Loading...

मन्त्र चुनें

  • यजुर्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • यजुर्वेद - अध्याय 31/ मन्त्र 17
    ऋषिः - उत्तरनारायण ऋषिः देवता - आदित्यो देवता छन्दः - भुरिक् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
    4

    अ॒द्भ्यः सम्भृ॑तः पृथि॒व्यै रसा॑च्च वि॒श्वक॑र्मणः॒ सम॑वर्त्त॒ताग्रे॑।तस्य॒ त्वष्टा॑ वि॒दध॑द् रू॒पमे॑ति॒ तन्मर्त्य॑स्य देव॒त्वमा॒जान॒मग्रे॑॥१७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒द्भ्य इत्य॒त्ऽभ्यः। सम्भृ॑त॒ इति॑ सम्ऽभृ॑तः। पृ॒थि॒व्यै। रसा॑त्। च॒। वि॒श्वक॑र्मण॒ इति॑ वि॒श्वऽक॑र्मणः। सम्। अ॒व॒र्त्त॒त॒। अग्रे॑ ॥ तस्य॑। त्वष्टा॑। विदध॑दिति॑ वि॒ऽदध॑त्। रू॒पम्। ए॒ति॒। तत्। मर्त्य॑स्य। दे॒व॒त्वमिति॑ देव॒ऽत्वम्। आ॒जान॒मित्या॒ऽजान॑म्। अग्रे॑ ॥१७ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अद्भ्यः सम्भृतः पृथिव्यै रसाच्च विश्वकर्मणः समवर्तताग्रे । तस्य त्वष्टा विदधद्रूपमेति तन्मर्त्यस्य देवत्वमाजानमग्रे ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अद्भय इत्यत्ऽभ्यः। सम्भृत इति सम्ऽभृतः। पृथिव्यै। रसात्। च। विश्वकर्मण इति विश्वऽकर्मणः। सम्। अवर्त्तत। अग्रे॥ तस्य। त्वष्टा। विदधदिति विऽदधत्। रूपम्। एति। तत्। मर्त्यस्य। देवत्वमिति देवऽत्वम्। आजानमित्याऽजानम्। अग्रे॥१७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 31; मन्त्र » 17
    Acknowledgment
    Top