ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 43/ मन्त्र 1
आ धे॒नवः॒ पय॑सा॒ तूर्ण्य॑र्था॒ अम॑र्धन्ती॒रुप॑ नो यन्तु॒ मध्वा॑। म॒हो रा॒ये बृ॑ह॒तीः स॒प्त विप्रो॑ मयो॒भुवो॑ जरि॒ता जो॑हवीति ॥१॥
स्वर सहित पद पाठआ । धे॒नवः॑ । पय॑सा । तूर्णि॑ऽअर्थाः । अम॑र्धन्तीः । उप॑ । नः॒ । य॒न्तु॒ । मध्वा॑ । म॒हः । रा॒ये । बृ॒ह॒तीः । स॒प्त । विप्रः॑ । म॒यः॒ऽभुवः॑ । ज॒रि॒ता । जो॒ह॒वी॒ति॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ धेनवः पयसा तूर्ण्यर्था अमर्धन्तीरुप नो यन्तु मध्वा। महो राये बृहतीः सप्त विप्रो मयोभुवो जरिता जोहवीति ॥१॥
स्वर रहित पद पाठआ। धेनवः। पयसा। तूर्णिऽअर्थाः। अमर्धन्तीः। उप। नः। यन्तु। मध्वा। महः। राये। बृहतीः। सप्त। विप्रः। मयःऽभुवः। जरिता। जोहवीति ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 43; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 20; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 20; मन्त्र » 1
विषय - अब सत्रह ऋचावाले तेंतालीसवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में विद्वान् के विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ -
हे मनुष्यो ! जो (जरिता) सम्पूर्ण विद्याओं की स्तुति करनेवाला (विप्रः) बुद्धिमान् जन (महः) बड़े (राये) धन के लिये (सप्त) सात प्रकार की (बृहतीः) बड़ी वाणियों का (जोहवीति) वार-वार उपदेश करता है और उससे प्रेरणा किये गये (मध्वा) मधुर आदि गुणों के साथ और (पयसा) दुग्धदान के साथ (अमर्धन्तीः) नहीं हिंसा करती हुई और (तूर्ण्यर्थाः) शीघ्र चलनेवाले अर्थ जिनमें ऐसी (मयोभुवः) सुख की भावना करानेवाली (धेनवः) गौओं के सदृश वाणियाँ (नः) हम लोगों को (उप, आ, यन्तु) समीप में उत्तम प्रकार प्राप्त होवें ॥१॥
भावार्थ - जो मनुष्य यथार्थवक्ता विद्वानों के सङ्ग से शास्त्रों के विषय से युक्त वाणियों को ग्रहण करके उनकी कृपा से अन्यों के लिये उपदेश देवें, वे भी श्रेष्ठ होते हैं ॥१॥
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