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अथर्ववेद > काण्ड 1 > सूक्त 17

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  • अथर्ववेद - काण्ड 1/ सूक्त 17/ मन्त्र 1
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - योषित् छन्दः - भुरिगनुष्टुप् सूक्तम् - रुधिरस्रावनिवर्तनधमनीबन्धन सूक्त

    अ॒मूर्या यन्ति॑ यो॒षितो॑ हि॒रा लोहि॑तवाससः। अ॒भ्रात॑र इव जा॒मय॒स्तिष्ठ॑न्तु ह॒तव॑र्चसः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒मू: । या: । यन्ति॑ । यो॒षित॑:। हि॒रा: । लोहि॑तऽवासस: । अ॒भ्रात॑र:ऽइव । जा॒मय॑: । तिष्ठ॑न्तु । ह॒तऽव॑र्चस: ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अमूर्या यन्ति योषितो हिरा लोहितवाससः। अभ्रातर इव जामयस्तिष्ठन्तु हतवर्चसः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अमू: । या: । यन्ति । योषित:। हिरा: । लोहितऽवासस: । अभ्रातर:ऽइव । जामय: । तिष्ठन्तु । हतऽवर्चस: ॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 1; सूक्त » 17; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    (अमूः) वे (याः) जो (योषितः) सेवायोग्य वा सेवा करनेहारी [अथवा स्त्रियों के समान हितकारी] (लोहितवाससः) लोह में ढकी हुयी (हिराः) नाड़ियाँ (यन्ति) चलती हैं, वे (अभ्रातरः) बिना भाइयों की (जामयः इव) बहिनों के समान, (हतवर्चसः) निस्तेज होकर (तिष्ठन्तु) ठहर जाएँ ॥१॥

    भावार्थ - इस सूक्त में सिराछेदन, अर्थात् नाड़ी [फ़सद्] खोलने का वर्णन है। मन्त्र का अभिप्राय यह है कि नाड़ियाँ रुधिरसंचार का मार्ग होने से शरीर की (योषितः) सेवा करनेहारी और सेवायोग्य हैं। जब किसी रोग के कारण वैद्यराज नाड़ीछेदन करे और रुधिर निकलने से रोग बढ़ाने में नाड़ियाँ ऐसी असमर्थ हो जाएँ जैसे माता-पिता और भाइयों के बिना कन्याएँ असहाय हो जाती हैं, तब नाड़ियों को रुधिर बहने से रोक दे। २−मनुष्य के सब कार्य कुकामनाओं को रोककर मर्यादापूर्वक करने से सफल होते हैं ॥१॥

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