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  • यजुर्वेद - अध्याय 22/ मन्त्र 29
    ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - लिङ्गोक्ता देवताः छन्दः - निचृदत्यष्टिः स्वरः - गान्धारः
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    पृ॒थि॒व्यै स्वाहा॒न्तरि॑क्षाय॒ स्वाहा॑ दि॒वे स्वाहा॒ सूर्या॑य॒ स्वाहा॑ च॒न्द्राय॒ स्वाहा॒ नक्ष॑त्रेभ्यः॒ स्वाहा॒द्भ्यः स्वाहौष॑धीभ्यः॒ स्वाहा॒ वन॒स्पति॑भ्यः॒ स्वाहा॑ परिप्ल॒वेभ्यः॒ स्वाहा॑ चराच॒रेभ्यः॒ स्वाहा॑ सरीसृ॒पेभ्यः॒ स्वाहा॑॥२९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पृ॒थि॒व्यै। स्वाहा॑। अ॒न्तरि॑क्षाय। स्वाहा॑। दि॒वे। स्वाहा॑। सूर्य्या॑य। स्वाहा॑। च॒न्द्राय॑। स्वाहा॑। नक्ष॑त्रेभ्यः। स्वाहा॑। अ॒द्भ्य इत्य॒त्ऽभ्यः। स्वाहा॑। ओष॑धीभ्यः। स्वाहा॑। वन॒स्पति॑भ्य॒ इति॒ वन॒स्पति॑ऽभ्यः। स्वाहा॑। प॒रि॒प्ल॒वेभ्य॒ इति॑ परिऽप्ल॒वेभ्यः॑। स्वाहा॑। च॒रा॒च॒रेभ्यः॑। स्वाहा॑। स॒री॒सृ॒पेभ्यः॑। स्वाहा॑ ॥२९ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पृथिव्यै स्वाहान्तरिक्षाय स्वाहा दिवे स्वाहा सूर्याय स्वाहा चन्द्राय स्वाहा नक्षत्रेभ्यः स्वाहाद्भ्यः स्वाहौषधीभ्यः स्वाहा वनस्पतिभ्यः स्वाहा परिप्लवेभ्यः स्वाहा चराचरेभ्यः स्वाहा सरीसृपेभ्यः स्वाहा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    पृथिव्यै। स्वाहा। अन्तरिक्षाय। स्वाहा। दिवे। स्वाहा। सूर्य्याय। स्वाहा। चन्द्राय। स्वाहा। नक्षत्रेभ्यः। स्वाहा। अद्भ्य इत्यत्ऽभ्यः। स्वाहा। ओषधीभ्यः। स्वाहा। वनस्पतिभ्य इति वनस्पतिऽभ्यः। स्वाहा। परिप्लेवेभ्य इति परिऽप्लवेभ्यः। स्वाहा। चराचरेभ्यः। स्वाहा। सरीसृपेभ्यः। स्वाहा॥२९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 22; मन्त्र » 29
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    पदार्थ -
    जो मनुष्य (पृथिव्यै) विथरी हुई इस पृथिवी के लिये (स्वाहा) उत्तम यज्ञक्रिया (अन्तरिक्षाय) अवकाश अर्थात् पदार्थों के बीच की पोल के लिये (स्वाहा) उक्त क्रिया (दिवे) बिजुली की शुद्धि के लिये (स्वाहा) यज्ञक्रिया (सूर्य्याय) सूर्य्यमण्डल की उत्तमता के लिये (स्वाहा) उत्तम यज्ञक्रिया (चन्द्राय) चन्द्रमण्डल के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (नक्षत्रेभ्यः) अश्विनी आदि नक्षत्रलोकों की उत्तमता के लिये (स्वाहा) उत्तम यज्ञक्रिया (अद्भ्यः) जलों के लिये (स्वाहा) उत्तम यज्ञक्रिया (ओषधीभ्यः) ओषधियों के लिये (स्वाहा) उत्तम यज्ञक्रिया (वनस्पतिभ्यः) वट वृक्ष आदि के लिये (स्वाहा) उत्तम यज्ञक्रिया (परिप्लवेम्यः) जो सब ओर से आते-जाते उन तारागणों के लिये (स्वाहा) उत्तम यज्ञक्रिया (चराचरेभ्यः) स्थावर-जङ्गम जीवों और जड़ पदार्थों के लिये (स्वाहा) उत्तम यज्ञक्रिया तथा (सरीसृपेभ्यः) जो रिंगते हैं, उन सर्प्प आदि जीवों के लिये (स्वाहा) उत्तम यज्ञक्रिया को अच्छे प्रकार युक्त करें तो वे सब की शुद्धि करने को समर्थ हों॥२९॥

    भावार्थ - जो सुगन्धित आदि पदार्थ को पृथिवी आदि पदार्थों में अग्नि के द्वारा विस्तार के अर्थात् फैला के पवन और जल के द्वारा ओषधि आदि पदार्थों में प्रवेश करा सब को अच्छे प्रकार शुद्ध कर आरोग्यपन को सिद्ध कराते हैं, वे आयुर्दा के बढ़ाने वाले होते हैं॥२९॥

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