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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 876
ऋषिः - पवित्र आङ्गिरसः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - जगती स्वरः - निषादः काण्ड नाम -
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त꣡पो꣢ष्प꣣वि꣢त्रं꣣ वि꣡त꣢तं दि꣣व꣢स्प꣣दे꣡ऽर्च꣢न्तो अस्य꣣ त꣡न्त꣢वो꣣꣬ व्य꣢꣯स्थिरन् । अ꣡व꣢न्त्यस्य पवि꣣ता꣡र꣢मा꣣श꣡वो꣢ दि꣣वः꣢ पृ꣣ष्ठ꣡मधि꣢꣯ रोहन्ति꣣ ते꣡ज꣢सा ॥८७६॥

स्वर सहित पद पाठ

त꣡पोः꣢꣯ । प꣣वि꣡त्र꣢म् । वि꣡तत꣢꣯म् । वि । त꣣तम् । दिवः꣢ । प꣣दे꣢ । अ꣡र्च꣢꣯न्तः । अ꣣स्य । त꣡न्त꣢꣯वः । वि । अ꣣स्थिरन् । अ꣡व꣢꣯न्ति । अ꣣स्य । पविता꣡र꣢म् । आ꣣श꣡वः꣢ । दि꣣वः꣢ । पृ꣣ष्ठ꣢म् । अ꣡धि꣢꣯ । रो꣣हन्ति । ते꣡ज꣢꣯सा ॥८७६॥


स्वर रहित मन्त्र

तपोष्पवित्रं विततं दिवस्पदेऽर्चन्तो अस्य तन्तवो व्यस्थिरन् । अवन्त्यस्य पवितारमाशवो दिवः पृष्ठमधि रोहन्ति तेजसा ॥८७६॥


स्वर रहित पद पाठ

तपोः । पवित्रम् । विततम् । वि । ततम् । दिवः । पदे । अर्चन्तः । अस्य । तन्तवः । वि । अस्थिरन् । अवन्ति । अस्य । पवितारम् । आशवः । दिवः । पृष्ठम् । अधि । रोहन्ति । तेजसा ॥८७६॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 876
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 16; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 5; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
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पदार्थ -
(तपोः-पवित्रं विततम्) काम आदि को या दुष्टों को तपाने वाले परमात्मा का पवित्र तथा उपासक को पवित्र करने वाला स्वरूप संसार में फैला हुआ है (अस्य तन्तवः) इसका अपने अन्दर विस्तार करने वाले (अर्चन्तः) इसकी अर्चना स्तुति करते हुए (दिवस्पदे) अमृतधाम मोक्षपद में “त्रिपादस्यामृतं दिवि” [ऋ॰ १०.९०.३] (व्यस्थिरन्) विशेषरूप से स्थिर हो जाते हैं—विराजमान हो जाते हैं (अस्य-आशवः) इसके अन्दर उपासना द्वारा समन्तरूप से शयन करने वाले उपासक (पवितारम्-अवन्ति) उस पवित्रकर्ता परमात्मा का आलिङ्गन करते हैं “अव रक्षण....आलिङ्गन....” [भ्वादि॰] पुनः (तेजसा दिवः पृष्ठम्-अधिरोहन्ति) अध्यात्मतेज से अमृतधाम मोक्ष के प्राप्तव्य पद पर अधिष्ठित हो जाते हैं।

भावार्थ - काम आदि दोषों और दुष्टों का तापक उपासकों के पवित्रकारक परमात्मा का स्वरूप संसार में फैल रहा है, इसका अपने अन्दर विस्तार करने वाले मननशील उपासकजन इसकी अर्चना स्तुति करते हुए अमृतधाम मोक्षपद में विशेषरूप से विराजमान हो जाते हैं तथा इसके अन्दर उपासना द्वारा समन्त रूप से शयन करने वाले उपासक पवित्रकर्ता परमात्मा का आलिङ्गन करते हैं। पुनः अध्यात्मतेज से अमृतधाम मोक्ष के प्राप्तव्य पद पर अधिष्ठित हो जाते हैं॥२॥

विशेष - <br>

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