यजुर्वेद - अध्याय 1/ मन्त्र 1
ऋषिः - परमेष्ठी प्रजापतिर्ऋषिः
देवता - सविता देवता
छन्दः - स्वराट्बृहती,ब्राह्मी उष्णिक्,
स्वरः - ऋषभः
157
इ॒षे त्वो॒र्जे त्वा॑ वा॒यव॑ स्थ दे॒वो वः॑ सवि॒ता प्रार्प॑यतु॒ श्रेष्ठ॑तमाय॒ कर्म॑ण॒ऽआप्या॑यध्वमघ्न्या॒ऽइन्द्रा॑य भा॒गं प्र॒जाव॑तीरनमी॒वाऽअ॑य॒क्ष्मा मा व॑ स्ते॒नऽई॑शत॒ माघश॑ꣳसो ध्रु॒वाऽअ॒स्मिन् गोप॑तौ स्यात ब॒ह्वीर्यज॑मानस्य प॒शून् पा॑हि॥१॥
स्वर सहित पद पाठइ॒षे। त्वा॒। ऊ॒र्ज्जे। त्वा॒। वा॒यवः॑। स्थ॒। दे॒वः। वः॒। स॒वि॒ता। प्र। अ॒र्प॒य॒तु॒। श्रे॑ष्ठतमा॒येति॒ श्रे॑ष्ठऽतमाय। कर्म्म॑णे। आ। प्या॒य॒ध्व॒म्। अ॒घ्न्याः॒। इन्द्रा॑य। भा॒गं। प्र॒जाव॑ती॒रिति॑। प्र॒जाऽव॑तीः। अ॒न॒मी॒वाः। अ॒य॒क्ष्माः। मा। वः॒। स्ते॒नः। ई॒श॒त॒। मा अ॒घश॑ꣳसः॒ इत्य॒घऽश॑ꣳसः। ध्रुवाः। अस्मिन्। गोप॑ता॒विति॒ गोऽप॑तौ। स्या॒त॒। ब॒ह्वीः। यज॑मानस्य। प॒शून्। पा॒हि॒ ॥१॥
स्वर रहित मन्त्र
इषे त्वोर्जे त्वा वायव स्थ देवो वः सविता प्रार्पयतु श्रेष्ठतमाय कर्मण आप्यायध्वमघ्न्या इन्द्राय भागम्प्रजावतीरनमीवाऽअयक्ष्मा मा व स्तेनऽईशत माघशँसो धु्रवाऽअस्मिन्गोपतौ स्यात बह्वीः यजमानस्य पशून्पाहि ॥
स्वर रहित पद पाठ
इषे। त्वा। ऊर्ज्जे। त्वा। वायवः। स्थ। देवः। वः। सविता। प्र। अर्पयतु। श्रेष्ठतमायेति श्रेष्ठऽतमाय। कर्म्मणे। आ। प्यायध्वम्। अघ्न्याः। इन्द्राय। भागं। प्रजावतीरिति। प्रजाऽवतीः। अनमीवाः। अयक्ष्माः। मा। वः। स्तेनः। ईशत। मा अघशꣳसः इत्यघऽशꣳसः। ध्रुवाः। अस्मिन्। गोपताविति गोऽपतौ। स्यात। बह्वीः। यजमानस्य। पशून्। पाहि॥१॥
विषय - इसके प्रथम अध्याय के प्रथम मन्त्र में उत्तम-उत्तम कामों की सिद्धि के लिये मनुष्यों को ईश्वर की प्रार्थना करनी अवश्य चाहिये, इस बात का प्रकाश किया है॥
पदार्थ -
हे मनुष्य लोगो! जो (सविता) सब जगत् की उत्पत्ति करने वाला सम्पूर्ण ऐश्वर्ययुक्त (देवः) सब सुखों के देने और सब विद्या के प्रसिद्ध करने वाला परमात्मा है, सो (वः) तुम हम और अपने मित्रों के जो (वायवः) सब क्रियाओं के सिद्ध करानेहारे स्पर्श गुणवाले प्राण अन्तःकरण और इन्द्रियां (स्थ) हैं, उनको (श्रेष्ठतमाय) अत्युत्तम (कर्मणे) करने योग्य सर्वोपकारक यज्ञादि कर्मों के लिये (प्रार्पयतु) अच्छी प्रकार संयुक्त करे। हम लोग (इषे) अन्न आदि उत्तम-उत्तम पदार्थों और विज्ञान की इच्छा और (ऊर्जे) पराक्रम अर्थात् उत्तम रस की प्राप्ति के लिये (भागम्) सेवा करने योग्य धन और ज्ञान के भरे हुए (त्वा) उक्त गुणवाले और (त्वा) श्रेष्ठ पराक्रमादि गुणों के देने हारे आपका सब प्रकार से आश्रय करते हैं। हे मित्र लोगो! तुम भी ऐसे होकर (आप्यायध्वम्) उन्नति को प्राप्त हो तथा हम भी हों। हे भगवन् जगदीश्वर! हम लोगों के (इन्द्राय) परम ऐश्वर्य्य की प्राप्ति के लिये (प्रजावतीः) जिनके बहुत सन्तान हैं तथा जो (अनमीवाः) व्याधि और (अयक्ष्माः) जिनमें राजयक्ष्मा आदि रोग नहीं हैं, वे (अघ्न्याः) जो-जो गौ आदि पशु वा उन्नति करने योग्य हैं, जो कभी हिंसा करने योग्य नहीं, जो इन्द्रियां वा पृथिवी आदि लोक हैं, उन को सदैव (प्रार्पयतु) नियत कीजिये। हे जगदीश्वर! आपकी कृपा से हम लोगों में से दुःख देने के लिये कोई (अघशंसः) पापी वा (स्तेनः) चोर डाकू (मा ईशत) मत उत्पन्न हो तथा आप इस (यजमानस्य) परमेश्वर और सर्वोपकार धर्म के सेवन करने वाले मनुष्य के (पशून्) गौ, घोड़े और हाथी आदि तथा लक्ष्मी और प्रजा की (पाहि) निरन्तर रक्षा कीजिये, जिससे इन पदार्थों के हरने को पूर्वोक्त कोई दुष्ट मनुष्य समर्थ (मा) न हो, (अस्मिन्) इस धार्मिक (गोपतौ) पृथिवी आदि पदार्थों की रक्षा चाहने वाले सज्जन मनुष्य के समीप (बह्वीः) बहुत से उक्त पदार्थ (ध्रुवाः) निश्चल सुख के हेतु (स्यात) हों। इस मन्त्र की व्याख्या शतपथ-ब्राह्मण में की है, उसका ठिकाना पूर्व संस्कृत-भाष्य में लिख दिया और आगे भी ऐसा ही ठिकाना लिखा जायगा, जिसको देखना हो वह उस ठिकाने से देख लेवे॥१॥
भावार्थ - विद्वान् मनुष्यों को सदैव परमेश्वर और धर्मयुक्त पुरुषार्थ के आश्रय से ऋग्वेद को पढ़ के गुण और गुणी को ठीक-ठीक जानकर सब पदार्थों के सम्प्रयोग से पुरुषार्थ की सिद्धि के लिये अत्युत्तम क्रियाओं से युक्त होना चाहिये कि जिससे परमेश्वर की कृपापूर्वक सब मनुष्यों को सुख और ऐश्वर्य की वृद्धि हो। सब लोगों को चाहिये कि अच्छे-अच्छे कामों से प्रजा की रक्षा तथा उत्तम-उत्तम गुणों से पुत्रादि की शिक्षा सदैव करें कि जिससे प्रबल रोग, विघ्न और चोरों का अभाव होकर प्रजा और पुत्रादि सब सुखों को प्राप्त हों, यही श्रेष्ठ काम सब सुखों की खान है। हे मनुष्य लोगो! आओ अपने मिलके जिसने इस संसार में आश्चर्यरूप पदार्थ रचे हैं, उस जगदीश्वर के लिये सदैव धन्यवाद देवें। वही परम दयालु ईश्वर अपनी कृपा से उक्त कामों को करते हुए मनुष्यों की सदैव रक्षा करता है॥१॥
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