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अथर्ववेद के काण्ड - 8 के सूक्त 8 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 8/ मन्त्र 22
    ऋषिः - भृग्वङ्गिराः देवता - परसेनाहननम्, इन्द्रः, वनस्पतिः छन्दः - चतुष्पदा शक्वरी सूक्तम् - शत्रुपराजय सूक्त
    45

    दिश॒श्चत॑स्रोऽश्वत॒र्यो देवर॒थस्य॑ पुरो॒डाशाः॑ श॒फा अ॒न्तरि॑क्षमु॒द्धिः। द्यावा॑पृथि॒वी पक्ष॑सी ऋ॒तवो॒ऽभीश॑वोऽन्तर्दे॒शाः किं॑करा वाक्परि॑रथ्यम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दिश॑: । चत॑स्र: । अ॒श्व॒त॒र्य᳡: । दे॒व॒ऽर॒थस्य॑ । पु॒रो॒डाशा॑: । श॒फा: । अ॒न्तरि॑क्षम् । उ॒ध्दि: । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । पक्ष॑सी॒ इति॑ । ऋ॒तव॑: । अ॒भीश॑व: । अ॒न्त॒:ऽदे॒शा: । कि॒म्ऽक॒रा: । वाक् । परि॑ऽरथ्यम् ॥८.२२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दिशश्चतस्रोऽश्वतर्यो देवरथस्य पुरोडाशाः शफा अन्तरिक्षमुद्धिः। द्यावापृथिवी पक्षसी ऋतवोऽभीशवोऽन्तर्देशाः किंकरा वाक्परिरथ्यम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दिश: । चतस्र: । अश्वतर्य: । देवऽरथस्य । पुरोडाशा: । शफा: । अन्तरिक्षम् । उध्दि: । द्यावापृथिवी इति । पक्षसी इति । ऋतव: । अभीशव: । अन्त:ऽदेशा: । किम्ऽकरा: । वाक् । परिऽरथ्यम् ॥८.२२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 8; मन्त्र » 22
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    शत्रु के नाश का उपदेश।

    पदार्थ

    (देवरथस्य) विजय चाहनेवालों के रथ की (चतस्रः) चारों (दिशः) दिशाएँ (अश्वतर्यः) खच्चरी [हैं], (पुरोडाशाः) पूरी पूए (शफाः) खुर, (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष (उद्धिः) शरीर [बैठक]। (द्यावापृथिवी) सूर्य और पृथिवी (पक्षसी) दोनों पक्खे, (ऋतवः) ऋतुएँ (अभीशवः) बागडोरें, (अन्तर्देशः) अन्तर्दिशाएँ (किंकराः) सेवक लोग, (वाक्) वाणी (परिरथ्यम्) चक्र की पुट्ठी [वा हाल] है ॥२२॥

    भावार्थ

    सब प्रकार से सावधान सेनापति शत्रुओं पर पूरा विजय पाता है ॥२२॥

    टिप्पणी

    २२−(दिशः) प्राच्यादयः (चतस्रः) (अश्वतर्यः) वत्सोक्षाश्वर्षभेभ्यश्च तनुत्वे। पा० ५।३।९१। अश्व-ष्टरच्, ङीप्। खचर्यः (देवरथस्य) विजिगीषूणां युद्धयानस्य (पुरोडाशाः) पुरोऽग्रे दाश्यते दीयते। दाशृ दाने-घञ्। पक्कान्नविशेषाः (शफाः) खुराः (अन्तरिक्षम्) (उद्धिः) भुवः कित्। उ० २।११२। उन्दी क्लेदने-इसिन्, कित्, पृषोदरादिरूपं यथा ऊधः। शरीरम्। स्थितिस्थानम् (द्यावापृथिवी) सूर्यभूमी (पक्षसी) पक्ष परिग्रहे-असुन्। रथपार्श्वौ (ऋतवः) वसन्तादयः कालाः (अभीशवः) अ० ६।१३७।२। अश्वरश्मयः (अन्तर्देशाः) अन्तर्दिशाः (किंकराः) किंयत्तद्बहुषु कृञोऽज्विधानम्। वा० पा० ३।२।२१। किम्+डुकृञ् करणे-अच्। दासाः (वाक्) वाणी (परिरथ्यम्) रथस्येदम्। रथाद्यत्। पा० ४।३।१२१। रथ-यत्। रथचक्रपरिधिः ॥

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    विषय

    देवरथ

    पदार्थ

    १. वे महेन्द्र [प्रभो] जब इस विश्वरूप त्रिपुर का बिजय करते हैं तब (देवरथस्य) = उस विजेता प्रभु के रथ [ब्रह्माण्डरूप रथ] की (चतस्त्रः दिश:) = चारों दिशाएँ (अश्वतर्य:) = चार घोड़ियों के समान हैं। (पुरोडाशा:) यज्ञ में डाले जानेवाले (चरुद्रव्य शफा:) = घोड़ियों के खुर हैं। अन्तरिक्ष (उद्धिः) = अन्तरिक्ष अक्षों के ऊपर का भाग है [the part which rests on the asles]| (द्यावापृथिवी) = धुलोक और पृथिवीलोक (पक्षसी) = दोनों पासे हैं। (ऋतव: अभीशवः) = ऋतुएँ रासें [लगाम] हैं। (अन्तर्देशा:) = बीच के प्रदेश या लोक (किंकरा:) = रथ में पोछे खड़े होनेवाले चाकर हैं। (वाक्) = वाणी (परिरथ्यम्) -= रथचक्र परिधि है। २. (संवत्सर:) = वर्ष (रथ:) = रथ है, (परिवत्सरः) = [सूर्य-परिवत्सर:-ता० १७.१३.१७] सूर्य (रथोपस्थ:) = रथ में बैठने का स्थान [seat] है, (विराट) = ब्रह्मा की प्रथम सन्तानभूत 'समष्टि बुद्धि, (ईषा) = युगदण्ड है। (अग्नि: रथमुखम्) = अग्नि रथ का अग्रभाग है। (इन्द्रः) = मेघ [cloud] (सव्यष्ठा:) = बाम् पार्श्व में बैठनेवाला है और (चन्द्रमा: सारथिः) = चन्द्रमा सारथि है।

    भावार्थ

    मन्त्र वर्णित 'देवरथ' पर आरूढ़ होकर प्रभु त्रैलोक्य पर विजय कर रहे हैं। हम भी इस देवरथ के अनुकरण में इस शरीर को रथ बनाएँ और उसपर आरूढ़ होकर विजयी बनें।

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    भाषार्थ

    (चतस्रः दिशः) चार दिशाएं हैं (अश्वतर्यः) चार खच्चरियां (देवरथस्य) परमेश्वर देव के रथ की, (पुरोडाशाः) पुरोडाश हैं (शफाः) खुर, (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष है (उद्धिः) रथ की ऊंचाई। (द्यावापृथिवी) द्युलोक और पृथिवीलोक हैं (पक्षसी) रथ के दो पक्ष, पार्श्व (ऋतवः) ऋतुएं हैं (अभीशवः) लगामें (अन्तर्देशाः) दिशाओं के मध्यवर्ती दिशाएं हैं (किकराः) भृत्य, (वाक्) वाक् है (परिरथ्यम्) रथ के पहियों पर चढ़ा हाल अर्थात् लोहचक्र।

    टिप्पणी

    [जगत् में रथ का, तथा जगत् के घटकों में रथ के घटकों का आरोप किया है। "रथ" की दो अभिप्रेत व्युत्पत्तियाँ हैं, (१) "रथः रंहतेर्वा स्याद् गतिकर्मणः", (२) "रममाणोऽस्मिन् तिष्ठतीति वा” (निरुक्त ९।२।११)। आरोप द्वारा दर्शाया है कि जगत् गतिमान् है, तथा इसमें देवाधिदेव परमेश्वर रममाण हुआ स्थित है। इसीलिये जगत् को "देवरथ" कहा है। पुरोडाश यज्ञिय हैं जो कि गोल होते हैं, अतः इन्हें अश्वतरियों के शफाः अर्थात् खुर कहा है, खुर गोल होते हैं। उद्धिः= उद् + धा + किः। अन्तर्दशाः = उपदिशाएं ऐशानी, आग्नेयी, नैर्ऋती, वायवो। वाक्= पारमेश्वरी वाक्, वेदवाक्, जिसमें प्रतिपादित नियमों के अनुसार परमेश्वर जगत् की रचना करता तथा संचालन करता है। जैसे पारमेश्वरी वेदवाक् जगत् की रक्षिका है, वैसे रथ के पहियों पर चढ़ा लोहचक्र पहियों की रक्षा करता है। देवरथ के अवयव चतस्रः दिशः= चतस्रः अश्वतर्यः पुरोडाशाः= शफाः अन्तरिक्षम् = उद्धिः (रथ की ऊंचाई) द्यावापृथिवी = पक्षसी (रथ के दो पार्श्व) ऋतवः अभीशवः (लगामें) अन्तर्देशाः = किंकराः (भृत्य) वाक् = परिरथ्यम् (पहियों के लोह चक्र)

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Enemies’ Rout

    Meaning

    (This universe is the chariot of Indra, Lord Supreme.) The directions of space are the four horses of the chariot. Their balanced speed of motion transforms the natural materials into food for the yajna of evolution, the result being the spirit, enthusiasm, action and excellence of humanity, the space marks the height of the chariot, heaven and earth are the sides, the seasons are the reins, interdirections are the guards, and Vak, Word of the Veda, is the bond of the wheels of motion. (Chariot in terms of space.)

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    Translation

    Four quarters are the she-mules (asvataryah) of the chariot of the enlightened ones; sacrificial cakes (purodaašah) (are) the hoofs; the midspase (is) the body (of the chariot); heaven and earth (are) the two sides; seasons (are) the rains; intermediate regions (are) the attendants (kinkarah) and the speech (vak) (is) the hood (parirathyam).

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    Translation

    The four quarters of the space are like the mules of devaratha, the wondrous universe, Puredashah, the cereal prepared for the yajna are like the hooves of the atmosphere is like body, the heaven and the earth are like two sides, the Six seasons are like reins, the middle regions are like grooms and voice is its hood.

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    Translation

    The mules of this world-like car of God are heaven’s four quarters; their hooves are the materials of the Yajna, the air its body, its sides are Heaven and Earth, its reins the seasons, voice is its hood, its grooms are sky’s mid-regions.

    Footnote

    The language is figurative, and not so clear to me. It is strange no commentator has given its full explanation, neither Pt. Raja Ram, nor Pt. Jaidev Vidyalankar, nor Pt. Khem Karan Das Trivedi nor Damodar Satvalekar nor Sayana nor Griffith.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २२−(दिशः) प्राच्यादयः (चतस्रः) (अश्वतर्यः) वत्सोक्षाश्वर्षभेभ्यश्च तनुत्वे। पा० ५।३।९१। अश्व-ष्टरच्, ङीप्। खचर्यः (देवरथस्य) विजिगीषूणां युद्धयानस्य (पुरोडाशाः) पुरोऽग्रे दाश्यते दीयते। दाशृ दाने-घञ्। पक्कान्नविशेषाः (शफाः) खुराः (अन्तरिक्षम्) (उद्धिः) भुवः कित्। उ० २।११२। उन्दी क्लेदने-इसिन्, कित्, पृषोदरादिरूपं यथा ऊधः। शरीरम्। स्थितिस्थानम् (द्यावापृथिवी) सूर्यभूमी (पक्षसी) पक्ष परिग्रहे-असुन्। रथपार्श्वौ (ऋतवः) वसन्तादयः कालाः (अभीशवः) अ० ६।१३७।२। अश्वरश्मयः (अन्तर्देशाः) अन्तर्दिशाः (किंकराः) किंयत्तद्बहुषु कृञोऽज्विधानम्। वा० पा० ३।२।२१। किम्+डुकृञ् करणे-अच्। दासाः (वाक्) वाणी (परिरथ्यम्) रथस्येदम्। रथाद्यत्। पा० ४।३।१२१। रथ-यत्। रथचक्रपरिधिः ॥

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