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अथर्ववेद के काण्ड - 8 के सूक्त 8 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 8/ मन्त्र 5
    ऋषिः - भृग्वङ्गिराः देवता - परसेनाहननम्, इन्द्रः, वनस्पतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शत्रुपराजय सूक्त
    64

    अ॒न्तरि॑क्षं॒ जाल॑मासीज्जालद॒ण्डा दिशो॑ म॒हीः। तेना॑भि॒धाय॒ दस्यू॑नां श॒क्रः सेना॒मपा॑वपत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒न्तरि॑क्षम् । जाल॑म् । आ॒सी॒त् । जा॒ल॒ऽद॒ण्डा: । दिश॑: । म॒ही: । तेन॑ । अ॒भि॒ऽधाय॑ । दस्यू॑नाम् । श॒क्र: । सेना॑म् । अप॑ । अ॒व॒प॒त् ॥८.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अन्तरिक्षं जालमासीज्जालदण्डा दिशो महीः। तेनाभिधाय दस्यूनां शक्रः सेनामपावपत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अन्तरिक्षम् । जालम् । आसीत् । जालऽदण्डा: । दिश: । मही: । तेन । अभिऽधाय । दस्यूनाम् । शक्र: । सेनाम् । अप । अवपत् ॥८.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 8; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    शत्रु के नाश का उपदेश।

    पदार्थ

    (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष (जालम्) जाल (आसीत्) था, (जालदण्डाः) जाल के दण्डे (महीः) बड़ी (दिशः) दिशाएँ [थीं]। (तेन) उस [जाल] से (अभिधाय) घेरकर (शक्रः) शक्तिमान् [सेनापति] ने (दस्यूनाम्) डाकुओं की (सेनाम्) सेना को (अप अवपत्) तितर-वितर कर दिया ॥५॥

    भावार्थ

    जो सेनापति अवकाश और सब दिशाओं का ध्यान रखकर व्यूहरचना करता है, वह शत्रुओं पर विजय पाता है ॥५॥

    टिप्पणी

    ५−(अन्तरिक्षम्) अवकाशः (जालम्) जल संवरणे-घञ्। पाशः। विस्तारः (आसीत्) (जालदण्डाः) (दिशः) प्राच्यादयः (महीः) महत्यः (तेन) जालेन (अभिधाय) आच्छाद्य (दस्यूनाम्) अ० २।१४।५। चोरादीनाम् (शक्रः) शक्तः सेनापतिः (सेनाम्) (अप अवपत्) इतस्ततः प्रक्षिप्तवान् ॥

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    विषय

    विशाल जाल [बृहज्जाल]

    पदार्थ

    (अन्तरिक्षम् जालम् आसीत्) = इन्द्र [शक्र-सेनापति] का सैन्य-जाल इतना विशाल था कि मानो अन्तरिक्ष ही जाल था। (मही: दिश: जालदण्डा:) = ये महान् दिशाएँ ही उस जाल की दण्ड थी। (तेन) = उस महान् सैन्य-जाल से (अभिधाय) = बाँधकर (शक्र:) = इस शक्तिशाली सेनापति ने (दस्यूनां सेनाम्) = दस्युओं की सेना को (अपावपत्) = सुदूर खदेड़ दिया। शत्रु-सैन्य का छेदन-भेदन करके राष्ट्र-रक्षण करना ही तो इस शक्र का कर्तव्य है।

    भावार्थ

    सेनापति शक्तिशाली हो। वह अपने विशाल सैन्य-जाल से शत्र-सैन्य को घेर कर छिन्न-भिन्न करनेवाला हो।

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    भाषार्थ

    (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष [समान महान्] (जालम्, आसीत्) जाल था, (महीः दिशः) महती दिशाओं के सदृश महान् (जालदण्डाः) जाल के दण्डे थे। (तेन) उस जाल द्वारा (अभिधाय) बांध कर (शक्रः) शक्तिशाली सम्राट् ने (दस्यूनाम्) उपक्षयकारी शत्रुओं को (सेनाम्) सेना को (अप, अवपत्) पृथक् कर छिन्न-भिन्न कर दिया।

    टिप्पणी

    [अभिधाय, अभिधानी= रस्सी‌। दस्यूनाम्= दसु उपक्षये (दिवादिः)। अवपत् = डुवप् बीजसन्ताने छेदने च (भ्वादिः) लङ् लकार]। अथवा अन्तरिक्ष "वस्तुतः" जाल है, और दिशाएं अन्तरिक्ष के जालदण्ड हैं। यह अन्तरिक्ष में होने वाला युद्ध है। वर्तमान में बहुचर्चित "Star war" है, जिस का कि निर्देश मन्त्र में हुआ है। इससे भी बड़ा युद्ध "लोक-लोकान्तर युद्ध" है, जिस का निर्देश मन्त्र (८) में हुआ है। परन्तु इन वैदिक युद्धों में नरसंहारी आयुधों का प्रयोग वैदिक नहीं, जैसे कि मन्त्रों की व्याख्या से स्पष्ट हो जायेगा। अन्तरिक्ष और लोक-लोकान्तर को जाल इस लिये कहा है कि यहीं विमानों द्वारा लड़ने वाले शत्रुसैनिकों को, सम्राट् के वैमानिक सैनिक घेर कर उन्हें परास्त करते हैं, अवशिष्ट नागरिक प्रजा को क्षति नहीं पहुंचती]।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Enemies’ Rout

    Meaning

    The sky is the limit for the tactical net against the enemy, the vast quarters of space, the sustainers of the net. Having caught up the enemies by that net let mighty Indra, ruler and commander of high action, destroy the force of the destroyers.

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    Translation

    The midspace was the net; great quarters the stakes l holding the net. Covering the army of robbers (dasyus) with that (net), the mighty army-chief, heaped them on the ground.

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    Translation

    The firmament is like a net, great corners are like the rod of met and Shakrah, the mighty electricity surrounding therewith cast down the host of clouds.

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    Translation

    Atmosphere is the net; the poles thereof are the great quarters of the sky. A powerful general therewith makes the army of dacoits run hither and thither.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५−(अन्तरिक्षम्) अवकाशः (जालम्) जल संवरणे-घञ्। पाशः। विस्तारः (आसीत्) (जालदण्डाः) (दिशः) प्राच्यादयः (महीः) महत्यः (तेन) जालेन (अभिधाय) आच्छाद्य (दस्यूनाम्) अ० २।१४।५। चोरादीनाम् (शक्रः) शक्तः सेनापतिः (सेनाम्) (अप अवपत्) इतस्ततः प्रक्षिप्तवान् ॥

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