ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 3/ मन्त्र 1
ऋषिः - गाथिनो विश्वामित्रः
देवता - वैश्वानरोऽग्निः
छन्दः - निचृज्जगती
स्वरः - निषादः
वै॒श्वा॒न॒राय॑ पृथु॒पाज॑से॒ विपो॒ रत्ना॑ विधन्त ध॒रुणे॑षु॒ गात॑वे। अ॒ग्निर्हि दे॒वाँ अ॒मृतो॑ दुव॒स्यत्यथा॒ धर्मा॑णि स॒नता॒ न दू॑दुषत्॥
स्वर सहित पद पाठवै॒श्वा॒न॒राय॑ । पृ॒थु॒ऽपाज॑से । विपः॑ । रत्ना॑ । वि॒ध॒न्त॒ । ध॒रुणे॑षु । गात॑वे । अ॒ग्निः । हि । दे॒वान् । अ॒मृतः॑ । दु॒व॒स्यति॑ । अथ॑ । धर्मा॑णि । स॒नता॑ । न । दू॒दु॒ष॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
वैश्वानराय पृथुपाजसे विपो रत्ना विधन्त धरुणेषु गातवे। अग्निर्हि देवाँ अमृतो दुवस्यत्यथा धर्माणि सनता न दूदुषत्॥
स्वर रहित पद पाठवैश्वानराय। पृथुऽपाजसे। विपः। रत्ना। विधन्त। धरुणेषु। गातवे। अग्निः। हि। देवान्। अमृतः। दुवस्यति। अथ। धर्माणि। सनता। न। दूदुषत्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
अष्टक » 2; अध्याय » 8; वर्ग » 20; मन्त्र » 1
अष्टक » 2; अध्याय » 8; वर्ग » 20; मन्त्र » 1
विषय - अब ग्यारह ऋचावाले तीसरे सूक्त का प्रारम्भ है। इसके प्रथम मन्त्र में विद्वानों का विषय वर्णन करते हैं।
पदार्थ -
जैसे (अमृतः) मरणधर्मरहित (अग्निः) अग्नि के समान विद्वान् (हि) ही (देवान्) दिव्य गुणोंवाले पृथिव्यादिकों की (दुवस्यति) सेवा करता (अथ) अनन्तर इसके (न) नहीं (दूदुषत्) दूषित काम कराता वैसे (विपः) मेधावी जन (वैश्वानराय) समस्त मनुष्यों में प्रकाशमान (पृथुपाजसे) महाबली (गातवे) और स्तुति करनेवाले के लिये (सनता) सनातन (रत्ना) रमणीय रत्नों (धर्माणि) और धर्मों को तथा (धरुणेषु) आधारों में रत्नरूपी रमणीय धनों को (विधन्त) सेवन करते हैं ॥१॥
भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे अग्नि अपने सनातन गुण, कर्म, स्वभावों को सेवता है, कभी दोषी नहीं होता, वैसे विद्वान् जन जिज्ञासुओं के हित के लिये विद्या देके अपने-अपने स्वभावों को भूषित करते हैं, कभी धर्माचरण से दूषित नहीं होते हैं ॥१॥
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