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  • यजुर्वेद - अध्याय 29/ मन्त्र 13
    ऋषिः - भार्गवो जमदग्निर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - भुरिक् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
    7

    य॒मेन॑ द॒त्तं त्रि॒तऽए॑नमायुन॒गिन्द्र॑ऽएणं प्रथ॒मोऽअध्य॑तिष्ठत्।ग॒न्ध॒र्वोऽअ॑स्य रश॒नाम॑गृभ्णा॒त् सूरा॒दश्वं॑ वस॒वो निर॑तष्ट॥१३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य॒मेन॑। द॒त्तम्। त्रि॒तः। ए॒न॒म्। आ॒यु॒न॒क्। अ॒यु॒न॒गत्य॑युनक्। इन्द्रः॑। ए॒न॒म्। प्र॒थ॒मः। अधि॑। अ॒ति॒ष्ठ॒त्। ग॒न्ध॒र्वः। अ॒स्य॒। र॒श॒नाम्। अ॒गृ॒भ्णा॒त्। सूरा॑त्। अश्व॑म्। व॒स॒वः। निः। अ॒त॒ष्ट॒ ॥१३ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यमेन दत्तन्त्रितऽएनमायुनगिन्द्रऽएणम्प्रथमोऽअध्यतिष्ठत् । गन्धर्वाऽअस्य रशनामगृभ्णात्सूरादश्वँवसवो निरतष्ट ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यमेन। दत्तम्। त्रितः। एनम्। आयुनक्। अयुनगत्ययुनक्। इन्द्रः। एनम्। प्रथमः। अधि। अतिष्ठत्। गन्धर्वः। अस्य। रशनाम्। अगृभ्णात्। सूरात्। अश्वम्। वसवः। निः। अतष्ट॥१३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 29; मन्त्र » 13
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    पदार्थ -
    हे (वसवः) विद्वान्! जो (इन्द्रः) बिजुली (त्रितः) पृथिवी, जल और आकाश से (यमेन) नियमकर्त्ता वायु ने (दत्तम्) दिये अर्थात् उत्पन्न किये (एनम्) इस अग्नि को (आयुनक्) युक्त करती है (एनम्) इस को प्राप्त हो के (प्रथमः) विस्तीर्ण प्रख्यात विद्युत् (अध्यतिष्ठत्) सर्वोपरि स्थित होती है (गन्धर्वः) पृथिवी को धारण करता हुआ (अस्य) इस सूर्य की (रशनाम्) रस्सी के तुल्य किरणों की गति को (अगृभ्णात्) ग्रहण करता है, इस (सूरात्) सूर्यरूप से (अश्वम्) शीघ्रगामी वायु को (निरतष्ट) सूक्ष्म करता है, उस को तुम लोग विस्तृत करो॥१३॥

    भावार्थ - हे मनुष्यो! ईश्वर ने इस संसार में जिस पदार्थ में जैसी रचना की है, उस को तुम लोग विद्या से जानो और इस सृष्टिविद्या को ग्रहण कर अनेक सुखों को सिद्ध करो॥१३॥

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