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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 31 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 31/ मन्त्र 1
    ऋषिः - बभ्रु रात्रेयः देवता - इन्द्र ऋणञ्चयश्च छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    इन्द्रो॒ रथा॑य प्र॒वतं॑ कृणोति॒ यम॒ध्यस्था॑न्म॒घवा॑ वाज॒यन्त॑म्। यू॒थेव॑ प॒श्वो व्यु॑नोति गो॒पा अरि॑ष्टो याति प्रथ॒मः सिषा॑सन् ॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्रः॑ । रथा॑य । प्र॒ऽवत॑म् । कृ॒णो॒ति॒ । यम् । अ॒धि॒ऽअस्था॑त् । म॒घऽवा॑ । व्ज॒ऽयन्त॑म् । यू॒थाऽइ॑व । प॒श्वः । वि । उ॒नो॒ति॒ । गो॒पाः । अरि॑ष्टः । या॒ति॒ । प्र॒थ॒मः । सिसा॑सन् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रो रथाय प्रवतं कृणोति यमध्यस्थान्मघवा वाजयन्तम्। यूथेव पश्वो व्युनोति गोपा अरिष्टो याति प्रथमः सिषासन् ॥१॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रः। रथाय। प्रऽवतम्। कृणोति। यम्। अधिऽअस्थात्। मघऽवा। वाजऽयन्तम्। यूथाऽइव। पश्वः। वि। उनोति। गोपाः। अरिष्टः। याति। प्रथमः। सिसासन् ॥१॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 31; मन्त्र » 1
    अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 29; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    हे मनुष्यो ! जैसे (अरिष्टः) नहीं मारा गया (प्रथमः) प्रथम (सिषासन्) इच्छा करता हुआ (मघवा) अत्यन्त श्रेष्ठ धनरूप कारणयुक्त (इन्द्रः) सूर्य्य के सदृश सेना का ईश (गोपाः) गौओं का पालन करनेवाला (पश्वः) पशुओं के (यूथेव) समूहों के सदृश लोकों की (वि) विशेष करके (उनोति) प्रेरणा करता और (वाजयन्तम्) भूगोलों को चलाते हुए को (याति) जाता है और (यम्) जिस लोक का (अध्यस्थात्) अधिष्ठित होता, उससे (रथाय) वाहन के लिये (प्रवतम्) नीचे स्थल को (कृणोति) करता है, वैसे आप आचरण करिये ॥१॥

    भावार्थ - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं । जो राजा रथ आदि के चलने के लिये मार्गों को सुडौल बनाय के उन मार्गों से रथ आदि वाहनों पर चढ़ के तथा जाय और आय के पशुओं का पालन करनेवाला पशुओं को जैसे वैसे शत्रुओं को रोक के प्रजाओं का निरन्तर पालन करता है, वही सब प्रकार वृद्धि को प्राप्त होता है ॥१॥

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