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अथर्ववेद के काण्ड - 9 के सूक्त 9 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 9/ मन्त्र 20
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - वामः, आदित्यः, अध्यात्मम् छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - आत्मा सूक्त
    88

    द्वा सु॑प॒र्णा स॒युजा॒ सखा॑या समा॒नं वृ॒क्षं परि॑ षस्वजाते। तयो॑र॒न्यः पिप्प॑लं स्वा॒द्वत्त्यन॑श्नन्न॒न्यो अ॒भि चा॑कशीति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    द्वा । सु॒ऽप॒र्णा । स॒ऽयुजा॑ । सखा॑या । स॒मा॒नम् । वृ॒क्षम् । परि॑ । स॒स्व॒जा॒ते॒ इति॑ । तयो॑: । अ॒न्य: । पिप्प॑लम् । स्वा॒दु । अत्ति॑ । अन॑श्नन् । अ॒न्य: । अ॒भि । चा॒क॒शी॒ति॒ ॥१४.२०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परि षस्वजाते। तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभि चाकशीति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    द्वा । सुऽपर्णा । सऽयुजा । सखाया । समानम् । वृक्षम् । परि । सस्वजाते इति । तयो: । अन्य: । पिप्पलम् । स्वादु । अत्ति । अनश्नन् । अन्य: । अभि । चाकशीति ॥१४.२०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 9; मन्त्र » 20
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    जीवात्मा और परमात्मा के ज्ञान का उपदेश।

    पदार्थ

    (द्वा) दोनों [ब्रह्म और जीव] (सुपर्णा) सुन्दर पालन वा पूर्तिवाले [अथवा सुन्दर पक्षोंवाले पक्षीरूप], (सयुजा) एक साथ मिले हुए और (सखाया) [समान ख्यातिवाले] मित्र होकर (समानम्) एक ही (वृक्षम्) स्वीकरणीय [कार्य कारण रूप वा पेड़ रूप संसार] में (परि) सब प्रकार (सस्वजाते) चिपटे रहते हैं। (तयोः) उन दोनों में से (अन्यः) एक [जीव] (स्वादु) चखने योग्य (पिप्पलम्) [पालन वा पूर्ति करनेवाले] फल को (अत्ति) खाता है, (अनश्नन्) न खाता हुआ (अन्यः) दूसरा [परमात्मा] (अभि) सब ओर [सृष्टि और प्रलय में] (चाकशीति) चमकता रहता है ॥२०॥

    भावार्थ

    तीनों ब्रह्म और जीव और जगत् का कारण अनादि सनातन हैं। ब्रह्म और जीव व्यापक और व्याप्य भाव से संसार के बीच मित्रसमान चले आते हैं। जीव कार्यरूप जगत् में शरीर धरकर पुण्य-पाप का फल भोगता है। सर्वशासक परमेश्वर सृष्टि और प्रलय में एक रस बना रहता है ॥२०॥ यह मन्त्र निरुक्त १४।३०। और मुण्डकोपनिषद्, मुण्डक ३ खण्ड १। मन्त्र १ में भी व्याख्यात है ॥

    टिप्पणी

    २०−(द्वा) ब्रह्मजीवात्मानौ। द्वौ, अत्र सर्वत्र सुपां सुलुगित्याकारादेशः (सुपर्णा) अ० १।२४।१। सु+पॄ पालनपूरणयोः-न, यद्वा पत्लृ गतौ-न, तस्य रः। सुपतनौ-निरु० ३।१२। शोभनपालनौ, शोभनपूरणौ, शोभनगमनौ, सुपक्षिणौ (सयुजा) सह युज्यमानौ (सखाया) समानख्यानौ (समानम्) एकमेव (वृक्षम्) अ० ३।६।८। वृक्ष वरणे-क, यद्वा, स्नुव्रश्चि०। उ० ३।६६। ओव्रश्चू छेदने-स प्रत्ययः, कित्। वृक्षो−व्रश्चनात्-निरु० १२।२९। कार्यकारणरूपं यद्वा द्रुमवत्स्वीकरणीयं क्लेशच्छेदकं वा संसारम्। (परि) सर्वतः (सस्वजाते) ष्वञ्ज आलिङ्गने-लट्, श्लुत्वम्। स्वजेते। आश्रयतः (तयोः) जीवब्रह्मणोरनाद्योः-द० (अन्यः) जीवः (पिप्पलम्) कलस्तृपश्च। उ० १।१०४। पा पालने, वा पॄ पालनपूरणयोः-कल। पृषोदरादित्वम्। पिप्पलमुदकम्-निघ० १।१२। पालकं पूरकं वा फलम् (स्वादु) आस्वादनीयम् (अत्ति) भुङ्क्ते (अनश्नन्) अभुञ्जानः (अन्यः) परमेश्वरः-द० (अभि) सर्वतः (चाकशीति) काशृ दीप्तौ, यद्वा कश शब्दं यङ्लुकि-लट्। अवचाकशत् पश्यतिकर्मा-निघ० ३।११। भृशं दीप्यते ॥

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    विषय

    द्वा सुपर्णा

    पदार्थ

    १. (ना सुपर्णा) = जीवात्मा व परमात्मा दो सुपर्ण हैं-उत्तमता से पालन व पूरण करनेवाले हैं। परमात्मा का पालनात्मक कर्म सर्वत्र प्रत्यक्ष है। जीव भी सद्गृहस्थ अनकर एक परिवार का पालन करता है। ये दोनों (सयुजा) = एक साथ मिलकर हृदयान्तरिक्ष में रहनेवाले हैं, (सखाया) = सखा हैं-दोनों का इकट्ठा ही दर्शन होता है। ये दोनों (समानं वृक्षम्) = एक ही संसाररूप वृक्ष का (परिषस्वजाते) = आलिंगन करते हैं, दोनों इस संसार में रहते हैं। २. (तयोः अन्य:) = उन दोनों सुपों में से एक जीव (पिप्पलम्) = संसार-वृक्ष के फल को (स्वादु अति) = मज़ा लेकर खाता है। (अन्य:) = दूसरा प्रभु (अनश्नन्) = फलों का किसी प्रकार से भोग न करता हुआ (अभिचाकशीति) = चारों ओर, इन फलों को खाते हुए जीवों को देखता है। जीव शरीर रक्षण के लिए खाता है तो ठीक है, स्वाद के लिए खाने लगता है, तो प्रभु से दण्डनीय होता है।

    भावार्थ

    जीवात्मा व परमात्मा 'सुपर्ण' हैं, "सयुज्' है, 'सखा' हैं। एक ही प्रकृतिवृक्ष पर रहते हैं। जीव स्वाद से इस प्रकृतिवृक्ष के फलों को खाता है, परन्तु प्रभु उसे केवल देखते हैं और आवश्यक होने पर दण्डित करते हैं।

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    भाषार्थ

    जैसे (सुपर्णा) सुन्दर पंखों वाले, (सयुजा) परस्पर सहयोगी, (सखाया) तथा मित्रों के समान वर्तमान (द्वा) दो पक्षी, (समानम्) एक (वृक्षम्) वृक्ष का (परिषस्वजाते) आश्रय करते हैं, (तयोः) उन दोनों में से (अन्यः) एक (पिप्पलम्) उस वृक्ष के पके हुए फल को (स्वादु) स्वादुपन से (अत्ति) खाता है, और (अन्यः) दूसरा (अनश्नन्) न खाता हुआ (अभि चाकशीति) सब ओर देखता रहता है, ऐसे (सयुजा) व्याप्य-व्यापक भाव से परस्पर साथ सम्बन्ध रखने वाले (सखाया) मित्रों के समान वर्तमान जीव-और-ईश, (समानं वृक्षम्) समान नश्वर-देह का (परिषस्वजाते) आश्रय करते हैं, (तयोः) उनमें से (अन्यः) जीव पापपुण्य से उत्पन्न सुखदुःखात्मक (पिप्पलम्) भोग को (स्वादु अत्ति) स्वादुपन से भोगता है, (अन्यः) और दूसरा ब्रह्मात्मा कर्मफल को (अनश्नन्) न भोगता हुआ उस भोगते हुए जीव को (अभि चाकशीति) सब ओर से देखता अर्थात् उस का साक्षी होता है।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Cure of Diseases

    Meaning

    Two birds, of beautiful wings, the individual soul and the Supreme Soul of the universe, both friends and companions, together nest on the same one Tree of existence. Of the two, one, the individual soul, eats the fruit with relish and enjoys as well as suffers the consequences. The other, the Supreme Soul, simply watches comprehensively all round, without eating anything.

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    Translation

    Two birds, which are closely associated and intimate friends, perch on the same tree. Of them one (the lower soul) tastes of its fruits; the other (the supreme Lord) shines resplendently without tasting. (Also Rg. 1.164.20)

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    Translation

    Two bird-like substances——God and soul whose acts and knowledge are beautiful in there spheres and who are residing together and like friends, rest on the tree-like material cause, the utter which is of the time of same eternity. One of the twain the soul eats the sweet and palatable fruit of the tree which the other (God) eating not sees like an indifferent passive spectator.

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    Translation

    Living together, knit with bonds of friendship, possessing fine knowledge and power are God and soul like two birds, dwell on the same tree of Matter. One of the twain, the soul eats the sweet fruit of its actions, the other, God, eating not, acts as a seer.

    Footnote

    God and soul dwelling in the world are spoken of as two birds who reside together and are mutual friends. Soul reaps the fruit of its action, God is the Seer and Awarder to the soul the fruit of its good and bad acts. Matter is the tree. This verse preaches the eternity of God, Soul and Matter. Soul and Matter are eternal and not created by God. For detailed explanation consult the Mundak, Katha and Shwetashwatra Upanishadas.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २०−(द्वा) ब्रह्मजीवात्मानौ। द्वौ, अत्र सर्वत्र सुपां सुलुगित्याकारादेशः (सुपर्णा) अ० १।२४।१। सु+पॄ पालनपूरणयोः-न, यद्वा पत्लृ गतौ-न, तस्य रः। सुपतनौ-निरु० ३।१२। शोभनपालनौ, शोभनपूरणौ, शोभनगमनौ, सुपक्षिणौ (सयुजा) सह युज्यमानौ (सखाया) समानख्यानौ (समानम्) एकमेव (वृक्षम्) अ० ३।६।८। वृक्ष वरणे-क, यद्वा, स्नुव्रश्चि०। उ० ३।६६। ओव्रश्चू छेदने-स प्रत्ययः, कित्। वृक्षो−व्रश्चनात्-निरु० १२।२९। कार्यकारणरूपं यद्वा द्रुमवत्स्वीकरणीयं क्लेशच्छेदकं वा संसारम्। (परि) सर्वतः (सस्वजाते) ष्वञ्ज आलिङ्गने-लट्, श्लुत्वम्। स्वजेते। आश्रयतः (तयोः) जीवब्रह्मणोरनाद्योः-द० (अन्यः) जीवः (पिप्पलम्) कलस्तृपश्च। उ० १।१०४। पा पालने, वा पॄ पालनपूरणयोः-कल। पृषोदरादित्वम्। पिप्पलमुदकम्-निघ० १।१२। पालकं पूरकं वा फलम् (स्वादु) आस्वादनीयम् (अत्ति) भुङ्क्ते (अनश्नन्) अभुञ्जानः (अन्यः) परमेश्वरः-द० (अभि) सर्वतः (चाकशीति) काशृ दीप्तौ, यद्वा कश शब्दं यङ्लुकि-लट्। अवचाकशत् पश्यतिकर्मा-निघ० ३।११। भृशं दीप्यते ॥

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