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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 147
ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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अ꣢꣫त्राह꣣ गो꣡र꣢मन्वत꣣ ना꣢म꣣ त्व꣡ष्टु꣢रपी꣣꣬च्य꣢꣯म् । इ꣣त्था꣢ च꣣न्द्र꣡म꣢सो गृ꣣हे꣢ ॥१४७॥

स्वर सहित पद पाठ

अ꣡त्र꣢꣯ । अ꣡ह꣢꣯ । गोः । अ꣣मन्वत । ना꣡म꣢꣯ । त्व꣡ष्टुः꣢꣯ । अ꣣पीच्य꣢꣯म् । इ꣣त्था꣢ । च꣣न्द्र꣡म꣢सः । च꣣न्द्र꣢ । म꣣सः । गृहे꣢ ॥१४७॥


स्वर रहित मन्त्र

अत्राह गोरमन्वत नाम त्वष्टुरपीच्यम् । इत्था चन्द्रमसो गृहे ॥१४७॥


स्वर रहित पद पाठ

अत्र । अह । गोः । अमन्वत । नाम । त्वष्टुः । अपीच्यम् । इत्था । चन्द्रमसः । चन्द्र । मसः । गृहे ॥१४७॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 147
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 4;
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पदार्थ -
प्रथमः—सूर्य से चन्द्रमा के प्रकाशित होने के पक्ष में। (त्वष्टुः) विच्छेदक, प्रकाश द्वारा शीघ्र व्याप्तिशील, देदीप्यमान सूर्य की (गोः) सुषुम्णनामक रश्मि के (अत्र अह) इस (चन्द्रमसः गृहे) चन्द्रमण्डल में (अपीच्यम्) प्रच्छन्न रूप से (नाम) अवस्थान को, विद्वान् लोग (इत्था) सत्य रूप में (अमन्वत) जानते हैं। अर्थात् चन्द्रमा सूर्य से प्रकाशित होता है, इस रहस्य को विद्वान् लोग भली-भाँति समझते हैं ॥ निरुक्त में कहा है कि आदित्य का एक रश्मिसमूह चन्द्रमा में जाकर दीप्त होता है, अर्थात् आदित्य से चन्द्रमा की दीप्ति होती है, जैसा कि वेद में कहा है सुषुम्ण नामक सूर्य रश्मियाँ हैं, चन्द्रमा उन रश्मियों को धारण करने के कारण गन्धर्व है’’ (य० १८।४०)। ‘अत्राह गोरमन्वत’ आदि मन्त्र में ‘गोः’ पद चन्द्रमा को प्रकाशित करनेवाली उन सुषुम्ण नामक सूर्यरश्मियों के लिए ही आया है ॥ द्वितीय—परमात्मापरक अर्थ। (त्वष्टुः) दुःखों के विच्छेदक, सर्वत्र व्यापक, तेज से प्रदीप्त और जगत् के रचयिता इन्द्र नामक परमेश्वर की (गोः) दिव्य प्रकाशरश्मि का (अत्र अह) इस (चन्द्रमसः गृहे) मन रूप चन्द्र के निवासस्थान हृदय में (अपीच्यं नाम) आगमन को, उपासक लोग (इत्था) सत्य रूप में (अमन्वत) अनुभव करते हैं ॥३॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥३॥

भावार्थ - जैसे सूर्य के प्रकाश से चन्द्रमा प्रकाशित होता है, वैसे ही परमेश्वर के प्रकाश से स्तुतिकर्ताओं के हृदय प्रकाशित होते हैं ॥३॥

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