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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 334
ऋषिः - विमद ऐन्द्रः, वसुकृद्वा वासुक्रः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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य꣡जा꣢मह꣣ इ꣢न्द्रं꣣ व꣡ज्र꣢दक्षिण꣣ꣳ ह꣡री꣢णाꣳ र꣣थ्यां꣢३꣱वि꣡व्र꣢तानाम् । प्र꣡ श्मश्रु꣢꣯भि꣣र्दो꣡धु꣢वदू꣣र्ध्व꣡धा꣢ भुव꣣द्वि꣡ सेना꣢꣯भि꣣र्भ꣡य꣢मानो꣣ वि꣡ राध꣢꣯सा ॥३३४॥

स्वर सहित पद पाठ

य꣡जा꣢꣯महे । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । व꣡ज्र꣢꣯दक्षिणम् । व꣡ज्र꣢꣯ । द꣣क्षिणम् । ह꣡री꣢꣯णाम् । र꣣थ्या꣢꣯म् । वि꣡व्र꣢꣯तानाम् । वि । व्र꣣तानाम् । प्र꣢ । श्म꣡श्रु꣢꣯भिः । दो꣡धु꣢꣯वत् । ऊ꣣र्ध्व꣡धा꣢ । भु꣣वत् । वि꣢ । से꣡ना꣢꣯भिः । भ꣡य꣢꣯मानः । वि । रा꣡ध꣢꣯सा ॥३३४॥


स्वर रहित मन्त्र

यजामह इन्द्रं वज्रदक्षिणꣳ हरीणाꣳ रथ्यां३विव्रतानाम् । प्र श्मश्रुभिर्दोधुवदूर्ध्वधा भुवद्वि सेनाभिर्भयमानो वि राधसा ॥३३४॥


स्वर रहित पद पाठ

यजामहे । इन्द्रम् । वज्रदक्षिणम् । वज्र । दक्षिणम् । हरीणाम् । रथ्याम् । विव्रतानाम् । वि । व्रतानाम् । प्र । श्मश्रुभिः । दोधुवत् । ऊर्ध्वधा । भुवत् । वि । सेनाभिः । भयमानः । वि । राधसा ॥३३४॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 334
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 11;
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पदार्थ -
प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। हम (वज्रदक्षिणम्) जिसका न्यायरूप दण्ड सदा जागरूक है ऐसे, (विव्रतानाम्) विविध कर्मों से युक्त (हरीणाम्) आकर्षणशक्तिवाले, गतिमय सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, पृथिवी आदि लोकों के (रथ्यम्) रथी (इन्द्रम्) सर्वद्रष्टा परमात्मा की (यजामहे) पूजा करते हैं। वह (श्मश्रुभिः) सूर्य-किरणों द्वारा (प्र दोधुवत्) रोग आदियों को अतिशय पुनः पुनः प्रकंपित कर देता है, (ऊर्ध्वधा) सर्वोन्नत वह (सेनाभिः) सेनाओं के समान विद्यमान अपनी शक्तियों से (भयमानः) दुर्जनों को भयभीत करता हुआ (वि भुवत्) वैभवशाली बना हुआ है, और (राधसा) ऐश्वर्य से (वि) वैभवशाली बना हुआ है ॥ द्वितीय—राजा-प्रजा के पक्ष में। हम राष्ट्रवासी प्रजाजन (वज्रदक्षिणम्) दाहिने हाथ में वज्रतुल्य दृढ शस्त्रास्त्रों को धारण करनेवाले (विव्रतानाम्) विविध कर्मोंवाले (हरीणाम्) अग्नि, वायु, विद्युत् और सूर्यकिरणों को (रथ्यम्) अग्नियानों, वायुयानों, विद्युद्यानों और सूर्यताप से चलनेवाले यानों में प्रयुक्त करनेवाले (इन्द्रम्) शूरवीर राजा वा सेनाध्यक्ष को (यजामहे) सत्कृत करते हैं। वह शत्रुओं की (श्मश्रुभिः दोधुवत्) मूछें नीची करता हुआ अर्थात् उनका गर्व चूर करता हुआ (ऊर्ध्वधा) उन्नत (भुवत्) होता है, तथा (सेनाभिः) अपनी दुर्दान्त सेनाओं से (भयमानः) शत्रुओं को भयभीत करता हुआ (वि भुवत्) विजयी होता है, और (राधसा) ऐश्वर्य से (वि) वैभवशाली होता है ॥३॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥३॥

भावार्थ - दुष्टों और पापों के प्रति दण्डधारी, न्यायकारी, सब लोकों को नियम से अपनी-अपनी परिधि पर और सूर्य के चारों ओर घुमानेवाला, शौर्य आदि गुणों में सबसे बढ़ा हुआ परमेश्वर जैसे सब जनों से पूजनीय है, वैसे ही अनेक शस्त्रास्त्रों से युक्त, राष्ट्र में विमानादि यानों का प्रबन्धकर्ता, सेनाओं द्वारा शत्रुओं को पराजित करनेवाला सेनाध्यक्ष अथवा राजा भी सब प्रजाओं द्वारा सम्माननीय है ॥३॥

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