distinction is a mark of dynamic progress in all directions, it turns off adversaries, it is a valorous destroyer of enemies. All controller, may the hero protect us all round. This is what Agni, the leading light says.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    This blessing of the progress is a reverter, counter-acting, full of vigour, and crusher and subduer of enemies, May this protect us frorn all the sides.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    This Mani is a sign of industry, this is the sign of all-round achievements, this a symbol of progressive enterprise ; this is the mark of courage, this is the medal which inspires the spirit of controlling foes and let it be the means to Save us from all sides.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    May this valuable Vedic teaching energizing, universal, giver of right lead, mighty, subduing the violent, keep us secure on every side.

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४−(अयम्) म० १। (स्राक्त्यः) स्रक गतौ-क्तिन्, यत्। प्रति+वृतेर्घञ्। उपसर्गस्य घञ्यमनुष्ये बहुलम्। पा० ६।३।१२२। इति दीर्घः। प्रज्ञादिभ्यश्च। पा० ५।४।३८। स्वार्थेऽण्। स्राक्त्यः-अ० २।११।२। उद्यमशीलः (मणिः) म–० १। (प्रतीवर्तः) सर्वतोवर्तनः (प्रतिसरः) म० १ (ओजस्वान्) बलयुक्तः (विमृधः) अ० १।२१।१। विशेषेण हिंसकान् (वशी) वश-इनि। अकेनोर्भविष्यदाधमर्ण्ययोः। पा० २।३।७०। इति सकर्मकत्वम्। वशयिता (सः) (अस्मान्) धार्मिकान् (पातु) (सर्वतः) ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top