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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 135 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 135/ मन्त्र 1
    ऋषिः - परुच्छेपो दैवोदासिः देवता - वायु: छन्दः - निचृदत्यष्टिः स्वरः - गान्धारः

    स्ती॒र्णं ब॒र्हिरुप॑ नो याहि वी॒तये॑ स॒हस्रे॑ण नि॒युता॑ नियुत्वते श॒तिनी॑भिर्नियुत्वते। तुभ्यं॒ हि पू॒र्वपी॑तये दे॒वा दे॒वाय॑ येमि॒रे। प्र ते॑ सु॒तासो॒ मधु॑मन्तो अस्थिर॒न्मदा॑य॒ क्रत्वे॑ अस्थिरन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स्ती॒र्णम् । ब॒र्हिः । उप॑ । नः॒ । या॒हि॒ । वी॒तये॑ । स॒हस्रे॑ण । नि॒ऽयुता॑ । नि॒यु॒त्व॒ते॒ । श॒तिनी॑भिः । नि॒यु॒त्व॒ते॒ । तुभ्य॑म् । हि । पू॒र्वऽपी॑तये । दे॒वाः । दे॒वाय॑ । ये॒मि॒रे । प्र । ते॒ । सु॒तासः॑ । मधु॑ऽमन्तः । अ॒स्थि॒र॒न् । मदा॑य । क्रत्वे॑ । अ॒स्थि॒र॒न् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्तीर्णं बर्हिरुप नो याहि वीतये सहस्रेण नियुता नियुत्वते शतिनीभिर्नियुत्वते। तुभ्यं हि पूर्वपीतये देवा देवाय येमिरे। प्र ते सुतासो मधुमन्तो अस्थिरन्मदाय क्रत्वे अस्थिरन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स्तीर्णम्। बर्हिः। उप। नः। याहि। वीतये। सहस्रेण। निऽयुता। नियुत्वते। शतिनीभिः। नियुत्वते। तुभ्यम्। हि। पूर्वऽपीतये। देवाः। देवाय। येमिरे। प्र। ते। सुतासः। मधुऽमन्तः। अस्थिरन्। मदाय। क्रत्वे। अस्थिरन् ॥ १.१३५.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 135; मन्त्र » 1
    अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 24; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    हे विद्वान् ! जिस (देवाय) दिव्यगुण के लिये (तुभ्यम्) (हि) आपको ही (पूर्वपीतये) प्रथम रस आदि पीने को (देवाः) विद्वान् जन (येमिरे) नियम करें उन (ते) आपके (मदाय) आनन्द और (क्रत्वे) उत्तम बुद्धि के लिये (मधुमन्तः) प्रशंसित मधुरगुणयुक्त (सुतासः) उत्पन्न किये हुए पदार्थ (प्रास्थिरन्) अच्छे प्रकार स्थिर हों और सुखरूप (अस्थिरन्) स्थिर हों वैसे सो आप (नः) हमारे (स्तीर्णम्) ढँपे हुए (बर्हिः) उत्तम विशाल घर को (वीतये) सुख पाने के लिये (उप, याहि) पास पहुँचो (नियुत्वते) जिसके बहुत घोड़े विद्यमान उसके लिये (सहस्रेण) हजारों (नियुता) निश्चित व्यवहार से पास पहुँचो और (शतिनीभिः) जिनमें सैकड़ों वीर विद्यमान उन सेनाओं के साथ (नियुत्वते) बहुत बल से मिले हुए के लिये अर्थात् अत्यन्त बलवान् के लिये पास पहुँचो ॥ १ ॥

    भावार्थ - विद्या और धर्म को जानने की इच्छा करनेवाले मनुष्यों को चाहिये कि विद्वानों का बुलाना सब कभी करें। उनकी सेवा और सङ्ग से विशेष ज्ञान की उन्नति कर नित्य आनन्दयुक्त हों ॥ १ ॥

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