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  • यजुर्वेद - अध्याय 4/ मन्त्र 4
    ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - परमात्मा देवता छन्दः - निचृत् ब्राह्मी पङ्क्ति, स्वरः - पञ्चमः
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    चि॒त्पति॑र्मा पुनातु वा॒क्पति॑र्मा पुनातु दे॒वो मा॑ सवि॒ता पु॑ना॒त्वच्छि॑द्रेण प॒वित्रे॑ण॒ सूर्य॑स्य र॒श्मिभिः॑। तस्य॑ ते पवित्रपते प॒वित्र॑पूतस्य॒ यत्का॑मः पु॒ने तच्छ॑केयम्॥४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    चि॒त्पति॒रिति॑ चि॒त्ऽपतिः॑। मा॒। पु॒ना॒तु। वा॒क्पति॒रिति॑ वाक्ऽपतिः॑। मा॒। पु॒ना॒तु॒। दे॒वः। मा॒। स॒वि॒ता। पु॒ना॒तु॒। अच्छि॑द्रेण। प॒वित्रे॑ण। सूर्य्य॑स्य। र॒श्मिभि॑रिति॑ र॒श्मिऽभिः॒। तस्य॑। ते॒। प॒वि॒त्र॒प॒त॒ इति॑ प॒वित्र॑ऽपते। प॒वित्र॑पूत॒स्येति॑ प॒वित्र॑ऽपूतस्य। यत्का॑म॒ इति॒ यत्ऽका॑मः। पुने। तत्। श॒के॒य॒म् ॥४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    चित्पतिर्मा पुनातु वाक्पतिर्मा पुनातु देवो मा सविता पुनावच्छिद्रेण पवित्रेण सूर्यस्य रश्मिभिः । तस्य ते पवित्रपते पवित्रपूतस्य यत्कामः पुने तच्छकेयम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    चित्पतिरिति चित्ऽपतिः। मा। पुनातु। वाक्पतिरिति वाक्ऽपतिः। मा। पुनातु। देवः। मा। सविता। पुनातु। अच्छिद्रेण। पवित्रेण। सूर्य्यस्य। रश्मिभिरिति रश्मिऽभिः। तस्य। ते। पवित्रपत इति पवित्रऽपते। पवित्रपूतस्येति पवित्रऽपूतस्य। यत्काम इति यत्ऽकामः। पुने। तत्। शकेयम्॥४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 4; मन्त्र » 4
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    पदार्थ -
    हे (पवित्रपते) पवित्रता के पालन करनेहारे परमेश्वर! (चित्पतिः) विज्ञान के स्वामी (वाक्पतिः) वाणी को निर्मल और (सविता) सब जगत् को उत्पन्न करने वाले (देवः) दिव्य स्वरूप आप (पवित्रेण) शुद्ध करने वाले (अच्छिद्रेण) अविनाशी विज्ञान वा (सूर्यस्य) सूर्य और प्राण के (रश्मिभिः) प्रकाश और गमनागमनों से (मा) मुझ और मेरे चित्त को (पुनातु) पवित्र कीजिये, (मा) मुझ और मेरी वाणी को (पुनातु) पवित्र कीजिये, (मा) मुझ तथा मेरे चक्षु को (पुनातु) पवित्र कीजिये, जिस (पवित्रपूतस्य) शुद्ध स्वाभाविक विज्ञान आदि गुणों से पवित्र (ते) आप की कृपा से (यत्कामः) जिस उत्तम कामनायुक्त मैं (पुने) पवित्र होता हूं, जिस (ते) आपकी उपासना से (तत्) उस अत्युत्तम कर्म के करने को (शकेयम्) समर्थ होऊँ, उस आपकी सेवा मुझ को क्यों न करनी चाहिये॥४॥

    भावार्थ - मनुष्यों को उचित है कि जिस वेद के जानने वा पालन करने वाले परमेश्वर ने वेदविद्या, पृथिवी, जल, वायु और सूर्य्य आदि शुद्धि करने वाले पदार्थ प्रकाशित किये हैं, उसकी उपासना तथा पवित्र कर्मों के अनुष्ठान से मनुष्यों को पूर्ण कामना और पवित्रता का सम्पादन अवश्य करना चाहिये॥४॥

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